हिंदी में बाल-साहित्य का आरंभ उन्नीसवी सदी के नवे दशक में भारतेंदु हरिश्चंद की पत्रिका ‘बाल-दर्पण’ से माना जाता है। हालांकि आरंभ के विषय में कुछेक मतभेद देखने-सुनने में आते रहे हैं, लेकिन ‘बाल-दर्पण’ से ही बाल-साहित्य के युग के आरंभ की स्वीकार्यता रही है । लिखित रूप से बाल-साहित्य का इतिहास एक सौ बीस-तीस वर्ष पुराना है। इससे इतर अगर मौखिक तौर पर बाल-साहित्य को देखें और विचार करें तो हिंदी समेत सभी भाषाओं के बाल-साहित्य का इतिहास काफी पुराना है। बच्चे अपनी दादी-नानी और परिवार के दूसरे बड़ों से राजा-रानी और परियों आदि की जो कहानियां सुनते हैं, वही मौखिक बाल-साहित्य है ।
लिहाजा इसमे संदेह का कोई कारण नहीं दिखता कि इस तरह के मौखिक बाल-साहित्य का आरंभ मानव में बोलचाल और भाषा की समझ आने के साथ ही हो गया होगा। क्योंकि, अगर गौर करें तो बच्चों को दादी-नानी आदि के द्वारा जो कहानियां सुनाई जाती हैं, वह यूनानी दार्शनिक ‘इसप’, जिनका जन्म 620 ईसा पूर्व माना जाता है, के ‘फेबल्स’ से काफी हद तक प्रभावित होती हैं। यानी मौखिक तौर पर बाल-साहित्य का अस्तित्व इसप के जन्म यानी ईसा पूर्व तक मौजूद है।
यह बातें तो मौखिक बाल-साहित्य और उसके इतिहास की हुईं। अब अगर हम लिखित बाल-साहित्य की बात करें तो सबसे पहले इससे जुड़े कुछ बुनियादी सवाल सामने आते हैं कि आखिर बाल-साहित्य है क्या ? इसकी परिभाषा क्या है ? इसकी रचना-प्रक्रिया और स्वरूप क्या और कैसा होना चाहिए? इन सवालों के संदर्भ में अगर बाल-साहित्य की परिभाषा पर विचार करें तो साफ होता है कि वह सब कुछ जो पांच से सोलह साल तक के बच्चों की मानसिक अवस्था के अनुकूल और शिक्षापरक हो और सरल, सहज, सुबोध और मधुर भाषा-शैली में रचित हो,- बाल-साहित्य है। यानी दो बातें एकदम साफ हो जाती है। पहली कि बाल-साहित्य का सीधा सरोकार बाल-हृदय से होता है। बाल-साहित्य में भी बच्चों के मन की तरह ही हर प्रकार से कोमलता और मधुरता होनी चाहिए।
बच्चों का मन जटिलताओं से अलग सरलताओं की तरफ अधिक आकर्षित होता है। ऐसे में बाल-साहित्य में भी सरलता और सहजता अनिवार्य हो जाती है। बाल साहित्य और वयस्क साहित्य में मूल अंतर सिर्फ कथ्य और उसके कथन की भाषा-शैली का ही होता है। यानी बाल-साहित्य में भी बाल-कहानी, बाल-कविता, बाल-गीत के अलावा नाटक, एकांकी, व्यंग्य, उपन्यास आदि वयस्क साहित्य के लिए उपयुक्त मानी जाने वाली सभी विधाओं पर भी कलम चलाई जा सकती है। न सिर्फ कलम चलाई जा सकती है बल्कि बच्चों के लिए बेहतरीन साहित्य रचा भी जा सकता है ।
ऐसा तो कतई नहीं है कि हिंदी में उत्तम बाल-साहित्य और उसके लेखकों-रचनाकारों की उपलब्धता न हो। कम संख्या में ही सही, पर हिंदी में श्रेष्ठ बाल-साहित्य की मौजूदगी हर दौर में रही है और आज भी है। इसके बावजूद बाल-साहित्य को लेकर हमारे हिंदी पट्टी के अधिकांश और बड़े साहित्यकार दूरी बना कर रखते हैं। सोच यह है कि बाल-साहित्य तो बच्चों का खिलौना है, मनभुलावन है। इसमें कैसा रचना-कौशल और कैसा साहित्य? कहने का अर्थ यह है कि हिंदी के तथाकथित स्थापित साहित्यकारों में बाल-साहित्य को बेहद हल्का समझने का भाव भरा पड़ा है, जिस कारण वे न तो बाल-साहित्य के क्षेत्र में कलम चलाते हैं और न ही इस बारे में कोई गंभीर चर्चा या विमर्श ही करते हैं।
मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, विष्णु प्रभाकर आदि ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने अपने लेखन की शुरुआत तो बाल-साहित्य से की, पर जब वे स्थापित हो गए तो बाल-साहित्य से किनारा कर लिया। आज हिंदी में उत्तम बाल-साहित्य की कमी दिखाई पड़ रही है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर बाल-साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों के मन में दूरी का भाव क्यों है? कुछ लोग सरलता और सहजता के मांग के कारण ही बाल-साहित्य को हल्का साहित्य मानते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसे साहित्य के लिए किसी रचना-कौशल, शब्द-शक्ति या अन्य किसी भी साहित्यिक योग्यता की कोई बहुत जरूरत नहीं होती।
जबकि यथार्थ यह है कि श्रेष्ठ बाल-साहित्य की रचना करना भी उतना ही कठिन होता है, जितना कि वयस्क साहित्य की। बल्कि कुछ मायनों जैसे कि शब्द-चयन, कथानक आदि में तो बाल-साहित्य की रचना वयस्क साहित्य की अपेक्षा कुछ अधिक ही कठिन होती है। बाल-साहित्य का एक प्रमुख उद्देश्य बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी होता है। इस लिहाज से बच्चों के लिए कुछ भी लिखते समय शब्दों की भूमिका अहम होती है। शब्द ऐसे होने चाहिए जिनको बच्चे न सिर्फ सहजता से समझ सकें बल्कि उनसे लगाव भी महसूस करें और पढ़ने के प्रति उनकी इच्छा और उत्साह बढ़े।
इस लिहाज से श्रेष्ठ बाल-साहित्य की रचना के समय रचनाकार को शब्द-चयन से लेकर कथ्य तक वयस्क साहित्य की अपेक्षा कुछ अधिक ही सजग रहना पड़ता है। आज के बच्चे ही कल युवा होंगे जिनके कंधों पर राष्ट्र की प्रगति का भार होगा। ऐसे में आवश्यक है कि बच्चों तक ऐसा साहित्य पहुंचे जिससे वर्तमान में उनकी नैतिक और बौद्धिक उन्नति तो हो ही, उनमें भविष्य के प्रति दूरदर्शिता भी आए। अगर हम अपने बच्चों को ऐसा साहित्य दे पाते हैं तो ही हम बच्चों के प्रति अपने दायित्व से कुछ न्याय कर पाएंगे। (पीयूष द्विवेदी)