संयुक्त राष्ट्र के एक ताजा अध्ययन में कहा गया है कि वैश्विक आबादी के पचास प्रतिशत लोग इंटरनेट से जुड़ चुके हैं। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र के अनेक अध्ययनों के केंद्र में प्राय: विश्व की शांति, अर्थव्यवस्था, गरीबी, मानवाधिकार, कला एवं संस्कृति आदि हुआ करते थे, ऐसे में इसको इंटरनेट से जुड़ी उपलब्धि का संज्ञान लेते हुए देखना महत्त्वपूर्ण है। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र में इसकी शुरुआत इसी वर्ष हुई है, जिसमें इसके वर्तमान महासचिव एंटोनियो गुटेर्स की पहल पर एक डिजिटल पैनल का गठन हुआ है। इस कवायद के पीछे विचार यह है कि ‘आधुनिक तकनीकी युद्ध स्तर पर अर्थव्यवस्था और समाज को बदल रही है और इस बदलाव की तेजी अभूतपूर्व है।’
ऐसे में उचित ही है कि संयुक्त राष्ट्र विश्व-समाज पर तकनीक के प्रभावों या दुष्प्रभावों का अध्ययन करे और तदनुरूप समाज को जागरूक करे। क्योंकि तकनीक अपने विभिन्न फलकों के माध्यम से आज जीवन-प्रक्रिया के विस्तार के एक ऐसे साधन के रूप में परिवर्तित होती जा रही है, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इसके समुचित और जागरूक उपयोग से समाज के विभिन्न बदलावों में एक बेहतर हस्तक्षेप हो सकता है और बहुत हद तक हो भी रहा है। अगर पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के सामाजिक बदलावों को विश्लेषित किया जाय, तो निस्संदेह एक समाज के रूप में हम अपनी जड़ीभूत बुराइयों से कुछ कदम आगे बढ़े हैं, जिससे एक बेहतर भविष्य की राह दिखती है। आज तकनीक के हस्तक्षेप से भ्रष्टाचार के कम होने की उम्मीद बंधती है और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का दबाव बढ़ा है। एक तरफ समाज के ऊंच-नीच के भेदभाव से परे सोशल मीडिया पर सबको अपनी बात रखने का अवसर मिलता है, तो दूसरे मीडिया और संचार के माध्यमों में संस्थागत वर्चस्व टूट रहा है। ताजा तकनीक समर्थित ‘मीटू’ अभियान ने न सिर्फ हमारे समाज के स्याह पक्ष को उजागर किया, बल्कि यह भी नए सिरे से स्थापित किया है कि समाज के विभिन्न प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों में भी कितने छिद्र बचे रहते हैं। उनमें जेंडरगत कुंठा भी एक है। दूसरी तरफ सीसीटीवी और मोबाइल के कैमरों से समाज में व्याप्त झूठ की प्रवृत्ति, चोरी, छेड़खानी आदि समस्याओं पर चोट करना शुरू कर दिया है। सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि चोरी महज अभावों की मुहताज नहीं होती, बल्कि एक प्रवृत्ति होती है, जो सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमियों से परे व्यक्ति की आदत में शामिल हो जाती है। देखा जाय तो तकनीक ने जिस तरह समाज के गुणों को सामने लाई है, उसी तरह दुर्गुणों पर भी प्रकाश डाला है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण होंगें, जिनमें सार्वजनिक स्थल पर होने वाली मारपीट, दंगा, आगजनी आदि की घटनाओं में दोषी की पहचान खुद अपराधी या उसके समूह के लोगों द्वारा मोबाइल से लिए गए वीडियो से होती है, ऐसे में पत्रकार होने के पारंपरिक नियामक टूट रहे हैं और पत्रकारीय परिधि का विस्तार हो रहा है। इस पूरे प्रकरण में राजनीति और मीडिया के गठजोड़ से स्थापित अनेक ‘सत्य’ की सफेदी भी धूमिल हो रही है और नए सत्य स्थापित हो रहे हैं।
इन सबके बावजूद तकनीक की अपनी सीमाएं हैं और जिस रूप में वह हमारे सामने आ रही है, वह कई मायनों में खतरनाक भी है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि तकनीक का विकास न हो, बल्कि यह है कि तकनीक की उपयोगिता हमारे जीवन में किस स्तर तक रहे और इसमें किस सीमा तक संतुलन होना चाहिए, इस पर भी विचार इसी पीढ़ी को करना चाहिए। क्या तकनीक से हमारे जीवन की आधारभूत जरूरतें पूरी हो सकती हैं? न तो तकनीक से भूख को मिटाया जा सकता और न ही उसे पहना जा सकता है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने में हो सकता है कि एक स्तर पर तकनीक सहयोगी हो, लेकिन महज तकनीक से मानव-समाज की सभी जरूरतें पूरी नहीं की जा सकतीं। एक समाज के रूप में हमें सबसे पहले उन आवश्यकताओं को देखना होगा, जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की चिंताओं में शामिल हो। तकनीक दरअसल मनुष्य के मशीनीकरण की एक प्रक्रिया है और यह मशीनीकरण किस स्तर तक व्यक्ति के जीवन में शामिल हो, इस पर भी विचार होना चाहिए।
असल में मुद्दा यह भी है कि आज सूचना-तकनीक का स्रोत क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि व्यक्तिगत सुविधा और स्वतंत्रता के नाम पर हमारा पूरा लोकतंत्र ही बंधक बन जाए। यह एक डरावना तथ्य है कि भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में जिस चीज ने सबसे ज्यादा विकास किया या यों कहें कि सबसे ज्यादा पूंजी बटोरी वह तकनीक ही है। अगर हम पिछले दस साल के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण करें, तो इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि दुनिया के पूंजीपतियों की जमात में सर्वाधिक व्यक्ति या कंपनियां हैं, वह हैं जिनका आधार सिर्फ सूचना तकनीक से जुड़े हुए उद्यम हैं। हम यह भी देखते हैं कि ऑपरेटिंग सिस्टम से लेकर इंटरनेट प्लेटफार्म तक की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सब एक-दूसरे को निगल लेने की होड़ में शामिल हैं और विकासशील देशों से इस दिशा में होने वाले प्रयास इस संघर्ष में बहुत दूर तक प्रतिरोध नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में 2018 फोर्ब्स की दुनिया के पूंजीपतियों की सूची में ताजा नाम जो शीर्ष पर है, वह अमेजन का है, जो न तो अपने आप में कोई उत्पाद हैं और न ही स्वयं में संपूर्ण। उसका काम उत्पादों और उपभोक्ताओं के बीच मध्यस्थता का है, जिसे हम अपनी भाषा में ‘दलाली’ कहते हैं। ऐसे में यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि अमेजन का अचानक शीर्ष पर पहुंचने में सबसे बड़ा आधार उसका इंटरनेट पर उपलब्ध होना है। इंटरनेट आधारित इन रातोरात विकास कर रही कंपनियों में ऐसी कंपनियां भी हैं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण या प्रश्रय देने के लुभावने आवरण के साथ विकास कर रही हैं।
हाल में फेसबुक पर भी दुनिया के अनेक देशों में चुनावी प्रक्रिया में छेड़छाड़ और परिणामों में प्रभाव डालने का आरोप लगा है, तो यह इसके लोकतांत्रिक होने के भ्रम को तोड़ता है। इस क्रम में यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब दुनिया का पूरा खेल डाटा-संग्रहण और सूचना-विश्लेषण पर केंद्रित होता जा रहा है, तो ऐसे सोशल मीडिया से जुड़ी कंपनियां हमारे डाटा को कब, कहां, कैसे उपयोग में ला रही हैं, इसे एक आम उपभोक्ता समझ पाने की स्थिति में नहीं होता है। आज अगर सोशल मीडिया से जुड़ी कंपनियां अपने लोकतांत्रिक विस्तार के आधार पर विज्ञापन का खेल व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्तता को दरकिनार कर खेल रहीं हैं, वहीं कल ये हमारी सरकारों से इन्हीं डाटा के आधार पर मोल-भाव की स्थिति में होंगीं और पूंजी की व्यापकता के आधार पर कोई सरकार उनकी इन मांगों की सहज अवहेलना नहीं कर सकती। यह खतरा भारत जैसे देश में और अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि यहां न तो आम समाज में उस स्तर की जागरूकता है और न ही सरकारों में इनसे बच पाने की कोई दृढ़ कार्ययोजना। कहीं ऐसा न हो कि जब तक हम चेतें तब तक सब कुछ हाथ से निकल चुका हो। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियां हमारे आंकड़ों और गतिविधियों के आधार पर अपना शोध-संसाधन और पूंजी बना रही हैं और इसका उचित लाभ देश की अर्थव्यवस्था को भी नहीं मिल रहा है।
इसके साथ ही आज सूचना-तकनीक के गजटों ने समाज पर तेजी से प्रभाव डालना शुरू कर दिया है, जिसका प्रभाव सामाजिक, मानसिक और आर्थिक स्तरों पर भी पड़ रहा है, जिसका एक पक्ष ई-कचरा की अधिकता के कुप्रभाव भी है। समाज में जितना तकनीक की आवश्यकता है, उससे अधिक उसके साथ मनुष्य का संतुलन भी होना जरूरी है। आज समाज की आवश्यकता और उनकी पूर्ति के मध्य बाजार जिस रूप में शामिल है, उस पर समाज के साथ सरकारों का भी प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि व्यक्तिगत लोकतांत्रिक मूल्यों के वर्चुअल अनुभूति के क्रम में हमारा मूल लोकतंत्र ही कहीं किसी अमेरिकी सर्वर में बंधक न बन कर रह जाए। गौरतलब है कि हमारे दैनिक जीवन की मूल आवश्यकता अनाज के उत्पादक किसान का जीवन स्तर तो नहीं बदलता, लेकिन द्वितीयक आवश्यकता इंटरनेट और इसकी मध्यस्थता के व्यापार में शामिल कंपनियां रातों-रात वैश्विक धनिकों की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाती हैं। निश्चित रूप से अमेरिका में ही स्थित संयुक्त राष्ट्र को इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिए।