अगर साहित्य में किसी एक विधा ने सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की है, तो वह है गजल। गजल न सिर्फ मुशायरों के जरिए, बल्कि गायकी के सहारे भी खूब फली-फूली। एक जमाना था, जब फिल्मों में गजलों ने लोगों को खूब आकर्षित किया। इस तरह गजल ने अरबी, फारसी और उर्दू से होते हुए हिंदी में भी अपनी जगह बनानी शुरू कर दी और इसकी एक लंबी परंपरा विकसित हुई। मगर आज गीत-संगीत के फैलते संजाल और युवाओं में संगीत के प्रति बढ़ते रुझान के बीच गजल की लोकप्रियता कम होती नजर आने लगी है। इसकी क्या वजहें हैं और गजल का क्या भविष्य है, बता रही हैं नाज़ खान।

अरबी, फारसी से उर्दू तक का सफर तय करके हिंदी में भी अपनी जगह बनाने को संघर्ष कर रही गजल आज भी क्या उतनी ही लोकप्रिय है? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज गजल का स्वरूप उसके परंपरागत मिजाज से कहीं अलग है। हर दौर में खुद को संभालती, संवारती आई गजल में समय, माहौल के मुताबिक कई बदलाव हुए हैं। ऐसे में इन बदलावों और नए अंदाज के साथ भी वह दिलों में अपनी जगह बनाए रखने में कामयाब रही है। कभी महबूब की बातें करने वाली गजल वक्त के साथ इतनी बदल चुकी है कि आज वह न सिर्फ सियासत की बात करती है, बल्कि समाज के हर पहलू को शब्दों में पिरो कर पेश करने में दक्ष नजर आती है। इसे क्या कहें, समय के साथ इसमें जरूरी बदलाव या गजल के असल मिजाज के साथ खिलवाड़?  गजल शुरू से ही इंसानी जज्बातों के बयान का एक जरिया रही है और वक्त, माहौल के मुताबिक इसमें बदलाव होते रहे हैं। यह जरूर है कि इसकी शुरुआत इश्क-मुहब्बत के जज्बात से हुई थी, मगर समय के साथ इसमें वतन से मुहब्बत के साथ इंकलाब जैसे जज्बों ने भी जगह बना ली। ऐसे में इन बदलावों को इसको जिंदा रखने की कोशिश भर कहा जाए या माहौल, मिजाज के मुताबिक ढलने के तौर पर देखा जाए। आज के समय में ये दोनों बातें सही कही जा सकती हैं, क्योंकि आज जहां गजल की लंबी उम्र और युवाओं में इसे लोकप्रिय बनाए रखने के लिए इसके अंदाज में बदलाव जरूरी है, वहीं समय के साथ इसके चलने के लिए भी इसमें साज को लेकर किए गए प्रयोग भी बेहतर नजर आते हैं। दरअसल, गजल की लोकप्रियता आज इस बात पर ज्यादा निर्भर है कि इसे किस अंदाज में पेश किया जा रहा है।

उर्दू के मशहूर आलोचक रशीद अहमद सिद्दीकी ने गजल को आबरू-ए-शायरी कहा था। वहीं फिराक गोरखपुरी ने इसे इस तरह कहा है कि कंठ से जो दर्द भरी आह निकलती है वही गजल है। किसी शायर ने भी गजल के बारे में क्या खूब लिखा है, ह्यरूह जब बज्म में आए तो गजल होती है, कोई जब दिल को दुखाए तो गजल होती है।ह्ण ऐसे में कहा जा सकता है कि जब तक दिलों में जज्बात जिंदा हैं, गजल जिंदा रहेगी। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शायर वसीम बरेलवी के मुताबिक, ह्यगजल की लोकप्रियता न तो कभी कम हुई है और न ही होगी। ऐसा किसी जमाने में नहीं हुआ कि हर भाषा में गजल कही जा रही हो। जैसे कि आज कही जा रही है फिर चाहे ओड़िया हो, मराठी, पंजाबी, गुजराती सबमें गजल लिखी जा रही है। हिंदी के अच्छा लिखने वाले लोग भी अब गजल की तरफ रुख कर रहे हैं। इंटरनेट, सोशल साइट पर आज देखिए, गजल कितनी लोकप्रिय है। हां, इतना जरूर है कि आज गजल का रंग-रूप बदल रहा है। इसमें तब्दीलियां आ रही हैं और यही इसकी मकबूलियत का राज भी है।ह्ण प्रसिद्ध कवि और गजलकार कुंअर बेचैन भी गजल की लोकप्रियता में आई कमी की बात से इंकार करते हुए कहते हैं, ह्यआज भी गजल की लोकप्रियता उतनी ही है जितनी कि पहले थी। कोई विधा नहीं मरती, अगर उसके अंदर रवानी है और वह सामाजिक संदर्भ से जुड़ी हुई है। हां, समय के अनुसार बदलाव जरूर हुए हैं और होने भी चाहिए। जहां तक प्रश्न हिंदी-उर्दू गजल का है तो आज सब एक हैं। न तो हिंदी गजल ही हिंदी की है और न ही उर्दू गजल पूरी तरह से उर्दू की रही।

गजल की शुरुआत अरबी भाषा में हुई थी और फिर फारसी से यह उर्दू में आई। गजल एक ही बहर में कहे या गाए जाने वाले शेरों का समूह है। इसमें मतला, मक्ता, बहर, काफिया और रदीफ होते हैं। गजल का हर शेर अलग कहानी कहता है। भारत में गजल की शुरुआत बारहवीं शताब्दी से मानी जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि किसी की तारीफ में कहे जाने वाले कसीदों को ही बाद में गजल का रूप दे दिया गया। शुरुआत में गजल का हिंदी भाषा से कोई खास संबंध नहीं था, लेकिन बदलते वक्त के साथ गजल की भाषा भी आसान होती गई। इसे भारत, ईरान की साहित्य और संस्कृति की साझा पहचान के तौर पर जाना जाने लगा। अमीर खुसरो का इसमें अहम योगदान रहा है। उन्होंने फारसी और हिंदुस्तानी बोलियों को करीब लाने का काम बखूबी किया।

मुहम्मद कुली कुतुब शाह उर्दू के ऐसे पहले शायर हैं, जिनका काव्य-संग्रह मिलता है। उनके बाद वजही, ग्वासी, बहरी जैसे शायरों का दौर आया। वली पहले शायर हैं जिन्होंने उर्दू शायरी को फारसी शायरी के बराबर लाकर खड़ा कर दिया। इसके बाद उर्दू शायरी ने दक्षिण से उत्तर की ओर रुख किया। मीर और सौदा का समय उर्दू शायरी का स्वर्णकाल कहा जाता है। इस दौर में मीर, दर्द जैसे शायरों ने खासो-आम को प्रभावित किया और उच्च दर्जे की गजलें लिखी गर्इं। साथ ही इसी समय गजल की भाषा के साथ-साथ कई बदलाव भी आए। इस दौर की शायरी की खास बात यह है कि इस समय अधिकतर शायर सूफी पंथ से संबंधित थे। इसलिए इस समय की गजलों में जहां पे्रम, विरह के रंग दिखाई देते हैं, वहीं ईश्वर के प्रति पे्रम, समर्पण जैसे शेर भी गजल की शोभा बढ़ाते नजर आते हैं।

इसके बाद एक समय ऐसा भी आया जब उर्दू गजल देहलवी और लखनवी दो अंदाज में बंट गई। दिल्ली की शायरी में जहां इश्क और दिल की गहराइयों की बातें की जा रही थीं, तो लखनऊ की शायरी पर महबूब के बनाव-शृंगार, उसके रंग-रूप का जिक्र हावी था। इनमें जौक, गालिब और मोमिन ऐसे शायरों में शुमार हैं जिन्होंने गजल की परंपरा को आगे बढ़ाया। इनके कलाम की यह खासियत है कि उनमें जहां दार्शनिकता नजर आती है, वहीं भाषा भी पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा सरल दिखने लगी।
गजल का स्वभाव है कि यह हर तरह के जज्बात को शब्दों में व्यक्त करने में पूरे तौर सफल रही है। फिर चाहे बात दिल, जज्बात की हो, वतनपरस्ती, देशपे्रम या फिर इंकलाब की। गजल में सामाजिक और सियासी मुद्दों को भी जगह मिलने लगी। ऐसे में गजल सामाजिक चेतना का चोला पहने भी नजर आने लगी, तो इसमें विरह-मिलन की पीड़ा से अलग व्यंग्यात्मक और आक्रामक रुख भी दिखने लगा। अकबर इलाहाबादी की गजलों में जहां अंग्रेजी शासन की नीतियों पर प्रहार किया गया है, वहीं उनके यहां अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी बखूबी किया गया है। हालांकि इस दौर में गजलें कम, नज्में ज्यादा लिखी गर्इं। इसके बावजूद गजल के परंपरागत रूप को हसरत मोहानी, जिगर मुरादाबादी जैसे शायरों ने बनाए रखा। इसके बाद जोश, मजाज, जां निसार अख्तर, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कतील शिफाई, फैज जैसे शायरों का दौर आया और गजल अपने शबाब पर रही। इसी दौर में परंपरागत गजल से हटकर नई नज्म का दौर भी आया मगर अख्तर उल ईमान जैसे नज्मनिगारों के बावजूद गजल की अहमियत बनी रही।

उर्दू गजल ने भारत की लगभग हर भाषा पर अमिट छाप छोड़ी है। हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र जो कि ह्यरसाह्ण उपनाम से गजल लिखते थे। इसके अलावा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि की गजलें भी काफी अहमियत रखती हैं। आज भी खूब गजलें लिखी जा रही हैं। यह बात अलग है कि हिंदी में लिखी जा रही गजलों में भी उर्दू के शब्दों का गहरा दखल रहा है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि साज के साथ गजल की जुगलबंदी ने भी इसकी लोकप्रियता में इजाफा किया है। गजल को पूरी दुनिया में प्रसिद्धि मेहदी हसन ने दिलाई। उनके बारे में एक बार लता मंगेशकर ने कहा भी था कि, उनके गले में भगवान बोलता है। दरअसल, गजल का संगीत से गहरा रिश्ता रहा है। यही वजह है कि मेहदी हसन और गजल की मलिका कही जाने वाली बेगम अख्तर को गजल से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इनकी गजल गायकी में उपशास्त्रीय संगीत की बारीकियां दिखाई देती हैं। हालांकि अस्सी के दशक में गजल को नए अंदाज में पेश किया जाने लगा। पश्चिमी और भारतीय संगीत के मिलान से संगीत की एक अलग धुन पर गजल गाई जाने लगी। गजल गायकी में अल्बम का दौर शुरू हुआ और प्रसिद्ध गायकों का रुझान इसकी तरफ हुआ। इसी समय पंकज उधास, जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की जोड़ी ने अपनी गजल गायकी के अंदाज से सबका मन मोह लिया। जगजीत सिंह की गजल गायकी इसलिए भी प्रसिद्ध हुई, क्योंकि उन्होंने पश्चिमी वाद्य यंत्रों के साथ ही आसान शब्दों वाली गजलों को अपनाया। गजल को लेकर प्रयोग का दौर शुरुआत से ही जारी है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि ये बदलाव गजल की रूह और मिजाज के साथ अन्याय हैं। हरिहरन जिन्होंने फिल्मी गीतों से लेकर गजल की पारंपरिक शैली तक में गजल गाई हैं, उनका गजल के संबंध में कहना है कि, ह्यअस्सी के दशक के बाद से गजलों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया। इस दशक में गजल गायकी इतनी हो गई कि गजलों को गजलों ने ही मार डाला। हालांकि मेरी कोशिश गजलों को एक बार फिर से जिंदा करने की है। हम श्रोताओं को बताना चाहते हैं कि हम आज भी गजलें गा सकते हैं।

प्रसिद्ध गजल गायक गुलाम अली कहते रहे हैं कि पाकिस्तान से ज्यादा उनके चाहने वाले भारत में हैं। ऐसे में गजल के रंग-रूप में बदलाव भले आया हो और अपनी परंपरागत शैली से हट कर उसे गाया, लिखा जाने लगा हो, लेकिन यह सच है कि आज की पीढ़ी भी गजलों की दीवानी है। यही वजह है कि आज भी फिल्मी पर्दे पर गजल देखी, सुनी जाती है, तो वहीं गजलों के निजी अलबम आने का सिलसिला भी बना हुआ है। जहां तक भारत का सवाल है तो यहां पारंपरिक गजल का एक अलग श्रोता और पाठक वर्ग है, जिसे उर्दू और फारसी के शब्दों की अच्छी समझ भी रही है। लेकिन इसके अलावा एक ऐसा वर्ग भी है, जो भले ही उर्दू के कठिन शब्दों का मतलब न समझता हो, इसके बावजूद उसने गजल की मिठास को कानों में घुलता महसूस किया है। अगर यह कहें कि उर्दू गजल का वह दौर जो गजल की साहित्यिक महफिलों में होता था, उसने आज मंचीय गजल कार्यक्रमों का रूप ले लिया है। गजल संग्रह के पाठक भले ही कम हुए हैं, लेकिन लोग गजल अलबम सुनने को अहमियत देने लगे हैं। दरअसल, इसकी वजह समय की कमी और लोगों में उर्दू के प्रति गहरी समझ का अभाव को समझा जा सकता है। इसके बावजूद यह अच्छी बात है कि अपने जुदा अंदाज में ही सही आज भी गजल युवाओं को लुभा रही है। वहीं फिल्मी पर्दे पर भी गजल की रौनक कायम है।