उषा आरके के माता-पिता चाहते थे कि बचपन में वह कर्नाटक संगीत सीखें। क्योंकि उनकी बहनें भरतनाट्यम नृत्य सीख रही थीं। हालांकि, उन्हें गुरु सीआर आचार्य और गुरुचिन्ना सत्यम से नृत्य सीखने का सौभाग्य मिला। उन्हें त्यागराज के संगीत से परिचित करवाने में वी राघवन और चेल्लम अय्यर का विशेष स्थान है। उषा की नृत्य-संगीत के प्रति अभिरुचि तो थी ही, पर उसे सिर्फ मंच पर प्रस्तुत करने के अलावा, वह उसे एक अलग आयाम देना चाहती थीं। सो उन्होंने बतौर आर्ट कंसल्टेंट काम करना शुरू किया। इस दौरान उन्होंने स्वर्ण सांख्य, राग ताल, नृत्य धारा जैसे प्रतिष्ठित समारोहों का आयोजन किया। फिलहाल वह भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत और विविध सांस्कृतिक परंपरा के संरक्षण से संबंधित एक परियोजना से जुड़ी हुई हैं। एक बातचीत में उषा आरके यह चिंता जताई कि भारत में शास्त्रीय नृत्य परंपरा में इन दिनों ठहराव आ गए है।
पुराने लोग ही बचे हैं। नए लोगों में उस तरह का समर्पण और रियाज नहीं दे रहा है। लंबा अंतराल-सा नजर आता है। हालांकि, नए कलाकारों की कमी नहीं लेकिन, उन्हें प्रतिष्ठित मंचों से प्रस्तुति करने के लिए अवसर नहीं मिल रहे हैं। बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि जितना श्रम और ऊर्जा पुरानी पीढ़ी के कलाकारों ने कला में खपाया, उतना शायद आज के कलाकार नहीं कर पाते। समय के साथ विचारों में भी काफी बदलाव आया है। पहले के दौर में लोग पूर्णकालिक कलाकार होते थे, लेकिन आज के युवा कलाकार मेडिकल-इंजीनियरिंग-टेक्निकल पढ़ाई करने के साथ ही नृत्य कर रहे हैं। ये एक तरह से अंशकालिक कलाकार कहे जा सकते हैं। ऐसे में उनके पास नृत्य के रियाज के लिए समय भी कम ही मिल पाता है। वे ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं। इसके बावजूद भी मैंने कुछ युवा कलाकारों का चयन किया है। जिन्हें लगातार मंच पर प्रस्तुति देने का अवसर देना चाहती हूं ताकि, उन्हें लोग पहचाने। जैसे टीवी या अखबारों में कंपनी वाले लगातार विज्ञापन को दिखाकर अपने उत्पाद को खरीदने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं, उसी प्रकार मैं इन कलाकारों के समूह को साल में छह या आठ कार्यक्रमों में प्रस्तुत करूंगी तो लोग इन्हें जानेंगें और उनके काम को देखेंगे, पसंद करेंगें। इन कलाकरों में सृजनशीलता मैंने देखी है।
पिछले दिनों राजधानी दिल्ली के अलग-अलग सभागारों में दिव्य वाहन, दिव्य अस्त्र और दिव्य पुष्प की परिकल्पना पर आधारित नृत्य रचनाएं पेश की गर्इं। इसमें, भरतनाट्यम, कुचिपुडी, कथक, मोहिनीअट्टम, ओडिशी के युवा कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियां दीं। इससे कैसी पे्ररणा उन्हें मिलीं? यह पूछने पर उषा ने बताया कि उन्होंने ‘स्प्रीचुअल आॅफ सिग्निफिकेंस आॅफ फ्लावर’ नामक किताब पढ़ी थी। उस किताब में फूलों के वर्णन के अलावा, उनके महत्त्व, गुण, विशेषता के साथ विभिन्न देवी-देवताओं को कोई फूल क्यों पसंद है? इसका बहुत सुंदर वर्णन था। फिर महर्षि अरविंद की कुछ रचनाएं भी पढ़ीं। उसमें दिव्य अस्त्रों का जिक्र था। दरअसल, अस्त्र सिर्फ नकारात्मक या बुराइयों को खत्म करने के लिए नहीं बने। एक ओर शिव के धनुष पिनाक ने सीता-राम का विवाह संपन्न करवाया था, वहीं दूसरी ओर कामदेव का पुष्पास्त्र प्रेम बढ़ाने वाला ही होता था।
इस संदर्भ में वे बताती हैं कि इस त्रिआयामी पेशकश के दौरान दिव्य वाहन-गरुड़, गज, हंस व नंदी को शामिल किया गया। जबकि, दिव्यास्त्र- ब्रह्मास्त्र, सुदर्शन चक्र, पुष्पास्त्र, पिनाक और त्रिशूल को कलाकारों ने अपनी नृत्य रचनाओं में दर्शाया। हाल ही में, इंडिया हैबिटाट सेंटर में आयोजित कार्यक्रम में दिव्य पुष्प की प्रस्तुति हुई। इसमें अलग-अलग देवी-देवताओं को अलग-अलग फूल क्यों पसंद हैं? उसका क्या महत्त्व है? इस परिकल्पना को नृत्य में शामिल किया गया था। शिव को नागलिंग, लक्ष्मी को गुलाबी कमल, विष्णु को पारिजात, महादुर्गा को कदंब, महागणपति को जपा और राधा को शंखपुष्प पसंद हैं। महालक्ष्मी को कमल पसंद है। वह कमल के आसन पर विराजित रहती हैं। यह सभी जानते हैं। पर इसको नृत्य में दर्शाना कलाकारों के लिए चुनौतीपूर्ण है। इस संदर्भ को रोचक और सुंदर बनाने के लिए हम अलग-अलग विधाओं को जोड़ने की कोशिश करते हैं।
उषा आरके ने बताया कि उन्होंने जब पंद्रहवीं शताब्दी की एक पेंटिंग देखी तो उसमें महालक्ष्मी को हाथी अपने सूंड़ में पानी भर कर फुहारों से भिगो रहे हैं और देवी प्रसन्नचित अपने केश धो रही हैं। इसी परिकल्पना को उनकी नृत्यांगनाओं ने अपने नृत्य में मोहक रूप में चित्रित किया । बहरहाल, इन दिनों कई प्रतिष्ठित उत्सवों में कलाकार रिकार्डेड म्यूजिक पर नृत्य प्रस्तुत करने लगे हैं। इस बारे में उनका कहना था कि रिकॉर्डेड म्यूजिक पर शास्त्रीय नृत्य करना आसान तो है, पर ऐसे में वह बात नहीं होती, जिसकी अपेक्षा की जाती है। कई बार नृत्य करते हुए अचानक कलाकार के मन में कोई नए विचार या भाव आ जाते हंै, वह उसे विस्तार देना चाहता है तो यह लाइव म्यूजिक में ही संभव हो पाता है। अगर कलाकार खुद कोई रचनात्मक मोड़ लेना चाहता है तो वह शून्य हो जाता है। असल में विविध आयामों में विस्तार और नयापन ही भारतीय कलाओं का आधार है। उन्होंने कहा कि नए लोगों को समर्पण के साथ नृत्य करना चाहिए और इसके साथ अपने विषय सं संबंधित पुस्तकों को अधिक से अधिक पढ़ना चाहिए। १

