भारत पूरे संसार में कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है। लेकिन किसान और किसानी दोनों की हालत इतनी गंभीर होती जा रही है कि आज हमारे देश में अन्नदाता कहा जाने वाला किसान हार कर अपना जीवन खत्म कर रहा है। एक समय था कि हमारा देश धनधान्य से परिपूर्ण था पर आज के स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि किसान भुखमरी की कगार पर आ गया है। साहूकारों और बैंक का कर्ज न लौटा पाने की स्थिति में वह आत्महत्या जैसा रास्ता अपना रहा है। भारत को कृषि प्रधान देश कहना, आज यह व्यंग करने जैसा होता जा रहा है।

हम आए दिन किसानों की आत्महत्या की घटना देख रहे हैं। किसान कभी सूखे की मार झेल रहा है तो कभी बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि या फिर बाढ़ जैसी विनाशकारी स्थिति की। कृषि के मामले में भारत का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है। लोग यहां की कृषि प्रणाली और शैली से निरंतर प्रभावित होते रहे हैं, पर आज यहां किसान मानसून की मार सह रहा है। भारत की कृषि मानसून पर ही निर्भर करती है। लेकिन मानसून का समय से न आना, कभी सूखा पड़ना तो कभी खेत में पकी फसल के समय बारिश का हो जाना किसान को बर्बाद कर देता है। जो कर्ज किसान बैंकों से ले रहा है उसे न चुका पाने की स्थिति में वह आत्महत्या का रास्ता आ रहा है।

छिटपुट आत्महत्याएं तो पहले भी होती थीं, लेकिन 1990 के बाद से इसमें तेजी आ गई। तब से अब तक पौने दो लाख के करीब किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आंकड़े बताते हैं कि शुरू में जिन किसानों ने आत्महत्याएं की, वे छोटी नहीं बड़ी जोत वाले थे। धीरे-धीरे मझोले और छोटे किसान भी आत्महत्या करने लगे। भारत में विकसित और संपन्न कहे जाने वाले महाराष्ट्र में अब तक पचास हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

यही नहीं, पिछले दस सालों में सत्तर लाख से अधिक किसान खेतीबारी छोड़ चुके हैं। एक तरफ हमारी सरकार रोज विकास के दावे करती नहीं थकती, लेकिन खेती छोड़ने के सवाल पर वह चुप्पी साध जाती है। युवा पीढ़ी तो खेती करने से तेजी से दूर भाग रही है। एक तरफ किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता पार्टी के महाराष्ट्र के ही एक सांसद ने आत्महत्या को फैशन करार दे दिया है। ऐसे निर्मम बयानों को समझने की जरूरत है।

आजादी के कितने ही साल बीत गए। जाने कितनी सरकारे आर्इं और गर्इं, पर कोई भी किसानों की हालत में सुधार नहीं कर पाया। जब हमारे देश में अंग्रेज आए तो यहां रजवाड़ों का शासन था। तब यहां पर खेती का विशेष ध्यान रखा जाता था पर अंग्रेजों के आने के बाद हालत बहुत खराब हो गई। अंग्रेजों ने किसानों को सुविधा तो कोई भी नहीं दी बल्कि उनसे लगान वसूलने के लिए उन पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार किया। गांधीजी ने हमारे देश की समृद्धि के किसानों की खुशहाली का सपना देखा था, लेकिन यह सपना अधूरा ही रह गया।

तमाम योजनाएं बनीं, लेकिन किसानों की दयनीत हालत में कोई सुधार न हुआ। किसानों की आत्महत्या तो अखबारों के लिए भी खबर नहीं रह गई। जनप्रतिनिधियों के लिए भी वह रोजमर्रा की चीज हो गई है। (नैना शर्मा)