भारत में सरोगेसी यानी किराए की कोख का व्यापार अरबों रुपए तक जा पहुंचा है। गुजरात में यह खूब फल-फूल रहा है। अस्पतालों में ऐसे बच्चों को जन्म देने के लिए औरतें बड़ी तादाद में उपलब्ध रहती हैं। इसे पैसा कमाने और नौ महीने खूब आराम से बिताने का एक आसान तरीका मान लिया गया है।
कोख भी किराए की, यह सोच कर अजीब लगता है। यह विश्वास करना भी कठिन होता है कि बच्चे को जन्म देने में मां के कोई व्यापारिक हित भी हो सकते हैं। साथ ही एक ऐसे बच्चे को जन्म देना, जिसे जन्मते ही, जन्म देने वाली मां से अलग कर दिया जाता है, फिर कभी न मिलने के लिए। उसमें बच्चे के स्वास्थ्य से जुड़ी उन बातों का पालन कैसे किया जाता होगा, जैसे जन्म के बाद बच्चे को मां के पीला गाढ़ा दूध के अलावा पानी भी नहीं देना चाहिए।
यही नहीं, आधुनिक शोध तक यह साबित कर चुके हैं कि मां के आचार, विचार, आहार का असर बच्चे पर पड़ता है। गर्भस्थ शिशु से मां जितना लगाव महसूस करती है, उसके आने से खुश होती है, उससे बातचीत करती है, उसे गाना सुनाती है, अच्छा संगीत सुनती है, बच्चा भावनात्मक रूप से उतना ही मजबूत होता है। मगर जिस बच्चे के बारे में पता है कि वह पराया है, उसे कुछ पैसों के बदले किसी मां के गर्भ में स्थान मिला है, तो मां उससे लगाव कैसे रख पाती होगी। वह तो हमेशा उसके पराएपन और चले जाने के बारे में सोचती होगी। सोचिए कि ऐसे में बच्चे पर मां के इस सोच-विचार का क्या असर पड़ता होगा!
कानून की नजर में इस किराए की मां की क्या हैसियत है। उसके अधिकार क्या हैं। वह बच्चे को जन्म देने वाली मां कहलाएगी कि नहीं, क्या इस पर सोच-विचार किया गया है? अगर नहीं, तो किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसे बच्चों की संख्या हर रोज बढ़ रही है। भारत में ऐसा पहला बच्चा 1994 में पैदा हुआ था। यानी इस कार्यव्यापार को बीस साल से ज्यादा हो चुके हैं। इन सालों में सरकार और प्रशासन क्या करते रहे। जो माताएं इस तरह बच्चों को जन्म दे रही हैं, क्या कभी उन पर निगरानी रखी गई। वे किस हाल में हैं। जिन दंपतियों को वे माता-पिता बनने का सुख प्रदान करती हैं, बच्चे के जन्म के बाद वे फिर कभी उनकी खैर-खबर नहीं लेते।
आखिर किराए की मां का क्या अर्थ है। जिन दंपति को संतान नहीं हो सकती या आयु की वजह से जिनके और बच्चे नहीं हो सकते या फिर गे या लेस्बियन जोड़े बच्चे प्राप्त करने के लिए इस पद्धति का लाभ उठाते हैं। भारत में बढ़ते आइवीएफ अस्पतालों के कारण भी ऐसे बच्चे पैदा करने को प्रोत्साहन मिला है। आखिर सरोगेसी है क्या? इसमें माता से प्राप्त ओवम और पिता से प्राप्त शुक्राणु को प्रयोगशाला में निषेचित करके किराए की कोख में विकास के लिए स्थापित कर दिया जाता है। इससे पहले किराए की कोख देने वाली माता के तमाम टेस्ट किए जाते हैं कि उसे कोई गंभीर रोग तो नहीं है। बच्चे को जन्म देने के लिए उसका स्वास्थ्य ठीक है। लेकिन बहुत से अस्पताल इस बात का ध्यान नहीं रखते।
ये गरीब औरतें अक्सर विदेशी लोगों के बच्चे पैदा करना चाहती हैं, क्योंकि वे पैसा भी अच्छा देते हैं और जाते-जाते मोटी टिप भी पकड़ाते हैं। बहुत से देशों जैसे जर्मनी, इटली, स्वीडन और सिंगापुर में सरोगेसी के जरिए बच्चे पैदा करना पूर्णत: प्रतिबंधित है। इंग्लैंड, डेनमार्क, न्यूजीलैंड, ग्रीस, ऑस्ट्रेलिया और नीदरलैंड्स में औरतें किसी रिश्तेदार के लिए, जिसके बच्चे नहीं हो सकते, ऐसे बच्चों को जन्म दे सकती हैं। वहां सरोगेसी से पैसे नहीं कमाए जा सकते।
जबकि हमारे यहां देखा गया है कि सरोगेसी को पैसा कमाने का एक आसान साधन मान लिया गया है। इस मामले में महिलाओं के घर वाले बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। अभी तक नियम है कि महिला अपने बच्चों समेत सिर्फ पांच बच्चे पैदा कर सकती है। मगर इस कानून का पालन हो रहा है कि नहीं, कौन देखता है। घर वालों और महिलाओं को पैसे चाहिए। महिला के स्वास्थ्य पर इसका क्या असर पड़ता है, किसी को चिंता नहीं। जब तक शिशु गर्भ में होता है तब तक महिला की खूब देखभाल की जाती है, बच्चे के पैदा होते ही उससे आंखें फेर ली जाती हैं। जबकि महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले संगठन कहते हैं कि जचगी के दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। बार-बार बच्चों को जन्म देने से उनमें रक्त की कमी हो जाती है। और इसके चलते हर साल लाखों महिलाएं मर जाती हैं।
इन्हीं सब बातों के कारण भारत सरकार सरोगेसी के लिए कठोर कानून बना रही है। इस तरह से बच्चे प्राप्त करने की इजाजत सिर्फ उन दंपतियों को दी जाएगी, जिनके बच्चे नहीं हैं। पिछले दिनों आमिर खान और शाहरुख खान ने भी सरोगेसी के जरिए आजाद राव खान और अबराम को प्राप्त किया था, जबकि इन दोनों के पहले से बच्चे हैं। आमिर के बारे में कहा गया था कि बहुत प्रयास के बावजूद उनकी पत्नी किरण राव मां नहीं बन पा रही थीं। जबकि आमिर की पहली पत्नी रीना दत्ता से दो बच्चे हैं। शाहरुख के गौरी खान से दो बच्चे हैं। बताया गया कि उन्हें एक और बच्चा चाहिए था। गौरी की उम्र ज्यादा थी, इसलिए सरोगेसी का सहारा लिया गया!
कारण जो भी हों, पैसे वाले लोग इस सुविधा का खूब लाभ उठाते हैं। विदेशों में रहने वाले लोग भी बड़ी संख्या में भारत आते हैं, क्योंकि एक तो यहां इस संबंध में कोई ठीक-ठाक कानून नहीं है। साथ ही इस तरह के बच्चों को जन्म देने के लिए जरूरतमंद औरतें बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अन्य देशों के मुकाबले आइवीएफ तकनीक सस्ती भी है। हालांकि आज तक यह पता नहीं कि भारत में कितने आइवीएफ अस्पताल हैं और कितनी माताएं ऐसी हैं, जिन्होंने इस तरह के बच्चों को जन्म दिया है। क्योंकि समाज में अब भी ऐसी माताओं की स्वीकृति नहीं है। यही नहीं, प्रशिक्षित डॉक्टरों की भी कमी है। इस व्यापार में बहुत से दलाल हैं, जो खूब फल-फूल रहे हैं।
बहुत से लोग सरकार से कह रहे हैं कि सरोगेसी पर पूरी तरह रोक न लगाई जाए। क्योंकि जब से यह कानून लागू होगा, उन औरतों का क्या होगा, जो ऐसे बच्चों को जन्म देने वाली हैं। और उन बच्चों का क्या होगा, जो जन्मने वाले हैं। इस साल की शुरुआत में थाईलैंड ने सरोगेसी पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था, तो ऐसी हजारों महिलाओं और बच्चों का भविष्य खतरे में पड़ गया था। यही नहीं, कई महिलाओं के ऐसे वक्तव्य भी छपे हैं कि अगर सरकार सरोगेसी को प्रतिबंधित कर देगी तो उनकी रोजी-रोटी का जरिया छिन जाएगा।
पिछले दिनों भारत में एक ऑस्ट्रेलियाई दंपति ने सरोगेसी के जरिए जुड़वां बच्चे प्राप्त किए थे। मगर वे उनमें से लड़की को अपने साथ ले गए, लड़के को यह कह कर छोड़ गए कि उनका लड़का तो पहले से है। अब इस बच्चे का क्या होगा। वह बिना कारण के माता-पिता होते हुए भी बिन मां-बाप का हो गया। ऐसी अमानवीयता पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

