हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि परीक्षा में ऊंचा अंक-प्रतिशत हासिल करने वाले छात्र योग्य माने जाते हैं। यह स्वाभाविक भी है। सीबीएसई जैसी प्रणाली में तो यह मुमकिन हुआ है कि छात्र पूरे साल भर की मेहनत के आधार पर अच्छे अंक ले आते हैं। लेकिन, अलग-अलग राज्यों के शिक्षा बोर्डों के तहत अधूरे संसाधनों के बल पर दी जाने वाली शिक्षा और परीक्षा में स्थिति काफी कुछ बदल जाती है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में तो लंबे समय से परीक्षा में नकल का बोलबाला है। उत्तर प्रदेश में इन दिनों चल रही माध्यमिक परीक्षा के पहले ही दिन कई जिलों में परीक्षा केंद्रों पर जम कर नकल हुई। कइयों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए तो कुछ परीक्षा केंद्रों को सामूहिक नकल कराने के आरोप में प्रतिबंधित भी कर दिया गया।
अलीगढ़ के अतरौली इलाके में छात्रों को परीक्षा केंद्रों की बजाय खेतों में उत्तर-पुस्तिकाओं को लिखते देखा गया। नई सरकार के गठन के बाद करीब दो लाख छात्रों ने परीक्षा ही छोड़ दी। इसके बावजूद जो परीक्षा दे रहे हैं, उनके बारे में ऐसी खबरें हैं कि तमाम केंद्रों पर ठेके पर नकल कराई जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्य भी नकल के लिए बदनाम हैं। कुछ वर्ष पूर्व बिहार के एक परीक्षा केंद्र की वह तस्वीर देश भर के अखबारों में प्रकाशित हुई थी, जिसमें छात्रों के दोस्त-अभिभावक परीक्षा केंद्र की इमारत की खिड़कियों से झूलते हुए छात्रों तक नकल की सामग्री बेखौफ पहुंचा रहे थे। इससे बिहार शिक्षा बोर्ड की भारी बदनामी हुई थी। इसका दाग धोने के लिए 2016 में नकलविहीन परीक्षा पर जोर दिया गया तो हाईस्कूल में आधे से ज्यादा परीक्षार्थी फेल हो गए।
जो टॉपर घोषित किए गए थे, उनकी भी असलियत सामने आई। नकल सिर्फ बोर्ड परीक्षा में ही नहीं होती, बल्कि कई नौकरी की भर्ती परीक्षाओं में भी होती है। 2016 में बिहार के मुजफ्फरपुर में सेना में भर्ती के उम्मीदवारों को कपड़े उतारकर मात्र जांघिया पहनकर परीक्षा देनी पड़ी थी। परीक्षा लेने वाले अधिकारियों का कहना था कि पहले हुई परीक्षा में कुछ उम्मीदवार नकल करते पकड़े गए थे, इसलिए नकल की सभी गुंजाइशें खत्म करने के लिए यह अजीबोगरीब उपाय अपनाया गया था। दक्षिण भारतीय राज्यों में भी नकल की चुनौती से निपटने के विविध उपाय किए जाते रहे हैं। तेलंगाना में लोक सेवा आयोग ने तय किया कि परीक्षार्थी परीक्षा केंद्र पर घड़ी, पर्स और जूते पहन कर नहीं आ सकता। महिला परीक्षार्थियों से कहा गया कि वे गहने और बारीक डिजाइन वाले कपड़े नहीं पहन सकतीं परीक्षा में।
व्यापम जैसे बड़े घोटाले भी सामने आए,जिसमें प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करवाने के लिए बड़े-बड़े गिरोह अनेक स्तर पर सक्रिय रहे। उत्तर प्रदेश में तो एक बार नकल रोकने के लिए कठोर दंड और सजा का भी प्रावधान किया गया था। लेकिन, उसे व्यावहारिक नहीं माना गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि समस्या वृक्ष की जड़ में है और इलाज पत्तों का किया जा रहा है? स्कूलों, कॉलेजों की आम परीक्षाओं में तो नकल कुटीर उद्योग बन चुका है, लेकिन प्रतियोगी परीक्षाओं में उसने आधुनिक तकनीक और अर्थतंत्र को अपना लिया है। शिक्षा के इस हद तक व्यवसायीकरण और अपराधीकरण होने से इसकी गरिमा किस हद तक कम हो गई है, इसका प्रतीकात्मक रूप हमें सिर्फ अंडरवियर पहने परीक्षार्थियों में दिखाई पड़ता है। सेना का तरीका आपत्तिजनक जरूर था, लेकिन यह स्थिति आखिर आई क्यों ? इसे भी सोचना चाहिए।
असल में, हमारी शिक्षा प्रणाली में परीक्षा पर ही सारा जोर रहता है जबकि नकल का होना ही इसके अविश्वसनीय होने का प्रमाण है। असल में सरकारें शिक्षा पर पैसा खर्च करने में कंजूसी बरतती रही हैं। इस अभाव के कारण स्कूलों में पर्याप्त संख्या में न योग्य शिक्षक हैं और न अन्य सहूलियतें। जब पढ़ाई ही ठीक से नहीं होगी तो परीक्षार्थी लिखेगा क्या। लेकिन, उत्तीर्ण होने के लिए अंक जरूरी हैं। इसलिए, जैसे-तैसे परीक्षा पास करने की जुगत बैठाई जाती है। इसका फायदा निजी शिक्षण संस्थान उठा रहे हैं। अच्छे व्यावसायिक संस्थान और ऊंची तालीम देने वाले आइआइटी जैसे संस्थान ऐसी परीक्षा प्रणाली के अंकों को कोई महत्त्व ही नहीं देते।
नकल के रोग के बारे में सोचते वक्त यह भी देखा जाना चाहिए कि आखिर आज हमारी शिक्षा में बच्चों को किस चीज के लिए प्रेरित किया जा रहा है? असल में वहां सिर्फ एक चीज काम कर रही है कि कैसे बच्चे हर परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास हों ताकि जब किसी नामी कॉलेज और नौकरी की ओर कदम बढ़ाएं तो उन्हें वहां हताश न होना पड़े। परीक्षा में ये नंबर रटने से आते हैं या ट्यूशन-कोचिंग से या पर्चा लीक होने से से या नकल से- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके अलावा, जिस तरह हर साल नामी इंजीनियरिंग, प्रबंधन संस्थानों से निकले कुछ छात्रों के लाखों-करोड़ों के शुरुआती पैकेज की चर्चा टीवी-अखबारों में होती है तो अभिभावक सोचने लगते हैं कि क्या उनका बच्चा भी ऐसा करिश्मा कर पाएगा? ऐसी सोच के साथ वे अभिभावक और छात्र दोनों नंबरों की होड़ में शामिल हो जाते हैं।
लेकिन, कई ऐसे राज्य जहां की माध्यमिक और प्राथमिक शिक्षा बद से बदतर स्थिति में है, वहां के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे इन सुहाने सपनों को साकार करने के लिए क्या करें? उन्हें तो अपने स्कूलों में ठीकठाक प्रयोगशाला तक नहीं मिलती, शिक्षकों के दर्शन ही नहीं होते। कई बार बच्चों को मीलों पैदल चलकर स्कूल जाना होता है तो गांव-कस्बों की लड़कियों की और मुसीबत होती है जब रास्ते में शोहदे उन्हें परेशान करते हैं। जब बात नौकरी की आती है तो सरकारी स्कूलों से पढ़कर आए छात्रों का सीधा मुकाबला शहरी कॉन्वेंट और सीबीएसई के छात्रों से होता है जो अंग्रेजी भाषा की जानकारी से लेकर तमाम विषयों में अपडेट रहते हैं। ऐसी दशा में दसवीं-बारहवीं की परीक्षा के अंक ही छात्रों की कुछ लाज ढंकते प्रतीत होते हैं।
यही वजह है कि इन पिछड़े राज्यों के शिक्षा बोर्डों की परीक्षाओं में नकल और पर्चा लीक जैसे हथकंडे बरस-दर-बरस आजमाए जाते रहे हैं। यह समझना होगा कि रोजगार के लिए अगर अच्छे अंकों वाले प्रमाणपत्र और डिग्रियों की जरूरत है तो पढ़ाई की व्यवस्था को भी ठीक करना होगा। चंद गिरफ्तारियां और सजाएं नकल का कलंक पूरी तरह धोने में सफल नहीं हो सकतीं, बल्कि इससे तो यही संदेश जाता है कि शिक्षा तंत्र और कुछ कर पाने में नाकाम है। इसलिए वह अपना और देश-समाज का ध्यान जड़ों की बजाय सिर्फ पत्तों पर लगाए रखना चाहता है।
नकल और अक्ल के इस संघर्ष में अमीर-गरीब के फर्क का भी भारी योगदान है। एक तरफ तो सीबीएसई के तहत पढ़ने वाले बच्चे होते हैं जिनके पास पढ़ाई और ट्यूशन को लेकर आर्थिक स्वावलंबन है।
दूसरी तरफ गांव-कस्बों में पढ़ने वाले गरीब, किसान, मेहनतकश मजदूरों के बच्चे होते हैं जिनके लिए किसी परीक्षा में पास हो जाना ही किसी नियामत से कम नहीं है। उन्हें स्कूलों में न ढंग के शिक्षक मिलते हैं, न कोई और सुविधाएं। साल भर स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। ऐसी स्थिति में नकल के सिवा कोई विकल्प बचता ही नहीं है। यह अजब होड़ है जो असल में पहले तो गांव-देहात के बच्चों में कुंठा भरती है और फिर संसाधनों के अभाव की पूर्ति नकल के जरिए हासिल अंकों से करने की नाकाम कोशिश करती है।