आनंद शुक्ल

दिनकर के साहित्य में भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता की भावना अपनी अनेक अर्थ-छवियों के साथ सदैव मौजूद रही है। उनका सांस्कृतिक अध्ययन ऐतिहासिक प्रामाणिकता की रक्षा करते हुए उन तत्त्वों पर बल देता है, जो देश की जनता को उद्बुद्ध, विवेकवान और क्रियाशील बनाने में सहायक हैं। दिनकर के वैचारिक-सांस्कृतिक लेखन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति ‘संस्कृति के चार अध्याय’ (1956 ई.) है। इसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति के मूल उपादानों का ऐतिहासिक विकास प्रस्तुत करने के क्रम में इतिहास और संस्कृति पर गंभीर चिंतन के बावजूद साहित्यिकता की रक्षा का हर संभव प्रयत्न किया है। उनकी कामना ‘भारतीय संस्कृति के उदार, सामासिक और मानवीय पक्ष को जनसाधारण तक संप्रेषित करने की रही है।’ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से पहले दिनकर ने ‘हमारी सांस्कृतिक एकता’ (1954 ई.) में हिंदू समाज की जीवन पद्धति में अंतर्निहित सांस्कृतिक एकता के तत्त्वों पर विचार किया है। उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता’ (1956 ई.) में राष्ट्रभाषा हिंदी की समस्याओं पर गंभीर विचार करते हुए, राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करने वाले अनेक कारकों का विवेचन-विश्लेषण किया है। दिनकर के रचनाकर्म की पृष्ठभूमि में आधुनिक भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण, स्वाधीनता आंदोलन और स्वाधीन भारत की समस्याएं हैं। समसामयिक परिदृश्य और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक बोध ने दिनकर के साहित्य में सांस्कृतिक उदारवाद और राष्ट्रीयता की भावना को आकार दिया। उनकी सांस्कृतिक कृतियों में उनका वही अतीत बोध और सांस्कृतिक चेतना रूपायित हुई है, जो कवि की राष्ट्रीय चेतना को स्वस्थ भारतीय परंपरा से संबद्ध करती रही है। दिनकर की दृष्टि में ‘भारतीय संस्कृति में सामासिकता, उदारता और सहिष्णुता ऐसे सूत्र हैं, जिनके माध्यम से भारत के अतीत और वर्तमान की आंतरिक बुनावट की पहचान के माध्यम से राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ और विकसित किया जा सकता है। दिनकर के लिए राष्ट्रीयता की भावना की प्राथमिक शर्त है- देश के प्रति प्रेम। उन्होंने देश की सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, इतिहास, प्रकृति और जनमानस के प्रति अगाध प्रेम भाव रखा है और अपनी रचनाओं के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति की है।

दिनकर भारत में अनेक संस्कृतियों के सहअस्तित्व को स्वीकार करते हुए भारत की मूल संस्कृति को सामासिक संस्कृति मानते हैं। वे भारतीय जनसमूह की रचना में नीग्रो, आस्ट्रिक, द्रविड़ और आर्य जातियों के सम्मिश्रण को मान्यता देते हैं। उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति के मूल उपादानों में द्रविड़ संस्कृति की भूमिका विशेष महत्त्व रखती है। उन्होंने बौद्ध और जैन मतों के विकास में वैदिक धर्म की रूढ़ियों की प्रतिक्रिया को मुख्य कारक माना है। उनके अनुसार ‘द्रविड़ और आर्य संस्कृतियों के मिलन से जिस हिंदुत्व का निर्माण हुआ, उसका नेतृत्व आठवीं शती तक उत्तर भारत के हाथ रहा, उसके बाद शंकराचार्य के समय यह नेतृत्व दक्षिण भारत चला गया और मध्ययुग में दार्शनिक आचार्य नेता दक्षिण के ही हुए। मध्यकालीन संस्कृति निवृत्तिमूलक थी। बौद्ध दार्शनिकों और स्वयं शकराचार्य ने इस निवृत्तिमूलकता को समर्थन दिया। आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद और लोकमान्य तिलक ने कर्मशील और प्रवृत्तिमूलक जीवन दृष्टि की रचना करके भारतीय संस्कृति को स्वस्थ चेतना से मंडित किया।’ दिनकर द्वारा प्रतिपादित सामासिक संस्कृति का वही अर्थ है, जिसे अनेक विद्वानों ने संगम संस्कृति, मिली-जुली संस्कृति या गंगा-जमुनी तहजीब कहा है। दिनकर ने सामासिक संस्कृति की बात करते हुए भी भारतीय समाज में सांस्कृतिक बहुरूपता और विशिष्टता के प्रति आदर का भाव रखा है। सांस्कृतिक बहुरूपता के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण सदैव अन्य संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता की मनोभूमि बनाता है। भारतीय जीवन शैली, सांस्कृतिक विरासत, धार्मिक विश्वास, भाषा, साहित्य, कला, संगीत, रीति-रिवाज, खानपान, चिंतन-शैली आदि में अनेक विविधताएं हैं। इस देश के लोगों में जीवन के उद्देश्य को लेकर भी बहुत-सी धारणाएं हैं, जीवन की बहुत-सी पद्धतियां हैं। आशय यह है कि अनेक संस्कृतियों का सहअस्तित्व या बहुसांस्कृतिकता भारतीय परिदृश्य की विशिष्ट पहचान है। इस पहचान को बनाए रखते हुए दिनकर संस्कृति के विविध रूपों को अलग-अलग खानों में बांटने की जगह उन्हें जोड़ने, उनकी एकता के अंत:सूत्र तलाशने और उनके बुद्धिवादीकरण के प्रति सचेत दिखाई देते हैं। दिनकर का युग सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों का युग है। इस दौर के रचनाकारों के साहित्य और राजनीति के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकार भी बड़े स्पष्ट थे। सभी मिलकर सामाजिक विषमताओं और धार्मिक रूढ़िवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए उदारवादी तथा समतामूलक समाज और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीयता का पक्ष मजबूत करना चाहते थे। वे सामाजिक-सांस्कृतिक आधुनिकता लाना चाहते थे। दिनकर न केवल अपने युग के इन सरोकारों से पूरी गंभीरता से जुड़ते हैं, बल्कि अपने वैचारिक-सांस्कृतिक लेखन के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति में सफल भी होते हैं।

दिनकर के सांस्कृतिक चिंतन की महत्त्वपूर्ण विशेषता भारतीय संस्कृति के उदारवादी-सामंजस्यवादी रूप के अर्थ-विस्तार में है। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण को दिनकर ने अनेक अर्थ-छवियों के साथ व्यंजित किया है। उनके चिंतन में रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, तिलक, अरविंद, गांधी, आंबेडकर आदि के विचारों की अनुगूंज के साथ समाजवादी-साम्यवादी विचार पद्धतियों के प्रति आकर्षण का भाव भी है। दिनकर के चिंतन का मूल स्वर दीन-हीन, शोषित-वंचित, उपेक्षित और दलित का सुख और उसकी मंगल कामना है। उनका चिंतन भाग्यवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद और उपनिवेशवाद विरोधी है। दिनकर ने राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ और विकसित करने के लिए विविध समुदायों, वर्गों, भाषा-भाषियों की एकता पर बल दिया है। वे राष्ट्रीयता की भावना के विकास में संस्कृति की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ‘भारतवर्ष में राष्ट्रीयता भी संस्कृति की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। पहले इस देश में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का उदय हुआ और लोग इस स्वाभिमान से भरने लगे कि हम अत्यंत प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं और यूरोप में आधिभौतिक सुखों का चाहे जैसा भी अंबार लगा हो, किंतु हम उन मूल्यों के उत्तराधिकारी हैं, जिन्हें ऊंची मानवता वरण करती है। इस चेतना के जन्म लेने पर उसी के निष्कर्ष-स्वरूप भारत में राजनीतिक राष्ट्रीयता का जन्म हुआ।’ दिनकर ने सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का संबंध धर्म से माना है। उन्होंने बीसवीं शताब्दी नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन के वर्षों में, राष्ट्रीयता के धर्म से अलगाव और राजनीतिक स्वरूप के क्रमिक विकास का उल्लेख किया है।

दिनकर ने राष्ट्रीय एकता के मार्ग में हिंदू-मुसलिम अलगाव और उच्छेदकारी शक्तियों का उल्लेख दो प्रमुख समस्याओं के रूप में किया है। उन्होंने हिंदू-मुसलिम समस्या के समाधान और उनकी एकता को मजबूत बनाने की दो शर्तें रखी हैं। ‘पहली शर्त यह है कि हिंदू छुआछूत की भावना का सर्वथा त्याग करें और दूसरी शर्त यह है कि भारत के मुसलमान अपनी धर्म भक्ति और स्वदेश प्रेम के बीच सामंजस्य बिठाएं और इस आशंका को निर्मूल कर दें कि उनकी स्वदेश भक्ति और धर्म भक्ति के बीच पूरी एकता नहीं है।’ उनकी दृष्टि में राष्ट्रीय एकता के मार्ग में इस समस्या से बड़ी समस्या है ‘प्रांतीयता, जात-पांत, गोत्रवाद, दलबंदी और केंद्रीय नियंत्रण के विरुद्ध बेचैनी और मंद विद्रोह के भाव।’ दिनकर ने देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं के समाधान और राष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिए पुरातन और नवीन के समन्वय पर बल देते हुए राष्ट्रभाषा के महत्त्व, वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति, आधुनिकता, शिक्षा के विकास, जनसंख्या वृद्धि पर रोक आदि पर विचार किया है। दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में विश्व संस्कृति पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव का विशद वर्णन किया है। उनका उद्देश्य भारतीयों में आत्म गौरव की भावना को जागृत करना है। उनका मानना है कि भारतीय संस्कृति का पश्चिम पर पड़ने वाला प्रभाव आज भी अवरुद्ध नहीं हुआ है। उन्होंने परंपरागत भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि और आधुनिकता बोध के बीच उभरने वाले द्वंद्व पर भी विचार किया है। वे आधुनिक बोध के मूल में विज्ञान की सत्ता को स्वीकार करते हैं, पर पाश्चात्य पद्धतियों और जीवन शैलियों के अंधानुकरण का प्रबल विरोध करते हैं। दिनकर विज्ञान और राजनीति की प्रगति से पूर्णत: परिचित हैं। वे जीवन के सकारात्मक परिवर्तनों को सहज भाव से स्वीकार करते हैं। उनके वैचारिक-सांस्कृतिक लेखन का धरातल विकसित राष्ट्रीय और मानवीय चेतना है। उन्होंने संस्कृति के अध्ययन के माध्यम से न केवल पूरे देश की एकता प्रतिपादित करने का, बल्कि उसके प्रसुप्त आत्मविश्वास और स्वाधीन चिंतन को जागृत करने का उल्लेखनीय कार्य किया है।