पंडिता रमाबाई प्रख्यात संस्कृत ज्ञाता होने के साथ-साथ समाज सुधारक व सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उन्होंने आजीवन महिला सशक्तिकरण के लिए संघर्ष और समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध किया।

गरीबी में बीता बचपन
उनका जन्म कर्नाटक के गंगमूल के जंगलों में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। रमाबाई के बचपन का नाम रमा डोंगरे था। उनके पिता अनंत शास्त्री संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, जिन्होंने समाज की परवाह न करते हुए पत्नी और बेटियों को संस्कृत की शिक्षा दी थी। फलस्वरूप उन्हें पैतृक संपत्ति और घरबार छोड़ कर जंगलों में भटकना पड़ा। तीर्थस्थानों में कथावाचन से बड़ी मुश्किल से उनके घर का गुजारा चलता था। 1877 में अकाल के कारण रमाबाई के माता-पिता और उनकी छोटी बहन का देहांत हो गया। इसके बाद रमाबाई बड़े भाई श्रीनिवास के साथ कलकत्ता आ गईं।

पंडिता और सरस्वती की उपाधि
रमाबाई को वेद और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। उन्हें भागवतपुराण पूरा कंठस्थ था। जब वे कलकत्ता आईं तो पंडितों ने उनके संस्कृत ज्ञान की परीक्षा लेनी की सोची। संस्कृत सभा में उनके ज्ञान को देखते हुए उन्हें ‘पंडिता’ और ‘सरस्वती’ की उपाधि से विभूषित किया गया। रमाबाई ने एक बंगाली युवक बिपिन बिहारी मेधावी से विवाह करने का निश्चय किया। दोनों की जाति एक नहीं थी। इसलिए लोगों ने उनके विवाह का विरोध किया। विवाह के बाद रमाबाई पति के साथ सिलचर में रहने लगीं। उनको एक बेटी हुई, जिसका नाम उन्होंने मनोरम रखा। एक मामूली सी बीमारी से 1882 में पति की मृत्यु हो गई। इसके बाद वे अपनी बेटी के साथ पुणे आ गईं।

ईसाई धर्म अपनाया पर नहीं छोड़ी भारतीयता
समाज में महिलाओं की स्थिति देखते हुए उन्होंने स्त्रियों को पढ़ाने-लिखाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का निर्णय किया। इसी क्रम में उन्होंने इंग्लैंड जाकर प्रशिक्षण लेने का निश्चिय किया। इसका विरोध भी हुआ, लेकिन वो कहां रूकने वाली थीं। वो इंग्लैंड गर्इं और वहां के एक कॉलेज में संस्कृत की प्राधापिका हो गर्इं। साथ ही गणित, विज्ञान और अंग्रेजी की पढ़ाई भी करती रहीं। इस बीच, उन्हें ईसाई धर्म को नजदीक से जानने का मौका मिला और कुछ समय बाद ईसाई धर्म में दीक्षित हो गईं। हालांकि इसके बावजूद उन्होंने भारतीय संस्कृति, खानपान और वेशभूषा को जिंदगीभर नहीं छोड़ा।

शारदा सदन की स्थापना
इंग्लैंड से रमाबाई अमेरिका भी गईं, वहां उन्होंने नई शिक्षा पद्धति का गहन अध्ययन किया। किंडर गार्डन प्रणाली के अंग्रेजी पुस्तकों के आधार पर मराठी पुस्तकें तैयार कीं, भारतीय संस्कृति पर व्याख्यान भी दिया। इनसे जमा राशि उनके सपनों को साकार करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए उन्होंने अमेरिकी जनता से धन की अपील की। बोस्टन शहर में अमेरिकी रमाबाई संघ की स्थापना हुई और उससे प्राप्त धन से रमाबाई ने बंबई में विधवाओं के लिए शिक्षण संस्था शारदा सदन की स्थापना की। बाद में शारदा सदन को पुणे लाया गया। इस दौरान उन्होंने मुक्ति सदन और कृपा सदन की भी स्थापना की।

कैसर-ए-हिंद की उपाधि
रमाबाई के प्रयासों से बहुत सी स्त्रियों ने न सिर्फ पढ़ना-लिखना सीखा बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता की तरफ भी कदम बढ़ाया। उनके योगदान को देखते हुए 1919 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘कैसर-ए-हिंद’ के सम्मान से नवाजा। 1922 में रमाबाई का देहांत हुआ। उन्हें उनकी कर्मभूमि मुक्ति सदन के प्रांगण में दफनाया गया। ल्ल