बुढ़िया के इस व्यवहार से इस तरह गांववाले उससे दूरी बनाने लगे थे और धीरे-धीरे बुढ़िया का गांववालों से संपर्क कम होते-होते खत्म ही हो गया। अब उससे बोलने-बतियाने वाला भी कोई नहीं था। वह अपने रोजमर्रा के काम निपटाती और अपनी झोपड़ी में पड़ी रहती। गांववाले उसे देखते तो रहते, मगर बातचीत नहीं करते थे।
एक बार हुआ यों कि बुढ़िया कई दिन तक नहीं दिखी। गांववालों को शक हुआ कि बुढ़िया को कहीं कुछ हो तो नहीं गया। एक महिला बुढ़िया की झोपड़ी में झांक कर देखने गई। देखा कि बुढ़िया अपने बिस्तर पर पड़ी बुखार से तप रही है। वह उसके पास गई, उसका हालचाल पूछा। उसके सिर पर ठंडी पट्टी रखी। इस तरह उसकी तकलीफ कुछ कम हुई। उस महिला ने गांववालों को जाकर बताया कि बुढ़िया बीमार है, तो एक-एक कर लोग उसका हालचाल पूछने, उसकी सेवा करने के लिए आने लगे।
इस तरह गांववालों के साथ बुढ़िया का टूटा संपर्क फिर से जुड़ गया। बुढ़िया का बुखार जल्दी उतर गया। मगर बुढ़िया ने सोचा कि जैसे ही लोगों को पता चलेगा कि वह ठीक हो गई है, तो वे उसके पास आना बंद कर देंगे। फिर कोई उसका हालचाल पूछने नहीं आएगा, कोई उसकी सेवा नहीं करेगा। खाने-पीने को नहीं देगा। इस तरह बुढ़िया ने सोचा कि बीमार रहने में ही भलाई है। वह बिस्तर पर ही पड़ी रहने लगी। यानी वह स्वस्थ होकर भी बीमार रहने लगी।
हममें से कई लोग इसी तरह दूसरों की सहानुभूति पाने के लिए स्वस्थ रहते हुए भी, सुखी रहते हुए भी बीमार और दुखी होने का स्वांग किए रहते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि शरीर से तो वे स्वस्थ होते हैं, पर मन से बीमार हो जाते हैं।