आज कल होली भी एक ‘महामहिम-विचार’ बन चला है! महामहिम खेलें तो होली वर्ना कैसी होली?
और सच कहूं कि इन दिनों की होली इसी तरह चिढ़ाती सी लगती है: मनाएं हम और फोटो खिंचें महामहिमों के, मानो इस जगत में अगर कोई होली खेलता है तो महामहिम लोग खेलते हैं, बाकी हम सब दर्शक हैं। उनके लिए ताली बजाने वाले हैं!
हमने अपनी होली का यह कैसा मलीदा बना दिया है? जनता खेले तो कहो: ये न खेले वो न खेले, ऐसे न खेले वैसे न खेले। ये हो जाएगा वो हो जाएगा। प्रदूषण हो जाएगा। पानी बेकार न करें, केमिकल के रंगों से न खेलें। हर्बल गुुलालों से खेलें, चंदन से खेलें रासायनिक रंग खतरनाक हैं, उनसे हरगिज न खेलें…
कोई नही कहता कि धुलेहड़ी है,धूल से खेलो, ! हमारे एनजीओज ने तो धूल को भी खल खतरनाक बना डाला है! हमें तो होली पर हर सरकारी आदेश होली का दुश्मन लगता है!
कुछ ‘बातमीज’ लोगों ने होली को भी अपने जैसा ‘बातमीज’ और ‘बोर’ बना डाला है! होली को भी तमीज सिखा दी है कि इतना जले इतने से ज्यादा न जले, ऐसे जले धुआं न करे, धुआं हानिकारक है। दिल्ली का आसमान कार्बन से भरा है, होली का धुआं और कार्बन फैलाएगा सो होली न जलाएं…तब क्या गैस चूल्हे को जला कर, होली जलाएं?
इस तरह के सरकारी और एनजीओ टाइप हमारी होली से ‘जलते’ हैं, ऐसे लोग क्या जानें कि होली क्या होती है?
मेरे खयाल में होली तभी संभव है जब उसे इन फालतू की तमीजों और ऐतराजों से आजाद कर दिया जाए। इसलिए मैं कहूंगा कि मेरी होली मांगे आजादी! मुझे मेरी होली वापस कर दीजिए महामहिम जी! उसे इस कदर साफ सुथरा और शिष्ट न बनाइए कि सेना की परेड सी लगने लगे!
होली का मतलब ही है कुछ बदतमीजी, कुछ अल्हड़ता, कुछ आजादी, कुछ मस्ती!
होली एक नशा है। होली एक भंग है। भंग की तरंग है। होली एक महारंग है। होली एक आग है। होली एक फाग है। होली एक राग है। होली गोली के विरोध में एक बयान है। होली ऐसी गाली है जिसमें हर पल एक ताली है। होली जानबूझी बेअदबी है। कुछ छेड़छाड़ है। और सांस्कृतिक ‘डिसरप्शन’ है। वह, बुर्जुआ कंट्रोल्ड कल्चर के सारे कायदे कानूनों और साजसज्जा और ब्रांडिंग-पैकिंग को छोड़ कर कुछ बेकायदा कुछ आवारा हो जाना है। शरीफों को एलीटों के अंहकार को तोड़ कर थोड़ा गंवार बनने का अवसर है। अपनी जड़ों से जुड़ने का अवसर है। जिदंगी की दिन-रात की कवायद को तोड़ कर एक दिन आजाद हो उठना है। मस्त हो उठना है। कुछ भीगना है। भिगोना है और अपने टुच्चे अहंकार और संचित घृणा का विगलन करना है!
बरस दर बरस घृणा की कीचड़ उछालने वाले होली नहीं खेल सकते। वे होली को सिर्फ बिगाड़ सकते हैं। घृणा से रंग मारते हैं तो वह भी कीचड़ बन जाता है क्योंकि होली कोरा रंग नहीं है। वह पे्रम का रंग रंग है, दोस्ती की दास्तान है!
होली निजी अदावतों, निजी दुश्मनियों को जला कर राख करने वाली है और पे्रम के भुने होलों और छोलों को एक दूसरे के साथ बांट कर खाने की संस्कृति है। वह बांट कर खाना,साझा करना है। वह ‘दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए’ वाली बात नहीं है। न उसे ‘हैप्पी होली’ कह देने, लिख देने, मैसेज कर देने से हैप्पी हो जाती है। उसे मनाना है तो अपने ‘आई-मी-माइसेल्फवाद’ को ताक पर रख कर अपने-अपने टुच्चे ईगोज को कूडेÞ में फेंक कर मुक्त भाव से एक दूसरे से गले मिलना है या कहें कि ‘
भेंट’ करना है! भेंट करना सिर्फ गले मिलना नहीं एक दूसरे को भींच कर गले मिलना है! वह फोटोआॅप नहीं है बल्कि दिलों के मिलने मिलाने का अहसास है!
आजकल की शुष्क और खुश्क होली में होली की वह पौराणिक कहानी कम ही याद आती है जिसमें एक राजा हिरण्यकशिपु होता है और उसका एक बेटा प्रह्लाद होता है।
परम अहंकारी हिरण्यकशिपु स्वयं को ईश्वर मानता है लेकिन उसका बेटा उसे ईश्वर नहीं मानता। वह अपने ‘प्राइवेट’ ईश्वर को मानता है और उसकी भक्ति में खोया रहता है। अहंकारी हिरण्य इसे अपना घोर अपमान समझता है और अपने बेटे को तरह-तरह के दंड देने लगता है। बेटा सारे अत्याचार सहता है लेकिन अपने ‘निजी’ ईश्वर के प्रति अपनी लगन को कम नहीं होने देता। इससे चिढ़ कर हिरण्यकशिपु अपनी बहन होलिका से कहता है कि वह प्यार करने के बहाने प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठा ले ताकि वह जल जाए! मर जाए! होलिका को वरदान है कि वह जिसे गोद में बिठा लेगी वह जल कर राख हो जाएगा लेकिन स्वयं न जलेगी। एक दिन होलिका बुआ अपने सगे भतीजे प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठा कर जलाने लगती है लेकिन ‘अपने ईश्वर’ की कृपा से प्रह्लाद को एक लपट तक नहीं लगती।
यह है होली का आइडिया!
होली जलाई जाती है और नए गेहूं की हरी बालियों और चने के ताजे हरे झाड़ को उसकी आग में भूना जाता है और इन्हीं ‘होलों’ से होली मिलन किया जाता है उनको लिया दिया जाता है, आपस में गले मिला जाता है। अहंकार की आग में जो जल गया उसी की आग में आप अन्न को जला कर मिलने का प्रतीक सिरजते हैं। नवान्न मिलन का सबसे बड़ा प्रतीक है, वही प्रहलाद है जो नहीं जो होलिका में गरम होकर और मधुर हो गया है। इन ताजे गरम दानों को खाने से, कहते हैं कि, खांसी जुकाम नहीं होता!
कभी हरे चनों और गेहूं की हरी बालियों को होली जला कर और उसमें भून कर खाया हो तो आप जान जाएंगे कि अहंकार के भस्म होने के बाद ही गेहूं और चने की भुनी हुई बालियों से निकलते दाने कैसे मीठी महक मारते और और गुनगुना स्वाद देते हैं? पैकेटों में मिलने वाले भुने दानों के मुकाबले कभी ताजा बालियों को होली में भून कर फिर उनमें से दाने निकाल कर खाकर देखें! मजा आ जाएगा!
हर होली नया स्वाद लेकर आती है लेकिन हमने उसे कुछ इस तरह का ड्रेसकोड पहना दिया कि डरावनी लगती है या इतना फॉरमल बना डाला है कि लगता है वह ‘अपनी’ नहीं है। उसे सिर्फमहामहिम ही खेल सकते है! होली वीआइपी का त्योहार नहीं है उसे खेलने के लिए ‘वीआई’ निकालना पड़ता है, सिर्फ ‘पी’ यानी ‘परसन’ होना होता है!
ब्रज भूमि से होली का संबंध कुछ स्पेशल है। पता नहीं वह क्या बात है कि ऐसे मस्ती के उत्सव ब्रजभूमि में ही क्यों हुए और अब तक किसी न किसी रूप-अपरूप में बने हुए हैं! ब्रज की बात चलती है तो बरसाने की ‘लठा होली’ की याद आ ही जाती है जिसमें औरतें हुरहारों को गाली देते हुए और रंग डालते हुए लाठियों से पीटती हैं। हुरहारों का काम लाठी के प्रहारों से अपनी जान बचाना होता है जो बचता रहता है वही उस सीजन की असली हुरहारा यानी ‘होली का खिलाड़ी’ कहलाता है!
बताइए ‘जलन’ छाप होली तक ब्रज के बरसाने में खेल बन गई, ‘स्पोर्ट्स’ बन गई!
सारे ‘जेंडरबायस’ इस दिन मात खाते हैं। बरसाने की हर स्त्री इस दिन इस कदर एंपावर्ड नजर आती है कि जितनी भी कथित ‘स्त्रीत्ववादिनी’ हैं, उनके आगे पानी भरती नजर आती हैं। स्त्रीत्ववाद अक्सर मुकदमेबाजी सिखाता है जबकि यह होली बरसाने की स्त्रियों को इस कदर एंपावर कर देती है कि वह मोटी से मोटी मोटी गाली देती हुई इलाके के सभी ललाआें, छैलाओं,रसियों, (रसिकों) और हुरहारों को अपने लट्ठ को मार मार कर दौड़ाती रहती हैं। इन रसियों के पास बचने के लिए सिर्फ मोटी पगड़ी और उस पर बंधे लोहे का एक तवा जैसा होता है और हाथ में एक ढाल होती है जिससे वे अपने अंगों को लाठी के प्रहार से बचाते रहते हैं। रंग चलता रहता है। रसिए गाए जाते रहते हैं लठा होली चलती रहती है। वह वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती है और एक डेढ़ महीने तक चलती रहती है। आजकल तो उसे देखने के लिए दुनिया आती है!
कैमरे उसको शूट करते रहते हैं।
मिथक की बात करना, पुराण की बात करना, कुछ ज्ञानियों के लिए पिछड़ापन है और कुछ पुराण पंथियों के लिए वह मानो उनकी ‘मोनोपोली’ है लेकिन होली की इस मस्ती को, औरतों के इस उनमुक्त बलीकरण को न कोई ज्ञानी समझता है न पुराणपंथी समझते हैं!
और समझें भी तो कैसे?
दोनों ही तो होली से डरते हैं। उसकी धूल और उसके रंगों से डरते हैं। इनके लिए तो होली भी एक राजनीति है। पॉलिटिकल कंपटीशन है। सत्ता की लड़ाई है। इनकी होली में न भंग है, न कोई रंग है न हाथ में चंग है न मन में तरंग है न उमंग है! है तो सिर्फ एक दूसरे से घृणा की राजनीति की कीचड़ है जो अभी-अभी उत्तर प्रदेश में बरस चुकी है!
यूपी की होली और आश्चर्य कि उसकी किसी को याद तक न आई! न किसी ने एक रसिया गाया न एक निर्मल मजाक किया। सब एक दूसरे को नीचा दिखाते रहे। एक दूसरे की खिल्ली उड़ाते रहे। होली से कुछ दिन पहले तक याद आया तो सिर्फ इतना याद आया कि किस तरह लोगों को बांटना है, किस तरह से परस्पर द्वेष की होली दहकानी है! रंग की होली की जगह, प्रेम की होली की जगह ,दिलों के मिलन की होली की जगह, घृणा की होली ही ज्यादा खेली गई है!
चाहे सेक्युलर हों चाहे भारतीय संस्कृति के कथित दावेदार, दोनों के लिए ही होली एक राजनीतिक बंटवारा भर है, एक कैल्कुलेटेड घृणा भर है। उसमें न राग है न फाग है। है तो सिर्फ ‘आग’ है!
होली बची ही कहां है? महामहिम उसे फार्मल और बातमीज बनाने के आदी हैं, बाकी गेहूं और चने को भूनने की जगह अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के आदी हैं।
अपनी होली न ऐसी है,न हो सकती है। अपनी होली तो अमीर खुसरो के ‘प्रेमरंग’ का ऐसा समारोह है जो गाता है:
आज रंग है प्रेमा रंग है री
मेरे महबूब के अंग संग है री!
जब वो खुसरो के सूफियाने रंग से निकलती है तो पद्माकर का यह छंद बन जाती है:
‘फाग की भीर अभीरन में गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी!
भाई करी मन की पद्माकर उपर नाय अबीर की झोरी!
छीन पितंबर कम्मर तैं सुबिदा दई मींड कपोलनि रोरी !
नैन नचाय कह्यो मुस्काय लला फिर अइयो खेलन होरी!’
होली के ‘फाग’ में, होली खेलने के इच्छुक एक छैला को एक गोपी अपने घर के अंदर ले आती है और छैला से जमके मनमानी करती है। वह उसके ऊपर अबीर की बोरी ही उलट देती है उसके कपोलों में रोली मींड़ती है (मींडने) का मतलब- कसके लगाना। फिर वह गोरी छैलाजी के पीतांबर को कमर से निकाल देती है; (यानी नंगा कर देती है)और फिर नैन नचा कर और मुस्कुरा कर कहती है छैला जी! अगली बार फिर आना होली खेलने!
क्या ये भाई साब, अगली बार होली खेलने की हिम्मत कर सके होंगे? ऐसी है पद्माकर के छंद में बंद ‘एंपावर्ड गोरी’ जिससे होली खेलना हर किसी के बूते की बात नहीं!
फिर होली गाने आते हैं कवि नजीर अकबराबादी! नजीर साहब ने एक के बाद रिकार्डतोड़ तेरह होलियां लिखी हैं और एक से एक होली लिखी है। कहीं उसमें कन्हैया का बांकपन है तो कहीं आगरे की होली है, कहीं फाग की मस्ती है, कहीं होली की बहारें हैं नजीर कहते हैं:
‘जब सावन रंग बरसते हों
तो देख बहारें होली की!’
ज ब तक रेडियो था तब तक होली के दिनों में एक से एक होली गीत आया करते थे!‘मदर इंडिया’ का होली गीत कि ‘होली आई रे कन्हाई रंग छलके सुनादे जरा बांसुरी…’ और ‘नवरंग’ का होली की छेड़छाड़ वाला गीत होली को अब भी ताजा कर देता है:
‘अरे जारे हट नट खट, न छेड़ मेरा घूंघट, पलट के दूंगी आज तुझे गाली रे मोहे समझो न तुम भोली भाली रे’ जवाब में नायक कहता है: ‘आया होली का त्योहार उड़े रंग की बौछार तू है नार नखरेदार मतवाली रे आज मीठी लगै है तेरी गाली रे!’
छेड़छाड़ और गाली ऐसी जो मीठी लगे! अगर कड़वी हुई तो क्या होली?
लेकिन आज क्या कोई ऐसा गा सकता है। गाएगा तो अंदर हो जाएगा! हम सब ने मिलकर होली की ऐसा ‘इंतजाम’ किया कि कोई दुश्मन क्या करेगा? हम सब होली के दुश्मन बन चले हैं! उसे ‘गंदगी’ का पर्याय मान लिया है जबकि वह मन की गंदगी को निकाल कर मन को साफ करने का त्योहार है!
अपनी होली अंग्रेजों के दिए इस जनतंत्र से पहले का जनतंत्र है। इस दिन सब बराबर होते है इसीलिए यह महामहिमों का नहीं सर्वसाधरण का त्योहार है। उसके रंग सबको ‘बराबर’ करते हैं।
होली एक मूड है, एक नशा है, एक मनोदशा है जिसमें सहनशीलता है, मस्ती है और जो मन की क्षुद्रताओं को नष्ट करती है, इसीलिए होली महामहिमों की होली की तरह न ‘फॉरमल’ हो सकती है, न ‘अनुशासित’ होसकती है, न ‘नियंत्रित’ हो सकती है! वह आम आदमी के मन की उन्मुक्तावस्था है! इसीलिए कहा जाता है ‘बुरा न मानो होली है! ’
जो उसका बुरा मानता हो, जो उससे बच के जीता हो, जो रंग लगने से डरता हो और जिस तिस को शाप देता रहता हो वह ‘प्रह्लादभाव’ का नहीं, ‘होलिकाभाव’ का है। होलिका भाव जल सकता है जला सकता है, न वह किसी को रंग सकता है न अपने को रंगा सकता है! होली एक फाग का राग है, आग का राग नहीं है!
इसीलिए हे महामहिमों! हे मीडियाओं! हे बुर्जुआजी! हे सोशलाइटों! हे सेलीब्रिटीज! अपनी होली को इतना फॉरमल न बनाओ कि सिर्फ ‘फोटोआप’ होके रह जाए। उसे मनाना ही तो कुछ फॉग का राग गाओ गवाओ, रंग डालो डलवाओ और कुछ आवारा और मस्त हो जाओ।
एक पल भी मस्त हुए तो हर समय बदलाखोरी वाला मिजाज पिघल जाएगा और आप हलके हो जाओेगे। न किसी डॉक्टर के पास जाना होगा न इलाज कराना होगा! सिर्फ होली की ‘गोली’ खानी है एक बार खाके तो देखो, फिर देखो कि आपका ब्लड पे्रशर कम हो गया है! १
