उत्तर भारत के दूरदराज के गांवों में ‘आल्हा’ इस तरह से गाया जाता है जैसे कि वीर आल्हा वहीं की जमीन की पैदाइश रहे हों। उनकी पहचान का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि लोगों को उनके कहीं और होने का अहसास ही नहीं होता। आल्हा के गायन का प्रभाव यह रहा है कि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों ने मोंर्चे पर सैनिकों के उत्साहवर्धन के लिए इसके गायन की व्यवस्था की थी। मान्यता है कि आल्हा अमर हैं। बारहवीं सदी के आल्हा और ऊदल की लोकप्रियता समय और संदर्भ को भेद कर सार्वभौमिक बन चुकी है।

आल्हा-ऊदल की लोकप्रियता की सही जानकारी तो बुंदेलखंड के इलाकों में ही मिलती है। उनके बहादुरी की गाथाएं आल्हा छंद के तौर पर लोगों की जुबान पर बसी हुई हैं। आल्हा के बारे में प्राथमिक जानकारी लोक कवि जगनिक के महाकाव्य ‘आल्हाखंड’ से मिलती है। इसमें आल्हा की जो तस्वीर उभरती है, उससे वह एक लोकनायक महायोद्धा, कुशल प्रशासक और रणनीतिकार, साझी संस्कृति के प्रणेता आदि मालूम पड़ते हैं। आल्हा के जीवन में जहां एक तरफ वीरता है तो दूसरी तरफ करुणा है। एक तरफ सफलता है तो दूसरी ओर संताप भी है। आल्हा की गाथा में उत्तर भारत का आम आदमी सदियों से अपने सुख-दुख, उत्थान-पतन का लेखा-जोखा करता रहा है। महोबा में आज भी उनके नाम पर आल्हा उत्सवों का आयोजन किया जाता है।

बुंदेलखंड की वीरभूमि महोबा में बारहवीं सदी (1140-1185) में हुए आल्हा के पिता दस्यराज और काका बच्छराज की हत्या माडौ (वर्तमान मांडू -मालवा) के युवराज करिगा राय (करिया) ने छल पूर्वक कर दी थी। आल्हा के छोटे भाई ऊदल उस समय अपनी माता की कोख में थे। आल्हा और उनके चचेरे भाई मलखान और सुलखान का पालन- पोषण उसके पिता के अनन्य मित्र ईरान के घोड़ा व्यापारी सैयद ने किया। सैयद ने आल्हा को अल्लाह का आशीर्वाद समझकर उसका नाम आल्हा रखा और उसके दोनों चेहरे भाइयों को खान जैसी प्रतिष्ठित पदवी देकर मलखान और सुलखान रखा। आज भी बुंदेलखंड में हिंदू और मुसलमान दोनों के बीच ऐसे नाम आम हैं।

बारहवीं सदी में कन्नौज के दक्षिण और दिल्ली के दक्षिणपूर्व में चंदेलों का महोबा- काजिलंजर राज्य था। महोबा का संबंध जनपद जालौन के उरई और बैरागढ़ से रहा है। जहां उरई के राजा माहिल की बहन से महोबा नरेश परमाल की शादी हुई। वहीं बैरागढ़ में आल्हा के नेतृत्व में परमाल की सेनाओं का पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं से निर्णायक युद्ध हुआ। माड़ौ के राजा से अपने पिता और काका की मृत्यु का बदला लेने के लिए आल्हा ने गुरु सैयद के नेतृत्व में आक्रमण किया और कुशल रण चातुर्य और नेतृत्व से माड़ौ के राजा को बुरी तरह से पराजित किया।
आल्हा ने तत्कालीन सामंती व्यवस्था से हटकर, जिसमें सामान्यतौर पर क्षत्रियों को ही सेना में लिया जाता था, अन्य जाति-धर्म के लोगों को सेना का अंग बनाया। शायद यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण था,जिससे आल्हा जननायक बन कर उभरे। उनकी सेना में प्रमुख थे लला तमोली, धनुवा तेली, रूपन बारी, चंदर बढ़ई, हल्ला, देबा पेडित जैसे लोग सेना के मार्गदर्शक थे। उरई के नरेश माहिल के पुत्र परिहार वंश के क्षत्रिय अभई ऊदल के विश्वस्त सहयोगी थे। आल्हा के गुरु और उनके दस पुत्र तो उनकी सेना के आधार स्तंभ थे। इन सभी के सम्यक प्रयास से आल्हा ने मालवा नरेश को बुरी तरह पराजित किया। आल्हा की पंक्तियां इस प्रकार हैं :
मदन गड़रिया धन्ना गूलर आगे बढ़े वीर सुलखान
रूपन बारी खुनखुन तेली इनके आगे बचे न प्रान
लला तमोली धनुवां तेली रन में कबहुं न मानी हार
भगे सिपाही गढ माडौ के अपनी छोड़-छोड़ तरवार
माड़ौ के युद्ध में आल्हा के रणकौशल को देखकर महोबा नरेश परामर्दिदेव
( लोकप्रिय नाम परमाल)ने आल्हा को अपने राज्य का महामंत्री और उसके छोटे भाई ऊदल को अपनी सेना का सेनापति बनाया। आल्हा के ऊपर मुख्य रूप से तीन लोगों का प्रभाव पड़ा था। मां देवल, लाखा पातुर और सैयद का। आल्हा की पत्नी सुनवां ने देवर ऊदल को माता देवल के बारे में बताते हुए कहा था-माता देवल सी मिलिहैं न चाहे लेओ जनम हजार। लाखा पातुर को देवल ने ही वेश्यावृत्ति से मुक्त कराया था। इसी के चलते आल्हा ने लाखा को मौसी का दर्जा दिया।

आल्हा को युगों से चली आ रही वर्णवादी व्यवस्था का कोपभाजन बनना पड़ा। वैसे तो आल्हा के पिता दस्यराज और काका बच्छराज से उरई के राजा माहिल की दोनों बहनों देवल और तिलका से विवाह हुआ था, लेकिन माहिल स्वयं इस बात से आक्रोशित था कि महोबा के चंदेल राजा परमाल (जिससे उसकी एक और बहन मलन्हा की शादी हुई थी) ने जानबूझकर बनाफरों (वन में रहने वाले) से उनकी बहनों की शादी करा डाली। आल्हा खंड में कई जगह ‘ओछी जाति बनाफर क्यार, इनको पानी कोउ न पीवो’ करके संबोधित किया गया है। मामा होने के बावजूद माहिल ने षडयंत्र करके आल्हा और ऊदल को महोबा राज्य से निष्कासित करा दिया। आल्हा -ऊदल की बहादुरी को सुनकर कन्नौज नरेश जयचंद ने उन्हें अपने यहां शरण दे दी थी। पर जैसे ही पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं का महोबा पर हमला हुआ, महोबा के परमाल ने जगनिक को भेजकर आल्हा-ऊदल को महोबा बुलवाया।

महोबा की आन-बान-शान को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध आल्हा और ऊदल के नेतृत्व में बैरागढ़ (जनपद जालौन में स्थित) में पृथ्वीराज चैहान से 1185 ईस्वी में निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें ऊदल, सैयद और राजा परमाल के दूसरे पुत्र सूरज सहित सारी सेना मारी गई। पर इस निर्णायक युद्ध ने पृथ्वीराज की सेना को भी बहुत कमजोर कर दिया। किंवदंती है कि लड़ाई के अंतिम क्षणों में जिंदा बचे आल्हा का सामना पृथ्वीराज चैहान से हुआ। लेकिन तभी बाबा गोरखनाथ का वहां आ गए। उन्होंने युद्ध की निरर्थकता बताई और आल्हा को अपने साथ कजरी वन में लेकर चले गए।

लोकमान्यता है कि आल्हा की मृत्यु नहीं हुई। मध्ययुग के उस अंधकाल में जहां ईश्वर और परलोक की चिंता की जाती थी, वहीं पर आल्हा ने मनिया देव (मानव देवता) की पूजा का विधान किया।

विंध्याचल की पर्वत शृंखला से घिरा महोबा आज भी अपनी ऐतिहासिक-पुरातात्विक पहचान के साथ विद्यमान है। वहां का कीरत सागर, मदन सागर, महोबा से थोड़ी दूर विंध्य पर्वत पर स्थित भग्नावशेष, कीरत सागर के ऊपर सैयद का अखाड़ा जैसे अनेक ऐसे स्थल हैं जो बरबस आल्हा, ऊदल, बेंदुल (उदल का घोड़ा) सैयद, लाखापातुर, ब्रम्हा-बेला, राजा परमाल की याद दिलाते हैं।