रोहित कुमार

जीवन संतुलन से ही सधता है। जरा भी असंतुलन इसका ताल-छंद बिगाड़ देता है। दरअसल, पूरी सृष्टि ही संतुलन पर टिकी है। संतुलन बिगड़ जाए, तो सृष्टि का मिजाज बिगड़ जाता है। आजकल बेमौसम बारिश, ठंड के दिनों में गर्मी आदि इसी असंतुलन का नतीजा हैं। फिर जीवन भला कैसे किसी असंतुलन को झेल सकता है। ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’। ब्रह्मांड की संरचना का सूक्ष्म रूप ही तो यह पिंड, यह पृथ्वी, हमारा यह शरीर है। इसलिए अकारण नहीं कि ब्रह्मांड में कोई असंतुलन होता है तो हमारे शरीर पर भी उसका असर नजर आने लगता है।

ब्रह्मांड में असंतुलन होता है तो बहुत सारे जीवधारी लुप्त हो जाते हैं, तो बहुत सारे हानिकारक कीट, विषाणु उत्पन्न होने लगते हैं। पृथ्वी का चक्र असंतुलित हो जाता है, हमारा शरीर रुग्ण रहने लगता है। अब तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि ब्रह्मांडीय असंतुलन से हमारा मन, हमारा मिजाज भी प्रभावित होता है। उसमें नकारात्मक प्रतिक्रियाएं उभरनी शुरू हो जाती हैं।

इसीलिए बुद्ध ने जीवन में सम्यक व्यवहार को महत्त्वपूर्ण माना। सम्यक भोजन, सम्यक नींद, सम्यक आचरण। जीवन में अति को कभी उचित नहीं माना गया। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’। अति सदा वर्जित रहा है। ‘अति का भला न बोलना अति की भली न चूप/ अति का भला न बरसना अति की भली न धूप’। यानी हर काम संतुलन से ही बनता, संतुलन से ही सधता है। जैसे अति वर्जित है, वैसे ही न्यून भी अच्छा नहीं माना जाता। न्यून तो सृष्टि को पसंद ही नहीं। मंद गति, मंद मति भला किसे पसंद हैं। यानी सम्यक क्षमता ही सृष्टि को संतुलित करती है।

कल्पना कीजिए कि अगर पृथ्वी की गति अचानक बढ़ जाए या कम हो जाए, तो क्या होगा! हमारे रात-दिन का चक्र गड़बड़ हो जाएगा। हमारी ऋतुएं गड़बड़ा जाएंगी। इसलिए सृष्टि में हर जगह संतुलन है। अगर कभी कहीं किसी वजह से असंतुलन हो जाता है, तो कुदरत खुद उसे संतुलित करने का प्रयास करती है। मगर, एक मनुष्य ही है, जो न तो कुदरत के संतुलन की फिक्र करता है और न अपने। जो कुदरत के संतुलन की फिक्र नहीं करेगा, उसे भला अपने संतुलन की फिक्र होगी भी कैसे!

मनुष्य को सब कुछ चाहिए। उसे जो दिख जाए, जो पसंद आ जाए, वह उसे चाहिए ही। इसीलिए वह अतिशय धन कमाना चाहता है, अतिशय परिश्रम भी करता है। अतिशय शक्ति चाहिए उसे। अतिशय धन संपदा चाहिए। इसलिए ज्यादातर लोगों का जीवन असंतुलित है। न परिवार को देने के लिए उसके पास समय है और न अपने को देने के लिए। इसलिए उसके सारे सामाजिक रिश्ते स्वार्थ के रिश्ते हो गए हैं। जब जरूरत पड़ती है, रिश्तों से संपर्क बना लिया जाता है, थोड़ी देर को उन्हें पुनर्जीवित कर लिया जाता है। जैसे ही काम सधा, रिश्तों में दूरियां आने लगती हैं। घर के बड़े-बूढ़ों की फिक्र तो छोड़िए, अपने बच्चों तक की परवरिश के लिए वक्त नहीं है।

अतिशय धन कमाने वालों के बच्चे किराए के लोग पाल रहे हैं। खूब महंगे स्कूल उन्हें संस्कार देने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि पैसे चाहे जितने खर्च कर दो, स्कूल बच्चों को संस्कार देने में विफल ही साबित हो रहे हैं। इसलिए कि परिवार में ही जब उन्हें जरूरी संस्कार नहीं मिल पा रहे, तो स्कूल भला उन्हें पुष्ट कैसे करेंगे!

अतिशय महत्त्वाकांक्षाओं वाले माता-पिता के बच्चों की महत्त्वाकांक्षाएं भी अतिशय होती हैं। बहुत जल्दी बहुत कुछ पा लेने की महत्त्वाकांक्षा। मगर बाहर महत्त्वाकांक्षाओं की ऐसी आंधी चल रही है कि जो थोड़ा भी कमजोर हुआ, उसके पैर उखड़ ही जाते हैं। यह आंधी बहुतों को उड़ा ले जाती है। इस आंधी में उसके ही पैर जमे रह पाते हैं, जिसमें संतुलन साधने की ताकत होती है। यह गुरुत्वाकर्षण का नियम है की जरा भी असंतुलित हुआ कि आदमी धड़ाम गिरता है धरती पर।

संतुलन सही न हो, तो आदमी ठीक से खड़ा भी नहीं हो सकता, चलना और दौड़ना तो दूर। इसलिए महत्त्वाकांक्षाओं में संतुलन बहुत जरूरी होता है। जिनके भीतर यह संतुलन साधने की कूव्वत नहीं होती, वे बेशक थोड़े समय में खूब सारा धन कमा लें, मगर उसे गंवा भी बहुत जल्दी देते हैं। तमाम कहानियां, तमाम ऐसे दृष्टांत हमारे जीवन में, हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं, मगर कोई उनसे सबक सीखना जैसे चाहता ही नहीं।

जिसे देखो, भागे जा रहा है तेज रफ्तार में। फिर भी कोई अपनी रफ्तार से संतुष्ट नहीं। तेज से तेज रफ्तार चाहिए उसे। तेज से तेज रफ्तार वाली गाड़ियां चाहिए। इसीलिए सुपरसोनिक विमान बना लिए गए हैं। ध्वनि की रफ्तार से चलने वाली गाड़ियां बनाने की होड़ लगी है।

मगर मंजिल पर शायद कोई नहीं पहुंच पा रहा। जहां भी पहुंचता है, उससे आगे जाने की जगह नजर आने लगती है। इसलिए कि इस ब्रह्मांड का कोई आखिरी शिरा है ही नहीं, जहां पहुंच कर दम भरा जा सके कि पहुंच गए मंजिल पर। मंजिलें हमें खुद चुननी पड़ती हैं। मगर अब तो सफलता इससे आंकी जाने लगी है कि जहां आसमान कोई सीमा न रह जाए। आसमान के पार दूसरे, तीसरे आसमान को पार करने की चाहत बलवती देखी जाती है! इसी अतिशय चाहत ने सारे असंतुलन पैदा किए हैं। इसी असंतुलन ने तमाम बेईमानियां, तमाम धूर्तताएं पैदा की हैं।

कभी किसी बनिए को तराजू पर कुछ तोलते हुए देखो। तराजू की डंडी बिल्कुल सीधी हो, न जरा इधर को झुकी, न जरा उधर को झुकी, तभी सही तोल बनता है। संतुलन का सही मान वह तराजू की डंडी ही है। जीवन की डंडी भी उसी तराजू की तरह हो, न जरा इधर को झुकी हो, न जरा उधर को झुकी हो, तभी सुख और आनंद की सम्यक अनुभूति होती है।

आनंद भी सम्यक होता है, वरना वह प्लेजर ही हो सकता है, क्षणिक सुख ही हो सकता है। सम्यक सुख ही स्थायी होता है। इसे साधने के लिए ही तो तमाम योग साधनाएं, तमाम कर्मकांड, तमाम आध्यात्मिक व्याख्याएं प्रयास करती हैं। अपने को साध लो, तो सब सध जाता है। सबको साधने के प्रयास में कुछ हाथ नहीं आता।