भारत अपनी संस्कृति को लेकर विश्व में अपनी अलग पहचान रखता है, जिसमें परिवार संस्था की अहम भूमिका है। जहां विदेशों में मात्र चौदह और अठारह बरस के युवा अपने माता-पिता से अलग जीवन जीना शुरू कर देते हैं वहीं भारत में तीन-तीन पुश्तें एक छत के नीचे खुशहाल जीवन व्यतीत करती रही हैं। पर आज के संदर्भ में परिवार की यह संस्था पूरी तरह टूटने के कगार पर है, जो गंभीर चिंता का विषय है। परिवार के टूटने को लेकर दुनिया भर में अनेक समाज वैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं। पाश्चात्य जीवन शैली के प्रभावों के चलते परिवारों के टूटने के बहुत सारे लक्षण आज दुनिया भर में दिखाई देते हैं। भारतीय परिवारों के टूटने और एकाकी जीवन जीने वालों की बढ़ती संख्या के पीछे भी कुछ प्रमुख कारण अब सर्वविदित हैं।
बाजार का प्रभाव
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मगर बहुत सारे परिवर्तन मनुष्य ने खुद अपनी सुविधाओं को ध्यान में रख कर किए हैं, जिनमें से अनेक प्रकृति-विरुद्ध माने जाते हैं। इसी तर्ज पर हमारे रहन-सहन और जीवन शैली में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं। अब एशो-आराम की तमाम वस्तुएं बाजार में उपलब्ध हैं, जो धीरे-धीरे हमारी जरूरत बनती गई हैं। उनको पाने के लिए हर शख्स जद्दोजहद में लगा हुआ है। इसकी वजह से कहीं न कहीं परिवार, जो कभी हमारी सुदृढ़ता और समृद्धि का प्रतीक था, वही आज के संदर्भ में हमारी कमजोरी बन गया है। लोग आगे बढ़ने के लिए अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुरा रहे हैं। वे अब खून के रिश्तों तक को भुला देने, उनसे संबंध विच्छेद कर लेने से भी गुरेज नहीं करते। इस वजह से परिवार टूट रहे हैं। हम पर ‘मैं’ यानी निजता, अपना निजी सुख हावी हो रहा है। बाजार में अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व हो गया है, जो ज्यादा पैसा देकर मानसिक रूप से कमजोर बना रही है। बारह से पंद्रह घंटे तक काम करना पड़ता है, जिससे सोचने-समझने की क्षमता प्रभावित हो रही है। संवेदनाओं की जगह उतावलेपन ने ले ली है।
एकल परिवार
संयुक्त परिवारों में पहले बड़े बुजुर्गों का हस्तक्षेप हर क्षेत्र में होता था, वह चाहे पढ़ाई हो, नौकरी या व्यवसाय हो, पर अब ऐसा नहीं है। आज के प्रौढ़ माता-पिता जिनकी उम्र चालीस से पचास के बीच है, वे अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं देना चाहते हैं और दे भी रहे हैं। उनके युवा होते बच्चे पढ़-लिख तो रहे हैं, लेकिन उनमें जीवन मूल्यों का अभाव होता जा रहा है, क्योंकि उनके माता-पिता के पास पैसा तो है, पर समय नहीं है। एक कंपनी में मार्केटिंग प्रमुख प्रतीक शर्मा कहते हैं कि मेरे माता-पिता ने मुझे समय तो बहुत दिया, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए बाहर नहीं भेज पाए, जबकि बाहर जाकर पढ़ना मेरा सपना था। आज मैं अपने बच्चों को वैसी कोई कमी होते नहीं देखना चाहता, इसलिए मेहनत कर रहा हूं। हां, मां, पिताजी हमारे साथ नहीं रहते, क्योंकि घर पर तो कोई होता ही नहीं है, हम दोनों नौकरी में व्यस्त हैं और बच्चे पढ़ाई के लिए बाहर विदेश में हैं। वे आगे कहते हैं कि डर भी लगता है कि हमारे पास बुढ़ापे में कौन होगा? बच्चे तो बाहर से आने से रहे।
बढ़ती महत्त्वाकांक्षा
आज हर कोई बहुत ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हो गया है। आज घर, परिवार, रिश्ते-नाते सब बेमानी होते जा रहे हैं। मुझे अपना मुकाम हर कीमत पर हासिल करना है। यहां मत जाओ, यह मत करो, यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं रहेगा- इस तरह के जुमले आज के नौजवानों को नागवार गुजरता है। संयुक्त परिवार में दादी, दादा, चाचा, ताऊ सबकी दखल होती है। सबके प्रति जिम्मेदारियां भी होती हैं, जो कहीं न कहीं आज के संदर्भ में हमारे परिवार में परेशानी का सबब बनती जा रही हैं। अपने अरमानों को हकीकत में बदलने के लिए लोग अलग रहना पसंद करते हैं।
कम उम्र में ही स्वछंदता
एक पुरानी कहावत है कि बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उनको सही आकार (संस्कार) बचपन से ही दिया जाता है। आजकल हॉस्टल और पेर्इंग गेस्ट का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। आजकल के मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और अनुशासन सिखाने लिए बचपन से ही उन्हें हॉस्टल में डाल देते हैं और युवा होने पर पेर्इंग गेस्ट बन कर रहने देते हैं, जो उनके जीवन का सबसे अहम पड़ाव होता है। बचपन और युवावस्था में वे आपके साथ रहेंगे ही नहीं, तो वे आपके सुख-दुख और जीवन मूल्यों को भला क्या समझेंगे। इसकी वजह से उन्हें बचपन से ही अकेले रहने की आदत हो जाएगी। वे अपने जीवन के फैसले खुद ही लेंगे, उन्हें आपकी आदत ही नहीं रहेगी। इसमें दोष उनका नहीं है। सोचने की बात है कि बच्चों का आपसे बड़ा शुभचिंतक और कौन हो सकता है। आप कितने भी व्यस्त हैं, अपने बच्चों की देखभाल तो आपको करना ही चाहिए। उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित राजघराने की एक बहू कहती हैं- हमने अपनी लड़की को बचपन से ही हॉस्टल में पढ़ाया है, ताकि वह एक अच्छी इंसान बने। भगवान के आशीर्वाद से वह आज अच्छा कमा रही है। मुंबई में है, लेकिन हमारे लिए उसके पास समय नहीं है। छुट्टियों में बाहर घूमने चली जाती है। यहां आकर वह बोर हो जाती है। उसकी आदतें हमसे बहुत अलग हैं। वह हमारे साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाती है।
सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे प्रौढ़
एकाकी जीवन का चलन विदेशों में हमेशा से रहा है, जिसके दुष्परिणाम वहां के लोगों में मानसिक तनाव, आवसाद, आत्महत्या आदि के रूप में बहुत आम हैं। पर जहां तक बात भारत की है, तो इसका सबसे ज्यादा प्रभाव हमारे प्रौढ़ वर्ग पर पड़ेगा। जो लोग चालीस से ऊपर की उम्र के हैं उनकी वृद्धावस्था इस एकाकी जीवन से खासा प्रभावित होगी। उन्होंने अपना आधे से ज्यादा जीवन बच्चों की परवरिश और मां-बाप की सेवा में बिता दिया। अपनी ख्वाहिशों का दमन करके अपनी नस्ल को सुदृढ़ किया, पर बुढ़ापे में इनका सहारा देने वाला कौन होगा, चिंतन करने की बात है।