लंबी कशमकश के बाद 20 दिसंबर को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दसवीं की बोर्ड परीक्षा साल 2018 से फिर से शुरू करने का फैसला किया है। आठवीं तक फेल न करने की नीति को भी बदलने का प्रस्ताव है। इन निर्णयों पर अब केंद्र सरकार की मुहर लगनी है। इसलिए शिक्षा अधिकार अधिनियम में भी बदलाव की जरूरत पड़ेगी। कई राज्य पहले से ही इसके पक्ष में हैं। संसद में संशोधन विधेयक पारित होने में कोई दिक्कत नहीं आने वाली है। सरकार एक और अहम फैसले के तहत त्रिभाषा फार्मूले को दसवीं तक अनिवार्य बनाने जा रही है। मौजूदा स्थिति में यह केवल आठवीं तक ही लागू था और वह भी आधे-अधूरे मन से। अब जर्मन, चीनी या अन्य विदेशी भाषाएं चौथा विकल्प होंगी। हिंदी-अंग्रेजी अब उत्तर से दक्षिण तक सभी के लिए सीखना अनिवार्य होगा। अच्छा हो कि उत्तर के राज्य दक्षिण की कोई भाषा पढ़ाएं त्रिभाषा फामूले को फेल करने की गलती दोबारा न करें। प्रधानाचार्यों के लिए भी परीक्षा अनिवार्य की गई है। हालांकि, सुब्रमण्यम समिति की कई सिफारिशों पर सरकार ने चुप्पी साध रखी है।
केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने फिलहाल केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित की जाने वाली दसवीं बोर्ड परीक्षा से ग्रेडिंग खत्म करने और फेल न करने की नीति को कक्षा पांच तक सीमित रखने के प्रस्ताव को विधि मंत्रालय को भेज दिया है। जाहिर है मंत्रालय के बाद इसे संसद में पेश किया जाएगा। माना जा रहा है कि शिक्षाधिकार अधिनियम में संशोधन में कोई खास मुश्किल नहीं आएगी। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि शिक्षा नीति के साथ तो लंबे समय से कई तरह के खेल हो रहे हैं। जो भी सरकार आती है, अपना प्रयोग शुरू करती है। ऐसे में सबसे नुकसान छात्रों का होता है। पिछली यूपीए सरकार ने भी कई प्रयोग किए थे और अब राजग सरकार भी अपने हिसाब से बदलाव कर रही है। 2016 समाप्त हो चुका है यानी नए वर्ष के आगाज के साथ ही वार्षिक परीक्षाओं का समय आने में देर नहीं लगती। लेकिन यह पूरा वर्ष इसी बहस में चला गया कि आठवीं कक्षा तक फेल न करने की नीति को उल्टा जाए या नहीं। ऐसा ही प्रश्न दसवीं की बोर्ड परीक्षाओं को कराने या न करने का है। मौजूदा केंद्र सरकार की ओर से पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में गठित समिति को भी शिक्षा के इन मुद्दों पर रिपोर्ट सौंपे छह महीने से अधिक का समय हो गया है। लेकिन, मामला लंबा खिंचता चला गया। इस बीच केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की जगह प्रकाश जावड़ेकर के आने से भी मामले को नए ढंग से रास्ते पर लाने में देरी हुई और कुछ अनिर्णय की पुरानी आदतों की वजह से भी मामला लटका रहा। बीच-बीच में खोजी लोग अपनी अटकलों की पतंगें जरूर उड़ाते रहे। लेकिन, बच्चे, अभिभावक, शिक्षक अनिर्णय की इन स्थितियों से ज्यादा परेशान दिखे।
नए साल में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ फैसला होकर रहेगा। केंद्र सरकार का कार्यकाल भी आधा बीत चुका है। आठवीं तक फेल न करने की नीति को तुरंत बदला जाए। ऐसी मांग- दिल्ली, बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल और हरियाणा समेत अठारह राज्य कर चुके हैं। दिल्ली सरकार ने तो विधेयक भी पास कर दिया है, जो केंद्र सरकार के पास लंबित है। सुब्रह्मण्यम समिति ने भी मई 2016 में यह सिफारिश की थी कि दर्जा चार तक कोई परीक्षा भले न हो, पांचवीं से आगे एक समुचित परीक्षा के बाद ही छात्र को अगली कक्षा में भेजा जाए। जनता की भी यही आवाज है। जनता यानी कि अभिभावक और शिक्षक दोनों की। मौजूदा नीति से दोनों ही बेहद खफा हैं अपने-अपने कारणों से। शिक्षकों का कहना है कि इस नीति के कारण उनका रहा सहा सम्मान भी खत्म हो गया है। विशेषकर सरकारी स्कूलों में तथाकथित उत्तर पुस्तिका में ऐसी ऐसी अभद्र भाषा भी शिक्षक के लिए लिख देते हैं। जैसे कि फेल करके देख!। बार-बार कहने के बावजूद छात्र गृहकार्य नहीं करते। इस अनुशासनहीनता से पढ़ाने वाले की रुचि और निष्ठा पर भी उल्टा असर हो रहा है। इन सरकारी स्कूलों में ज्यादातर बच्चे आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग के हैं। बिना बताए कई बार हफ्तों महीनों गायब हो जाते हैं।
इस बीच जो पाठयक्रम पढ़ा दिया जाता है, उसे अध्यापक कैसे पूरा कराएं? पहले फेल होने के डर से वे पढ़ाई करने की कोशिश भी करते थे, अब यह डर भी नहीं रहा। नतीजतन बदनामी स्कूल शिक्षक की ज्यादा होती है कि इन्होंने कुछ पढ़ाया नहीं। दिल्ली की एक शिक्षिका मीनू श्रीवास्तव ने बताया कि कभी ‘प्रथम’ की रिपोर्ट का ठीकरा हमारे ऊपर फोड़ा जाता है कभी अन्य राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों का। कभी इन सर्वेक्षण वालों, कागजी शिक्षाविदों- नौकरशाहों ने अध्यापकों के दर्द को भी समझा है? कई बार एक- एक कक्षा में सौ से अधिक बच्चों की हाजिरी लेते लेते गला तक सूख जाता है। कई स्कूलों में इतने बच्चे हैं कि बैठने की बेंच तक नहीं है। शौचालयों से बदबू आाती है। गर्मियों में खुली खिड़कियों से लू के झोंकों के बीच हमसे इंग्लैंड और फिनलैंड के शिक्षकों की तरह संवेदनशील और मानवीय बनने की उम्मीद की जाती है। एक और शिक्षिका का अनुभव तो और भी आंख खोलने वाला था। उन्होंने बताया कि जब एक लड़की को पढ़ने-लिखने में ध्यान न देने के बारे में डांट दिया तो उसने कलाई पर ब्लेड रखकर धमकी दे डाली। मामला प्राचार्य तक गया। उन्होंने भी यही कहा कि पढ़े या न पढ़े, आप कुछ मत कहो। अब ये बच्चे स्कूल तो आ गए, अगली कक्षा में भी चले जाएंगे लेकिन लिखना पढ़ना तो नहीं आया। अभिभावकों को भी कैसे पता चले कि क्या पढ़ा या नहीं क्योंकि फेल भी नहीं हुए। नवीं तक आते आते बहुत देर हो चुकी होती है। इसीलिए कुछ स्कूलों में अस्सी, नब्बे प्रतिशत तक बच्चे फेल हुए हैं। कुछ राज्यों में 10वीं, 12वीं में नकल करने की प्रवृत्ति के बढ़ने का कारण भी इससे जुड़ा है।
निश्चित रूप से शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 में जब फेल न करने का निर्णय लिया गया था तो उसमें सदिच्छाएं ज्यादा थीं। मुख्य कारण था कि बच्चों को स्कूल छोड़ने से कैसे रोका जाए? फेल होना भी एक अपराधबोध से भर देता है। इसीलिए भी इसे इतना ढीला लचीला रखा गया। शिक्षक से उम्मीद भी शायद ज्यादा रखी गई कि इस छूट के बावजूद शिक्षक का रचनात्मक व्यवहार बच्चे को पढ़ने के प्रति रुचि जगाएगा। दोषी अधिनियम ज्यादा हैं भी नहीं क्योंकि केवल वार्षिक परीक्षा के बजाय ‘सतत और समग्र मूल्यांकन’ को भी इसमें तरजीह दी गई थी। लेकिन इस बहुलवादी देश की समस्याएं इतनी आसान नहीं हैं। कई प्रश्न यहां बार-बार उठते रहे हैं? क्या शिक्षकों को सतत मूल्यांकन का कोई शिक्षण प्रशिक्षण दिया जाए? क्या कोई भी शिक्षक अपने पैंतालीस मिनट के समय में अस्सी-नब्बे बच्चों का ऐसा मूल्यांकन सक्षमता से कर सकता है? उनका क्या करें जो बच्चे लगातार वास्तविक कारणों से महीने, हफ्तों अनुपस्थित रहते हैं? निसंदेह स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या कम हुई है लेकिन जिसे वास्तविक समझ, ज्ञान कहा जाता है उस पैमाने पर तो हमारी शिक्षा व्यवस्था की खिल्ली दुनिया भर में उड़ रही है।
दुनिया के कई देशों के अनुभव के बाद फ्रांसीसी शिक्षिका मितुआपाल ने भारत के संदर्भ में कहा है कि पहले, तो पाठयक्रम ऐसे हैं कि उनकी उपयोगिता बच्चों के लिए रत्ती भर नहीं है। दूसरे, उसे भी मनमर्जी आए दिन बदलते रहते हैं। कभी कुछ कभी कुछ। मैंने फ्रांस, कनाडा कहीं ऐसा नहीं देखा। दुनिया के पैमाने को तोड़ और छोड़ भी दें तो पढ़ने लिखने की कोई तो कसौटी रखेंगे ही। जिन यूरोपीय, अमेरिकी ढांचे से इसे लिया गया है, वैसी सामाजिक व्यवस्था तो हो। कहां शिक्षक और बच्चों का एक और बीस से भी कम का अनुपात और कहां एक और पचास, साठ और कभी कभी सौ तक। उसमें भी सामाजिक विषमता, भाषाई अवरोध और दरिद्रता के इतने स्तर। इसीलिए फेल न करने की नीति को फेल न मानते हुए भी कुछ ढीला करने की तुरंत जरूरत है। सुब्रह्मण्यम समिति के कुछ सुझाव भी ऐसे ही व्यावहारिक हैं। जैसे जो बच्चे अपेक्षा से कम रहते हैं उन्हें लगातार तीन मौके पास होने के लिए दिए जाएं। उनकी पढ़ाई का विशेष इंतजाम भी हो, इससे न वे फेल होने के तनाव में रहेंगे और न पढ़ने-लिखने को नजरअंदाज ही करेंगे, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में हो रहा है, जिसे ज्यादातर राज्य तुरंत बदलना चाहते हैं।
दसवीं की बोर्ड की परीक्षा भी इन्हीं तर्कों के आधार पर शुरू करने की जरूरत है। बोर्ड की परीक्षा का मामला भी इस देश में नीति बनाने और उसके पालन के बीच बड़े अंतर का ज्यादा है। शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 में स्कूलों को दोनों विकल्प दिए गए थे लेकिन सभी ने आसान रास्ता चुना। जो छात्र बोर्ड की परीक्षा देना भी चाहते थे, स्कूलों अध्यापकों ने उन्हें भी हतोत्साहित किया। यहां तक बच्चों को स्कूल से हटाने की भी धमकी दी। कुछ तो वाजिब कारण भी थे कि किस पैमाने से उन्हें बराबर माना जाएगा। जिस देश की शिक्षा में केवल प्रतिशत ही महत्त्वपूर्ण हो, ज्ञान, समझ, नवोन्मेष, रचनात्मकता के लिए कोई जगह ही न हो, वहां स्कूल भी क्या करे। दसवीं बोर्ड की परीक्षा शुरू करने का कम से कम एक तो मजबूत कारण है ही। क्या फिर बारहवीं में बोर्ड नहीं देना पड़ेगा? और उसके बाद? तो कुछ मानसिक तैयारी दसवीं बोर्ड में भी होनी चाहिए। क्या दसवीं तक का भारत और उसके बाद का कोई अलग द्वीप है? आइआईटी की प्रवेश परीक्षा में तो पिछले वर्षों में रिकार्ड तोड़ उलटफेर के बाद बारहवीं के बोर्ड में अपने अपने राज्यों के शीर्ष बीस प्रतिशत में आने की शर्त भी सफल उम्मीदवारों पर लगा दी थी। यूपीए सरकार का मानना था कि फेल न होने की नीति कोचिंग के धंधे में कमी लाएगी। लेकिन यह धंधा तो और फैलता गया। उसी अनुपात में आत्महत्याएं भी बढ़ी हैं।
द रअसल, जब विदेश में पढ़े और कुछ ज्यादा ही अंग्रेजीदां इस गरीब देश की सत्ता पर सवार हो जाते हैं तो वे ऐसे ही निर्णय लेते हैं। क्या कोई समिति हमारे उच्च संस्थान आइआइटी आदि में गुणवत्ता, रचनात्मकता को पाठयक्रम, प्रवेश परीक्षा और वहां क्या पढ़ाया जा रहा है, जैसे पैमानों पर भी जांच कर कोई रिपोर्ट देगी? सुब्रह्मण्यम समिति की कुछ और अहम सिफारिशों पर भी ध्यान जाना चाहिए। इसमें अखिल भारतीय शिक्षा सेवा सबसे जरूरी है। पतन के जिस गड्ढे की तरफ भारतीय विश्वविद्यालय बढ़ रहे हैं उसका सबसे बड़ा कारण शिक्षकों की भर्ती में अनियमितताएं हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ढिलाई कहें या राजनीतिकरण, रोज रोज बदलती नेट परीक्षा और शोध के मानदंड, विश्वविद्यालयों को मान्यता देना आदि ऐसे कारण हैं जिसके लिए किसी विदेशी सरकार को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। शिक्षा का माध्यम और समान शिक्षा एक और अधूरा एजेंडा है।
यों तो समता की बात सभी सरकारें करती रही हैं, लेकिन 1966 में सरकार द्वारा गठित कोठारी आयोग की रिपोर्ट को कभी लागू नहीं किया गया। अपनी भाषाओं में शिक्षा देने की बात केंद्र सरकार ने उठाई है, लेकिन इस पर अमल कितना होगा, असल सवाल यही है। मध्य प्रदेश के एकाध इंजीनियरिंग कॉलेज में हिंदी माध्यम की शुरुआत की है। मेडिकल प्रवेश की नीट परीक्षा भी जल्दी सभी भाषाओं में कराने की योजना है।अगस्त 2015 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने समान शिक्षा के पक्ष में एक अभूतपूर्व फैसला सुनाया था। उत्तर प्रदेश में तो सरकार भी समाजवादी है लेकिन कहीं कोई जुंबिश नहीं है। शिक्षा का फुटबाल फिलहाल केंद्र के पाले में है। १

