जनजातीय समाज के बारे में न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में एक पूर्वाग्रह से भरी दृष्टि रही है। नतीजतन इस समाज की मेधा, क्षमता और योगदान का वाजिब मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका है। भारत की बहुरंगी संस्कृति में सबसे ठेठ रंग इसी समाज का है। विकास और आधुनिकता की नई बयार के बीच भारतीय जनजातीय समाज की कई विलक्षण खूबियां आज भी बरकरार हैं। यह अलग बात है कि इन खासियतों के बावजूद इनके आगे अपनी संस्कृति और अस्मिता को कायम रखने की बड़ी चुनौती रही है।

झारखंड देश का एक ऐसा सूबा है जिसका गठन ही इस मांग के लिए दशकों चले संघर्ष के बाद हुआ कि वनवासियों की शिनाख्त को भौगोलिक और राजनीतिक तौर पर अमिट रहने दिया जाए। झारखंड की पहचान और इससे जुड़े संघर्ष के साथ यहां के लोगों की मेधा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिन शख्सियतों ने शुरुआती पहचान दी, उनमें जयपाल सिंह मुंडा का नाम सर्वप्रमुख है। इसलिए उन्हें इस पूरे क्षेत्र में ‘मरांग गोमके’ (महान नेता) के तौर पर श्रद्धा और समादर के साथ याद किया जाता है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयपाल सिंह का जन्म तीन जनवरी 1903 को तत्कालीन बिहार के रांची जिले के खूंटी जिले के टकरा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम आमरु पाहन मुंडा था। जयपाल सिंह बेहद प्रतिभाशाली थे। पढ़ाई के साथ उन्होंने अपने कौशल का परिचय खेल के मैदान में भी दिखाया। बचपन से उन्हें हॉकी खेलना पसंद था। उनकी प्रतिभा को एक अंग्रेज शिक्षक ने पहचाना और उन्हें आक्सफोर्ड (इंग्लैंड) के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए ले गए। इंग्लैंड में रहकर जयपाल सिंह ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसी दौरान 1928 में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में होने वाले ओलंपिक के लिए उन्हें भारतीय हॉकी टीम का कप्तान नियुक्त किया गया। उन्होंने भी इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाया और अपनी अगुआई में देश को पहली बार हॉकी में स्वर्ण पदक दिलवाया।

1928 के ओलंपिक से ठीक पहले उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आइसीएस) में हो गया था। आइसीएस के प्रशिक्षण के दौरान ही उन्हें भारतीय हॉकी टीम का कप्तान नियुक्त किया गया और वे टीम के साथ नीदरलैंड चले गए। वहां से वापसी पर उन्हें आइसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया, जिसके लिए वे राजी नहीं हुए और इस तरह उनका आइसीएस बनने का सपना टूट गया।

वे झारखंड आंदोलन की नींव तैयार करने वाले नेता थे। इसके साथ ही वे जाने-माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक और शिक्षाविद भी रहे। 1925 में वे ‘आक्सफोर्ड ब्लू’ का सम्मान पानेवाले हॉकी के अकेले अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे। तत्कालीन बिहार में आदिवासियों की खराब हालत को देखते वे इस समाज के संघर्ष के साथ जुड़े। उन्होंने जनवरी 1938 में आदिवासी महासभा की अध्यक्षता की, जिसमें अलग झारखंड राज्य की स्थापना की मांग उठी। इसके बाद जयपाल सिंह आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए। वे 1952 में खूंटी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। उनके नेतृत्व वाली झारखंड पार्टी ने बिहार विधानसभा में 34 सीट और लोकसभा में पांच सीट जीत कर अच्छा प्रदर्शन किया।

जयपाल सिंह की शख्सियत उस सामाजिक और राजनीतिक हलचल से निर्मित हुई थी, जिसका केंद्र औपनिवेशिक दौर में यूरोप था। अर्थशास्त्र का छात्र होने के नाते उस दौरान बदलाव की जो आहट भारत सहित पूरी दुनिया में महसूस की जा रही थी, उसे वे न सिर्फ महसूस कर रहे थे बल्कि इसके साथ भारतीय जनजातीय समाज को जोड़ने की अगुआई भी की।