महेंद्र पांडेय

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ( कैग) द्वारा संसद में हाल ही में प्रस्तुत रिपोर्ट में पर्यावरण स्वीकृति के तौर तरीकों पर अनेक सवाल उठाए गए हैं और व्यवस्था की खामियां उजागर की गई हैं। कहा गया है कि पर्यावरण स्वीकृति दिए जाने से पूर्व योजनाओं से पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभावों का आकलन नहीं किया जाता या अपर्याप्त आकलन प्रस्तुत किया जाता है। कैग की यह रिपोर्ट 568 परियोजनाओं की समीक्षा पर आधारित है। इनमें से 352 परियोजनाओं को 2008 से 2012 के दौरान पर्यावरण स्वीकृति दी गई। इनमें से मात्र चौदह प्रतिशत परियोजनाओं को साठ दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर स्वीकृति मिली, बाकी योजनाओं में इससे अधिक समय लगा। कुछ योजनाओं में तो एक साल से भी अधिक समय लगा।

कैग के अनुसार परियोजनाओं का पूरा ध्यान पर्यावरण स्वीकृति पर रहता है, पर एक बार स्वीकृति मिलने के बाद शर्तों का पालन नहीं किया जाता। सरकार का कोई निगरानी तंत्र भी इसके लिए नहीं है। कैग की रिपोर्ट में पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट (ईआईए) पर भी सवाल उठाए गए हैं। लगभग पच्चीस प्रतिशत मामलों में रिपोर्ट सही तैयार नहीं की गई और अनेक परियोजनाओं की रिपोर्ट प्राधिकृत सलाहकारों द्वारा तैयार नहीं कराई गई। कुछ रिपोर्टों में तो पर्यावरण से संबंधित आंकड़े और प्रदूषण के आंकड़े किसी मान्य प्रयोगशाला के नहीं थे। लगभग छप्पन प्रतिशत मामलों में पेड़ काटने की आवश्यकता थी पर किसी सक्षम अधिकारी की स्वीकृति प्रस्तुत नहीं की गई। एक ही जैसी परियोजनाओं पर अलग-अलग शर्तें थोंपी गर्इं। असल में पर्यावरण के मामले में केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, उनका रवैया ढुलमुल ही रहता है।

केंद्रीय सूचना आयोग और पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आदेशों के बाद भी पर्यावरण स्वीकृति से संबंधित सूचनाएं सार्वजनिक नहीं की जाती हैं। कैग की रिपोर्ट से इतना तो साफ है कि अधिकतर राज्यों और यहां तक कि पर्यावरण मंत्रालय में भी यही स्थिति है। केंद्रीय सूचना आयोग ने 18 जनवरी 2012 को अपने एक आदेश में कहा था कि पर्यावरण स्वीकृति के लिए प्रस्तुत पूर्ण आवेदन पत्र, वांछित अन्य सूचनाएं, ईआईए रिपोर्ट पर्यावरण स्वीकृति पत्र और इसके अनुपालन से संबंधित सूचनाएं वेबसाइट पर उपलब्ध कराई जाएं। इसके लिए 1 अप्रैल 2012 तक की समय सीमा भी तय की गई थी। इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों को 20 मार्च, 2012 को इस आदेश के अनुपालन का निर्देश दिया था। लेकिन इन आदेशों का कोई नतीजा नहीं निकला। पर्यावरण स्वीकृति का दिखावा लंबे समय से चल रहा है। इसके फायदे किसी को नहीं मालूम।

हालत ऐसी हो गई है कि पर्यावरण मंजूरी को ही प्रभावहीन बना दिया गया है। निर्माण परियोजनाओं के लिए तो इसकी अनिवार्यता को लगभग समाप्त कर दिया गया है। पर्यावरण और प्रदूषण नियंत्रण ऐसा क्षेत्र है, जहां कारण बताए बिना कोई भी नया कानून बन जाता है या पहले का स्थापित कानून हटा दिया जाता है। कैग ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर अभी कोई जवाब नहीं आया है। पर्यावरण स्वीकृति वास्तव में परियोजना के निर्माण और परिचालन के दौरान अनुपालन की जाने वाली शर्त होती है। इनके अनुपालन की रिपोर्ट हर छह महीने में प्रस्तुत करना जरूरी है। लेकिन, जैसा कि कैग की रिपोेर्ट में बताया गया कि पचासी फीसद परियोजनाओं में इसे प्रस्तुत ही नहीं किया जाता। देखा जाए तो सचमुच यह चिंता की बात है।

एक तरफ सरकारें पर्यावरण को बचाने का दावा करती हैं, जबकि व्यवहार में इसका उलटा हो रहा है। अगर समय रहते सचमुच इस स्थिति पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम ऐसी जगह खड़े होंगे, जहां कोई क्षतिपूर्ति संभव नहीं हो सकेगी। अनेक प्रभावशाली लोगों की परियोजनाओं को आसानी से स्वीकृति मिल जाती है। कई मामलों में तो स्वीकृति में भ्रष्टाचार के आरोप भी लगते रहे हैं। पर्यावरण का मामला ऐसा है, जिसमें शिकायतों पर ध्यान भी नहीं दिया जाता। यही वजह है कि पर्यावरण के अनेक मामलों में भारत, बांग्लादेश, मालद्वीप और मॉरीशस से भी पीछे हो जाते हैं।