महानगरीय जीवन में बच्चों का पालन-पोषण खासा जटिल काम हो गया है। कई माता-पिता समझते हैं कि वे अपने बच्चों की पैसों से जरूरतें पूरी करके उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी ठीक से निभा रहे हैं। जब बच्चे की कोई बात उन्हें अच्छी नहीं लगती या बच्चा उनकी इच्छा के अनुरूप काम नहीं करता, तो वे उसे डांटने-फटकारने लगते हैं, उससे तल्खी से पेश आते हैं या मुंह फुला कर नाराजगी जाहिर करते हैं। इन सबका बच्चे पर बुरा असर पड़ता है। बड़े हो रहे बच्चों की देखभाल को लेकर पेश हैं रवि डे के सुझाव।

शहरी जिंदगी में बच्चों का पालन-पोषण बहुत जटिल काम है, खासकर जब माता-पिता दोनों कामकाजी हों और घर में बच्चों की देखभाल के लिए दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ जैसा कोई परिवार का सदस्य न रहता हो। संयुक्त परिवारों में बच्चों के पालन-पोषण में वैसी मुश्किलें नहीं आतीं, जैसी एकल परिवारों में आती हैं। कामकाजी दंपत्ति अक्सर बच्चों के पालन-पोषण के लिए घर में आया या घरेलू सहायकों की मदद लेते हैं और समझ लेते हैं कि इस तरह वे अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभा पा रहे हैं। पर हकीकत यह है कि जो भावनात्मक लगाव बच्चों को माता-पिता और घर के सदस्यों से मिल सकता है, जिस तरह घर के सदस्य उनके हर कदम पर निगरानी रख और उन्हें सलाह दे सकते हैं, वैसा कोई आया या घरेलू सहायक नहीं दे सकता। ऐसे में बच्चे नकचढ़े, जिद्दी और रूखे स्वभाव के हो जाते हैं।

खासकर जब वे किशोरावस्था में कदम रख रहे हों, तो उनकी समुचित देखभाल न हो पाने, उन्हें उचित समय न दिए जाने के कारण वे अपनी अलग दुनिया बसाना शुरू कर देते हैं। अपने दोस्तों, सहपाठियों, टीवी, मोबाइल फोन, इंटरनेट के साथ अधिक समय बिताना शुरू कर देते हैं। चूंकि माता-पिता पूरे दिन घर में नहीं होते और आया या नौकरों का अनुशासन वे मानते नहीं, इसलिए किशोरावस्था में आजादी कुछ ज्यादा ही महसूस करने लगते हैं।  किशोरावस्था में कदम रखने वाले बच्चों को माता-पिता से भावनात्मक लगाव और सहयोग की ज्यादा जरूरत होती है, क्योंकि इस अवस्था में उनमें बहुत तेजी से आंतरिक यानी हार्मोनल बदलाव होने शुरू हो जाते हैं। बच्चा अपने को बच्चा समझने के बजाय बड़ा और जिम्मेदार, अधिक समझदार समझने लगता है। अपने शरीर में आ रहे बदलावों को लेकर खासी उलझन में होता है। उसे अपने दोस्तों-सहपाठियों के साथ रहना, उनके सुझाव-सलाह मानना, उनकी नकल करना उन्हें पसंद आता है।

वे बड़ों की तरह व्यवहार करने का जोश भरते हैं, साहसिक और जोखिम वाले काम उन्हें आकर्षित करते हैं, वर्जनाओं, नियम-कायदों को तोड़ने में उन्हें बड़ा आनंद आता है। इसीलिए बहुत से बच्चे इस उम्र में सिगरेट-शराब जैसी लत के शिकार होने लगते हैं। चूंकि शहरों में आस-पड़ोस का भी कोई अनुशासन नहीं होता और इस तरह की चीजें सहज उपलब्ध होती हैं, इसलिए वे आसानी से नशे के चंगुल में फंस जाते हैं। स्कूल से निकल कर बाजार की चमक-दमक वाली दुनिया में विचरना उन्हें अच्छा लगता है। विपरीत लिंगी दोस्तों से निकटता उन्हें ज्यादा भाती है। कमरा बंद करके अकेले में रहना पसंद करते हैं। टीवी और इंटरनेट पर अपना समय ज्यादा बिताना शुरू कर देते हैं। बड़े हो रहे बच्चों की इन गतिविधियों पर समय रहते नजर न रखी जाए, उन्हें उचित सलाह और मार्गदर्शन न दिया जाए, तो उनके रास्ता भटकने का खतरा बना रहता है। इसलिए बड़े हो रहे बच्चों पर माता-पिता को खासतौर पर ध्यान देने की जरूरत होती है।

बच्चों के साथ समय बिताएं
महानगरों में कामकाजी लोगों का ज्यादातर समय दफ्तर आने-जाने और वहां का काम निपटाने में चला जाता है। इस तरह वे जब थके-मांदे घर लौटते हैं तो बच्चों को पूरा समय नहीं दे पाते। कई लोग घर पहुंच कर भी दफ्तर के कामों उलझे रहते हैं। या फिर टीवी देखते, खाना खाते और सो जाते हैं। सुबह बच्चे स्कूल चले जाते हैं। इस तरह उनसे हफ्ते में एक ही दिन बात करने, साथ समय बिताने का वक्त मिल पाता है। इतने भर से बच्चों के मन की बातें जानने, उनकी जरूरतें समझने, उसकी गतिविधियों पर ध्यान दे पाने की जरूरत पूरी नहीं हो पाती।  तमाम व्यस्तताओं के बावजूद बच्चों के लिए रोज घंटा-दो घंटा समय जरूर निकालें। बच्चे को स्कूल बस तक या स्कूल तक छोड़ने खुद जाएं। उससे स्कूल और दोस्तों के बारे में जानें, उसके मन की थाह लेने का प्रयास करें। उसके हर सवाल का बहुत संयत और तार्किक ढंग से जवाब दें। महीने में कम से कम एक दिन उसके साथ बाहर घूमने, सिनेमा देखने, खाना खाने का कार्यक्रम बनाएं और उसके दोस्तों की तरह उससे बातचीत करें। उसे यह अहसास कराएं कि आप हर वक्त उसके साथ हैं, उसके दोस्त हैं। यह जिम्मेदारी माता-पिता दोनों को समान रूप से निभानी चाहिए।

उनकी बातें सकारात्मक ढंग से सुनें
बच्चे जब बड़े हो रहे होते हैं, तो उनके मन में बहुत सारी चीजों को लेकर जिज्ञासाएं होती हैं। कई बार टीवी देखते वक्त या अखबार पढ़ते वक्त वे कुछ चीजों को लेकर असहज करने वाले सवाल भी पूछ बैठते हैं। उस वक्त आप उन्हें डांट-फटकार कर चुप कराने या फिर उनके सवाल को टालने का प्रयास न करें, बल्कि संयत तरीके से उनके सवालों का जवाब दें।
अगर बच्चे अपने दोस्तों से किसी बात को लेकर लड़-झगड़ आते हैं, किसी बात को लेकर उनका अपने किसी दोस्त के साथ मनमुटाव हो जाता है और वे कुछ दुखी या उत्तेजित महसूस करते हैं, तो उन्हें तार्किक ढंग से समझाएं, उनकी बातों को ठीक से सुनें, समझें और कोई ऐसा हल सुझाएं, ऐसे तर्क दें, अपने जीवन से जुड़ी कोई घटना या अनुभव सुना कर उन्हें शांत करें, जिससे उन्हें अहसास हो कि ऐसी स्थितियों से कैसे पार पाया जाना चाहिए।
ऊंची आवाज में बात न करें
बढ़ती उम्र में बच्चों का मन और मस्तिष्क अनेक दिशाओं में भटकता है। यह स्वाभाविक है। दरअसल, किशोरावस्था में कदम रख रहे बच्चों की कल्पनाशक्ति परिपक्व होनी शुरू हो जाती है, इसलिए जीवन के बहुत सारे क्षेत्रों के अनुभव वे खुद करके हासिल करना चाहते हैं। मगर बहुत सारे माता-पिता इसे उनका विचलन मान कर लगातार उन्हें डांटते-फटकारते और परंपरा से चले आ रहे सामाजिक नियम-कायदों के अनुरूप चलने की सीख देते रहते हैं। इस क्रम में अक्सर वे बच्चों से ऊंची आवाज में या तल्खी से बात करते हैं। इससे बच्चे के मन पर बुरा असर पड़ता है। वह अपने माता-पिता के प्रति विद्रोही हो जाता है और ऐसे दोस्तों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ता चला जाता है, जो उसकी बातों को सही समझते हैं। यह ठीक नहीं है। माता-पिता को खुद को संयत रख कर उनके व्यवहार को बदलने और उन्हें सही राह पर लाने का प्रयास करना चाहिए।

दूसरे बच्चों से तुलना न करें
बच्चों को अपने को दूसरे बच्चों से कमतर आंका जाना पसंद नहीं आता। इसलिए कभी अपने बच्चों को दूसरे बच्चों से तुलना करते हुए पढ़ाई करने, खेलने-कूदने, प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इससे उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता उनकी क्षमताओं पर शक करते हैं। उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए उनकी क्षमताओं का अहसास कराते रहें।
कभी मुंह फुला कर न बैठ जाएं
अगर कभी आपका बच्चा आपके मन के मुताबिक काम नहीं करता, तो उससे बात करना बंद न करें, उससे मुंह फुला कर न बैठ जाएं। कई माता-पिता इस तरह नाराजगी जाहिर करते हैं। इससे बच्चों के मन में कुंठा घर कर जाती है। जब भी बच्चा कोई गलती करे या आपके मुताबिक काम न करे तो उसे प्यार से समझाएं और बताएं कि उनके इस व्यवहार से उन्हें क्या-क्या नुकसान हो सकता है।
दोस्तों के सामने बुराई न करें
कई माता-पिता समझते हैं कि अगर वे अपने बच्चे की कमियां उसके दोस्तों के सामने बताएंगे, तो वे उनमें सुधार लाने का प्रयास करेंगे। मगर इसका असर उलटा होता है। बच्चा माता-पिता से नाराज होता है। कोई भी बच्चा अपने दोस्तों के सामने किसी भी रूप में कमजोर साबित नहीं होना चाहता। इसलिए उसके दोस्तों के सामने उसके गुणों, उसकी क्षमताओं का बखान करें, उसकी बुराई करने से बचें। इस तरह बच्चे का आप पर भरोसा बढ़ेगा, उसके मन में आपके प्रति इज्जत बढ़ेगी।