जब पूरा देश गणतंत्र दिवस मना रहा था तो भारत के छोटे से द्वीप में जन्मी देबोरा हेरल्ड भारतीय तिरंगे को गौरान्वित किया। कहा जा रहा है कि बीस वर्षीय हेरल्ड भारत की नई खेल सनसनी है। वह अंतरराष्ट्रीय साइकिलिंग संघ(यूसीआइ) ट्रैक साइक्लिंग वर्ल्ड चैंपियनशिप में क्वालीफाई करने वाली पहली भारतीय साइकिलिस्ट बन गई है। इस वर्ल्ड चैंपियनशिप में दुनिया के बीस साइकिलिस्ट ही भाग लेते हैं। उसमें भारत की यह नई राईडिंग गर्ल शामिल है।

देबोरा हेरल्ड पहली बार उस समय सुर्खियों में आर्इं, जब पिछले साल दिसंबर में दिल्ली में आयोजित ट्रैक एशिया कप में तीन पदक जीते और भारतीय टीम को तीसरा स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाई। इसी प्रतियोगिता में उसने इलीट स्प्रिट इवेंट में स्वर्ण पदक जीता, जिसमें उसने 13.61 सेकेंड का समय लेकर दक्षिण कोरिया की सू यंग को पराजित किया। इसके साथ ही वह यूसीआई में व्यक्तिगत रैंकिंग में चौथा स्थान हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला साइकिलिस्ट बन गई। ऐसा पहली बार हुआ कि साइकिलिस्ट जैसे खेल में किसी भारतीय खिलाड़ी ने सुखियां बटोरीं। यहीं से देबोरा का नाम लोगों ने जाना और उसने अगले ही महीने जनवरी में भारत को एक और गौरव दिलाया जब वह ट्रैक साइकिलिंग विश्व चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई करने वाली पहली भारतीय महिला बन गई।

इससे पहले अक्तूबर में जब देबोरा ताइवान कप ट्रैक अंतरराष्ट्रीय क्लासिक में भाग लेने गर्इं तो एक स्वर्ण, तीन रजत और एक कांस्य सहित पांच पदक जीत कर इतिहास रच दिया। भारत में सूदूर अंडमान निकोबार में रहने वाली इस लड़की की आंखों में सपने बचपन से बसते थे। उसके पापा भारतीय नौ सेना में अफसर थे। मात्र नौ साल की उम्र में उसने सुनामी का सामना किया। उसका सब कुछ लुट चुका था। सुनामी के समय उसने पेड़ से लटक कर जान बचाई। जब तक कोई मदद नहीं आई, वह पेड़ पर लटकी रही। वह किसी भी मुश्किल में दृढ़ता से डटी रहती है।

शुरू में उसने अंडमान निकोबार में ही साइकिलिंग सीखी। बाद में वह दिल्ली आ गई, जहां उसने इंदिरा गांधी स्टेडियम में स्थित अंतरराष्ट्रीय वैलोड्रम में उसने गहन प्रशिक्षण लिया। उसके प्रशिक्षकों ने उसकी कुशलता और योग्यता को देखते हुए अंदाजा लगा लिया था कि यह लड़की आगे चलकर बहुत अच्छा करेगी। उसने इस बात को साबित किया और भारत की ओर से विश्व चैंपियनशिप में भाग लेने वाली पहली महिला बनी। देबोरा ने खेलों में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को चिह्नित किया है और नई लड़कियों के लिए प्रेरणा बन गई है। वह भारत के एक ऐसे क्षेत्र से आई है, जहां खेलों से जुड़ना और उसमे नाम कमाना बहुत दूर की चीज है।

निकोबार की तरह राजस्थान के बीकानेर से भी अनेक साइकिलिस्ट राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी धाक जमाए हुए हैं। राजेंद्र विश्नोई जिसने भारत के लिए पदक जीता था, वह बीकानेर का है। आज इस शहर से आधा दर्जन से ज्यादा खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा रहे है। चंडीगढ में वैलोड्रम नहीं होने के बावजूद कई साइकिलिस्ट पदक जीत रहे हैं। जबलपुर जैसा शहर जहां एक साइकिल वैलोड्रम है वहां से भी अनेकसाइकिलिस्ट सफलता की कहानी लिख लिख रहे है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे शहर जहां सुविधाएं नहीं हैं, वहां से खिलाड़ी आ रहे हैं, जबकि सुविधाओं वाले शहर से नहीं। अगर ऐसे खिलाड़ियो की तलाश कर उन्हें दिल्ली जैसे शहरों में लाकर प्रशिक्षित किया जाए तो भारत को कई और देबोरा मिल सकती है।

देबोरा छोटे शहर की बड़ी खिलाड़ी हैं। ठीक उसी तरह से जैसे मैरी कॉम। मैरी कॉम ने भी अपने छोटे से कस्बे में एक सपना देखा था और उसने सपने को जमीन पर उतार दिया। मैरी कॉम से पहले दक्षिण में पीटी ऊषा ने सपना देखा था और उसने भी अपने अटल इरादों के साथ अपने उसे साकार किया। ऐसे ही इरादे देबोरा में दिखाई दे रहे हैं। उसने अपने इरादे विश्व चैंपियनशिप में क्वालीफाई करने के बाद जाहिर कर दिए, जब उसने कहा- मै खुश हूं कि मंैने क्वालीफाई कर लिया है लेकिन मैं अभी और मेहनत कर अपना खेल सुधारूंगी। मेरा लक्ष्य 2020 के ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करना है।’ खेलों के जानकार मानते हैं कि यह लड़की यह कर सकती है। फिलहाल उसने अपने कौशल से साइकिलिंग को सुर्खियों में ला दिया है। (मनीष कुमार जोशी)