बाबा साहब का मानना था कि संस्कृत पूरे देश को भाषाई एकता के सूत्र में बांध सकने वाली इकलौती भाषा हो सकती है। उन्होंन इसे देश की आधिकारिक भाषा बनाने का सुझाव दिया था। संविधान सभा में भीमराव आंबेडकर ने राष्ट्रीय भाषा के रूप में संस्कृत का समर्थन किया था, हालांकि उनका मानना था कि देश की आजादी के बाद अंग्रेजी को कम से कम पंद्रह साल तक देश की आधिकारिक भाषा बनाए रखा जा सकता है, जब तक संस्कृत पूरी तरह से स्वीकार्य भाषा नहीं हो पाती। आंबेडकर ने देश की आजादी के तुरंत बाद गठित राष्ट्रभाषा व्यवस्था परिषद को संस्कृत को भारतीय संघ की राजभाषा बनाने का सुझाव दिया। वे इस बात से आशंकित थे कि आजाद हिंदुस्तान कहीं भाषाई झगड़े की भेंट न चढ़ जाए। देश में भाषा को लेकर कोई विवाद न हो, इसलिए जरूरी है कि राजभाषा के रूप में ऐसी भाषा का चुनाव हो, जिसका सभी भाषाभाषी बराबर आदर करते हो। आंबेडकर जानते थे कि यह संभावना सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत में ही हो सकती है। उन्हें भरोसा था कि संस्कृत के नाम पर देश में कहीं कोई विवाद नहीं होगा। इसीलिए सारी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को राजभाषा बनाने पर बहस जब पूरी हो गई तो आंबेडकर ने संस्कृत को राजभाषा के रूप में रखने का प्रस्ताव रखा।

11 सितंबर 1949 के ‘नेशनल हेराल्ड’ में एक खबर छपी, ‘संस्कृत के साथ आंबेडकर।’ इस समाचार के अनुसार भारत के कानून मंत्री डॉ. भीमराव आंबेडकर उन लोगों में शामिल थे, जो संस्कृत को भारतीय संघ की आधिकारिक भाषा बनाने की पैरवी कर रहे थे। इस प्रस्ताव में उनके साथ भारत के विदेश मामलों के उपमंत्री डॉ. बीवी केस्कर और बंगाल से आने वाले सांसद नजीरुद्दीन अहमद भी थे। बाबा साहेब आंबेडकर से इस संबंध में सवाल पूछने पर उन्होंने पीटीआई के संवाददाता से कहा, ‘क्यों? संस्कृत में क्या दोष है?’ आंबेडकर ने कहा कि विधान परिषद राजभाषा पर विचार करते समय इस संशोधन पर भी विचार करेगा। संस्कृत के पक्ष में राजभाषा संशोधन पर हस्ताक्षर करने वालों में आंबेडकर के अलावा पंडित लक्ष्मीकांत मैत्र (बंगाल), पंडित टीटी कृष्णमाचारी (मद्रास) समेत अन्य पंद्रह लोग थे। इनके नाम हैं – जीएस गुहा (त्रिपुरा-मणिपुर), सीएम पुंछ (काशी), वी रमैया (पुडुकोट्टाह), वीआई मुनिस्वामी पिल्लै (मद्रास), कल्लूर सुब्बराव (मद्रास), वीसी केशव राव (मद्रास), डी गोविंददास (मद्रास), पी सुब्बाराव (मद्रास), वी सुब्रमण्यम (मद्रास), दुर्गा बाई (मद्रास) और दाक्षायणी वेलायुधन (मद्रास)।

आंबेडकर ने इन सदस्यों के साथ जो प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू की सरकार को सौंपा था, उसमें तीन बिंदु थे। पहला था भारतीय संघ की भाषा संस्कृत बनाना। दूसरा प्रस्ताव बना कि आजादी के शुरुआती पंद्रह सालों तक अंग्रेजी आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग में भले आती रहे, पर संस्कृत इसके सामानांतर राजभाषा के रूप में काम में ली जाए। पंद्रह साल बाद संस्कृत को संघ की आधिकारिक भाषा बना दिया जाए। संसद अंग्रेजी को सिर्फ पंद्रह साल तक काम में लेने का कानून बना दे, यह प्रस्ताव का तीसरा बिंदु था। आंबेडकर का यह सुझाव उस प्रस्ताव के संशोधन के लिए था, जिसमें राष्ट्रभाषा व्यवस्था परिषद अपने तीन प्रस्ताव अगस्त, 1949 में सरकार को दे चुकी थी। परिषद ने अपने प्रस्तावों में यह निश्चय किया था कि अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी निश्चित रीति से प्रतिष्ठित की जाए, जिसमें दस साल से अधिक समय न लगे। भारतीय संघ के विभिन्न प्रांत अपनी प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग करने में स्वतंत्र होंगे। पर इन प्रांतों की शिक्षण पद्धति में दो भारतीय भाषाओं का शिक्षण आवश्यक होगा। परिषद् का यह भी निश्चय है कि आदर्श वाक्यों, उपाधियों आदि तथा शोभा के स्थानों में भारतीय संघ संस्कृत का प्रयोग करे।

यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि आंबेडकर ने संस्कृत के तमाम ग्रंथों का भीतर तक अध्ययन किया था। इस अध्ययन के आधार पर उनकी एक धारणा बनी। इस धारणा के आधार पर आंबेडकर ने एक निष्कर्ष निकाला। यह निष्कर्ष एक लंबे अध्ययन का परिणाम था कि आर्य भारत में कहीं बाहर से नहीं आए। आर्य और द्रविड़, दोनों भारत के मूल वंशज हैं। महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद और दयानंद सरस्वती का भी मानना यही था। आंबेडकर इन भ्रांतियों को तोड़ना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने यह आवश्यक माना कि भारत के लोग अनिवार्य रूप से संस्कृत लिखें-पढ़ें। जब लोग संस्कृत समझेंगे तो कई विद्रूपताएं टूटेंगी। आश्चर्य है कि आंबेडकर का यह सपना आज भी पूरा होने की प्रतीक्षा में है।