लोककथाएं दिलचस्प तो होती ही हैं इनसे बड़ी सीख भी मिलती है। यही कारण है कि खासतौर पर बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास के लिए लोककथाओं की मदद ली जाती है। ऐसी ही एक लोककथा है, जिसमें यह सीख दी गई है कि प्रसन्नता कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप दौड़कर हासिल कर सकें बल्कि प्रसन्नता इस बात पर निर्भर है कि आपके अंदर संतोष का भाव कितना है।

खुश होने का कोई छोटा या आसान रास्ता नहीं है। इसके लिए सबसे जरूरी बात यह है कि आप खुद को लगातार सीखने के लिए कितना तत्पर रखते हैं, खुद को बदलने के लिए कितना तैयार रहते हैं। शीघ्रता और प्रसन्नता का कोई आपसी मेल नहीं है।

यह लोककथा कुछ यों है कि एक बार एक संत एक पहाड़ी टीले पर बैठे बहुत ही प्रसन्न भाव से सूर्यास्त देख रहे थे। तभी दिखने में एक धनाढ्य व्यक्ति उनके पास आया और बोला, ‘बाबाजी! मैं एक बड़ा व्यापारी हूं। मेरे पास सुख-सुविधा के सभी साधन हैं। फिर भी मैं खुश नहीं हूं। आप इतना अभावग्रस्त होते हुए भी इतना प्रसन्न कैसे हैं? कृपया मुझे इसका राज बताएं।’

संत ने एक कागज लिया और उस पर कुछ लिखकर उस व्यापारी को देते हुए कहा, ‘इसे घर जाकर ही खोलना। यही प्रसन्नता और सुख का राज है।’ व्यापारी का लिखा कागज लेकर व्यापारी घर पहुंचा और बड़ी उत्सुकता से उस कागज को खोला। उस पर लिखा था, ‘जहां शांति और संतोष होता है, वहां प्रसन्नता खुद ही चली आती है।’ यह पढ़ते ही व्यापारी को यह समझने में देर नहीं लगी कि बाबा उन्हें क्या समझाना चाहते थे।

संत की इस शिक्षा का व्यापारी पर असर भी हुआ। वह दिन-रात व्यापार और मुनाफे की चिंता से धीरे-धीरे विमुख होने लगा। ऐसा करते हुए उसके अंदर न सिर्फ संतोष का भाव आने लगा बल्कि वह काफी प्रसन्न भी रहने लगा। आगे चलकर तो वह बड़ा दानवीर भी बना। इस तरह वह खुद खुश रहने के साथ दूसरों को खुशियां बांटने वाला एक असाधरण इंसान बन गया।