आशा शर्मा
दे ह व्यापार ऐसा धंधा या पेशा है, जिसकी वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन हमारा समाज और सरकारें इस पर चर्चा करने को कहो तो हकलाने लगने लगती हैं। वैसे तो इस पेशे के व्यापारी और ग्राहक दोनों को ही नफरत की निगाहों से देखा जाता है, मगर तब भी यह दिन दूरी रात चौगुना फलता-फूलता रहता है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर रोज लगभग दो हजार लाख रुपए का देह व्यापार होता है। एक अध्ययन के अनुसार 1997 में भारत में यौनकर्मियों की संख्या लगभग बीस लाख थी जो अब बढ़कर पैंतीस-चालीस लाख हो चुकी है। जाहिर है कि यह संख्या महिला यौनकर्मियों की है। नब्बे प्रतिशत यौनकर्मी पंद्रह से पैंतीस साल केबीच की हैं। पिछले दिनों दिल्ली के जीबी रोड में सेक्स रैकेट का खुलासा हुआ तो लोग दंग रह गए। दिल्ली पुलिस ने जीबी रोड पर छह कोठे चलाने वाले आफाक हुसैन और उसकी पत्नी सायरा को गिरफ्तार किया। उसके पास चालीस कमरों वाले छह कोठे थे, जिनमें ढाई सौ लड़किया थीं।
जांच में पता चला कि आफाक की हर रोज की कमाई दस लाख रुपए से ऊपर थी। इसका पूरा गिरोह है, जिसमें अधिकतर लड़कियां पश्चिम बंगाल, झारखंड, नेपाल, बिहार से लाई गई थीं। कोठों में लड़कियों को कब्जे में रखने के लिए दबंग महिलाएं तैनात थीं, जिन्हें नायिकाएं कहा जाता है। आफाक का ड्राइवर रमेश पंडित लड़कियों की कमाई का हिसाब रखता था। आफाक के पास करोड़ों की संपत्ति मिली है। उसने पूछताछ में बताया कि वह पांच हजार से ज्यादा लड़कियों को इस पेशे में उतार चुका है।
सवाल है कि इस पेशे में उतरने वाली लड़कियां कौन हैं ? जाहिर है इनमें बड़ी संख्या उनकी है, जो गरीबी की मारी हैं और कोई रोजगार आदि न मिलने पर दलालों और ठेकेदारों द्वारा काम दिलाने के बहाने फुसला कर लाई जाती हैं और फिर इस पेशे में खपा दी जाती हैं। जल्दी ही उनमें से ज्यादातर तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त होकर काल के गाल में समा जाती हैं। उनकी खबर तक किसी को नहीं होती। कहने को तमाम कानून हैं, समाजसेवी संस्थाएं हैं, सरकारी अमले हैं, लेकिन दिल्ली जैसी जगह में और संसद से थोड़ी ही दूर पर जब इतना बड़ा गिरोह चल रहा हो तो देश के दूसरे हिस्सों में क्या स्थिति होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बड़े महानगरों में देह-व्यापार संगठित रूप ले चुका है। वहां तो कभी-कभार पुलिस धड़पकड़ करती है। मगर, विडंबना यह है कि हमारे समाज में कई समूह भी इस धंधे में फंसे हुए हैं। तमाम योजनाएं भी उन्हें पुनर्वासित नहीं कर पा रही हैं।
पिछले दिनों दिल्ली और देश के विभिन्न भागों में पकडेÞ गए सेक्स रैकेटों में राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों की युवतियां बड़ी तादाद में पाई गर्इं। क्या कारण है कि जंगल की संतान कही जाने वाली इन महिलाओं को इस धंधे में उतरना पड़ता है? विभिन्न शोधों और अध्ययनों में बार-बार यही बात सामने आती है कि पेट की आग बुझाने के लिए ही वे पेशे में चली जाती हैं या फंस जाती हैं। पकड़े जाने वाली लड़कियों के बयान हर बार उनकी मजबूरी और बदहाली के किस्सों से भरे होते हैं। यही सबसे बड़ा कारण भी है कि उन लड़कियों को इस पेशे में धकेले जाने के पीछे।
ज ब विकास की राह को आसान बनाने के लिए बड़ी संख्या में जंगलों और पहाड़ों का दोहन होने लगा और भोले-भाले आदिवासियों से उनके जंगल छिनने लगे तो उनके सामने रोजी-रोटी का बड़ा संकट खड़ा हो गया। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी की समस्या से निपटने के लिए जो सबसे सरल समाधान उन्हें नजर आया वह था- जिस्मफरोशी… क्योंकि इस अशिक्षित समुदाय के पास आधुनिक सभ्यता से तालमेल बैठा कर रोजगार हासिल करने का कोई हुनर नहीं था। देहव्यापार ऐसा धंधा है जिसे करने के लिए प्राथमिक स्तर पर किसी बड़ी पूंजी की आवश्यकता नहीं होती। दलालों ने इन्हें रोजगार और बेहतर जिंदगी का झांसा देकर बरगलाया और कभी घरेलू काम तो कभी मजदूरी के बहाने इन्हें देह व्यापार के नरक में झोंक दिया। घर-परिवार से अलग कर इन्हें दूरदराज ऐसी जगहों पर भेज दिया जाता है जहां संपर्क के साधन तक नहीं होते और ये बेबस अनेक तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएं भुगतने को मजबूर हो जाती हैं। देश ही नहीं बल्कि बाहर भी बड़ी संख्या में इन युवतियों की तस्करी या खरीद-फरोख्त होती है।
तमाम सामाजिक संगठन इन महिलाओं और युवतियों को इस दलदल से बाहर निकालने की मुहिम में जुटे हुए हैं और बड़ी संख्या में जिस्मफरोशी में लिप्त नाबालिग बच्चियों और महिलाओं को मुक्त भी कराया गया है मगर इनके पुनर्वास की कोई समुचित व्यवस्था न होने के कारण घूम-फिर कर बात फिर वहीं की वहीं आ जाती है। क्योंकि आम तौर पर धंधा करने वाली महिलाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है और इसी कारण इन्हें कोई सम्मानजनक रोजगार भी नहीं मिल पाता। अगर कोई इन्हें काम पर रखता भी है तो बदले में इनसे सेवा के साथ-साथ देह की उम्मीद भी करने लगता है और जाने-अनजाने ये फिर उसी दलदल में आ गिरती हैं।
यों तो भारत में जिस्मफरोशी अपराध है, लेकिन दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनने वाले संबंध को अपराध नहीं माना जाता। इस वजह से कानून के चंगुल से भी वे अक्सर छूट जाते हैं। वेश्यावृत्ति के कार्य व्यापार को संयत और नियंत्रित रखने के कानून हैं। लेकिन, कानून लागू कराने का जिम्मा पुलिस का होता है। मगर असलियत यह है कि पुलिस खुद ही इस तरह के धंधे में शामिल रहती है।
सुनने में भले ही यह अजीब लगे मगर राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में आज भी कई ऐसे समूह हैं, जहां इसे खानदानी पेशे के तौर पर अपनाया जाता है। कई समुदाय तो ऐसे हैं जो इस पेशे को घृणा की नजर से नहीं, बल्कि रिवाज की तरह मानते हैं। मजबूरी में अपनाया गया यह व्यवसाय कब इनकी आजीविका का मुख्य साधन बन गया, शायद इन्हें भी ठीक से नहीं मालूम होगा। बाड़मेर जिले का एक गांव तो आज भी इस पेशे के लिए बदनाम है। भरतपुर के पास एक गांव है, जहां किशोरावस्था में ही लड़कियों को इस पेशे में डाल दिया जाता है। अक्सर परिवार की बड़ी बेटी पर परिवार चलने की जिम्मेदारी होती है। इसी तरह गुजरात की राजधानी गांधीनगर से लगभग ढाई सौ किलोमीटर एक गांव में परिवार के पुरुष ही महिलाओं के लिए ग्राहक तलाशते देखे जा सकते हैं। यहां भी इसे घृणित पेशा नहीं समझा जाता। उदयपुर, बासवाड़ा, प्रतापगढ़, डूंगरपुर आदि क्षेत्रों में कुछ समूहों में ‘नाता प्रथा’ प्रचलित है, जिसके अनुसार स्त्री अपने पति को छोड़ कर किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बना सकती है। इसके अलावा, बिना विवाह किए भी युवक-युवतियां पति-पत्नी के रिश्ते में रहते हैं। इस समुदाय में एक से अधिक पुरुषों से संबंध बनाना हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। शायद यह भी एक कारण है कि यहां देह व्यापार एक परंपरा की आड़ लेकर रोजगार का जरिया बन गया है।
कारण चाहे जो भी हो, मगर आज का बड़ा सच यह भी है कि इस धंधे में फंसी लड़कियां और महिलाएं इस दलदल से बाहर निकलने और आत्मसम्मान से जीने की खातिर छटपटा रही हैं। सरकारों को चाहिए कि इनकी मदद करने के लिए सही दिशा में प्रयास करें। इनकी मदद करने के लिए आगे आने वालों को प्रोत्साहित करें। साथ ही इनके पुनर्वास की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए ताकि ये एक सम्मानजनक जीवन जी सकें और फिर उसी कीचड़ में लौटने को बाध्य न हों।