अठारहवें भारत रंग महोत्सव (भारंगम) की शुरुआत रतन थियम के ‘मैकबेथ’ से हुई। इसके प्रथम चरण में जिन नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है वे हैं- रामायण, एंटिगनी, जानकी परिणय, कबीर, डियर चिल्ड्रेन सिंसियरली, धुलिया ओझा, मेरा वो मतलब नहीं था, इला, डियर फादर आदि। इन सबमें दो नाटकों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पहला डियर चिल्ड्रेन सिंसियरली और दूसरा ‘एंटिगनी’। ये दोनों नाटक हर लिहाज से बेहतरीन थे। निर्देशन, संगीत-नृत्य, वेशभूषा, क्राफ्ट और डिजाइन हर मामले में। इसमें मानवीय संवेदनाओं को उकेरने और समकालीनता दोनों का जुड़ाव दिखा। भारत रंग महोत्सव के दूसरे और तीसरे चरण की प्रस्तुतियों में जिन नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है वे हैं-इला, न्यायप्रिय, डियर फादर, नोट्स ऑन चाय, स्टेज डायरेक्शंस आॅफ ओ नील वोल्यूम, द ट्रांसपैरेंट, मदर ऑफ अ ट्रेटर, बाकी इतिहास आदि।

‘इला’ निर्देशन से लेकर प्रस्तुति तक के लिहाज से एक शानदार नाटक था। ‘द पैचवर्क एंसांबल, मुंबई की प्रस्तुति ‘इला’ दरअसल कहानी है एक राजा की। राजा एक बार जादुई जंगल में पहुंच जाता है और जादू के जोर से उसका रूप बदल जाता है। चंद्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ राजा इला पुरुष से स्त्री और स्त्री से पुरुष तब्दील होता रहता है। यह सिलसिला हर महीने चलता रहता है। यह कहानी उसके अपनी लैंगिक पहचान के साथ सामंजस्य बिठाने और इस सबका क्या असर पड़ता है, इसके बारे में भी है। एक अज्ञात मिथक के आधार पर तैयार यह नाटक लिंग से जुड़े मिथों और आज हमारे जीवन में उसकी भूमिका पर रोशनी डालता है। बदलते लैंडस्केप्स (कभी प्राचीन युग तो कभी मुंबई की लोकल ट्रेन) और समय में लंबी छलांगों के साथ नाटक दर्शकों को ऐसी विचारोत्तेजक और मनोरंजक यात्रा पर ले जाता है, जहां उनका सामना इस सवाल से होता है कि स्त्री-पुरुष होना क्या है और जो भी अन्य पड़ाव इन दो ध्रुवों के बीच हैं, उनका अर्थ क्या है?

एक प्राचीन कहानी के बहाने यह नाटक आधुनिक जीवन और समाज के नजरिए को एक नए ढंग से मूल्यांकित करता है। हमारे सामने तमाम अनसुलझे प्रश्न छोड़ देता है, जैसे कि क्या हम सचमुच आधुनिक हो चुके हैं, क्या हम उन चीजों को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं जो आज भी हमारे समाज में टैबू या कलंक माना जाता है। यह नाटक इस राजा के माध्यम से हमारे आज के समाज के स्त्रीवादी से लेकर ट्रांसजेंडरों तक के रवैए को परिभाषित करता है।

नाटक ‘नोट्स ऑन चाय’ निर्देशक और इस नाटक में एकल अभिनय कर रही अदाकारा ज्योति डोगरा के अभिनय के लिए याद रखा जाएगा। हमारे रोजमर्रा की जिंदगी की शुरुआत जिस चाय से होती है, उसके बिना हम सुबह की कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी महत्ता को इस शिद्दत से पहली बार रेखांकित किया अभिनेत्री और निर्देशक ज्योति ने। बहुत अच्छा विषय चयन और उतनी ही प्रभावशाली और शानदार प्रस्तुति। ‘लैंड ह्वेयर लाइफ इज गुड, मदर आॅफ अ ट्रेटर और रस निष्पत्ति- ये तीनों डिप्लोमा प्रस्तुतियां थीं, लेकिन इतने उम्दा कि आप दांतों तले उंगली दबा लें यह देखकर और सोचकर कि बीस से तीस आयु के ये युवा इतना अच्छा कर सकते हैं?

युवा निर्देशक तेंजेनजुंग्बा कीचू का यह नाटक नगालैंड के बहाने उन अनेक पहचानों के बारे में बात करता है जो सिर्फ एक पहचान ‘भारतीय’ के नीचे छिपी रहती है। युवा निर्देशिका पन्नागा जोईस का नाटक ‘मदर ऑफ अ ट्रेटर’ कर्नाटक की लोकप्रिय नृत्य शैली ढोलू कुनिता शैली में बनाई गई है। इस कहानी के केंद्र में मातृत्व की अवधारणा है। युवा निर्देशक मार्टिन जीशिल का नाटक ‘रस निष्पत्ति’ नवरस की अवधारणा पर आधारित है, लेकिन उसका बिल्कुल समकालीन और आधुनिक उम्दा प्रदर्शन है, जिसमें निर्देशक ने दर्शकों के सौंदर्यबोध के साथ अपने को जोड़ने की कोशिश की है और उसकी यही कोशिश इस नाटक को सबसे अलग और सबसे खास बनाती है।

स्पेनिश नाटक ‘समव्येहर इन किखोते’ विशेष रूप से अपनी प्रकाश परिकल्पना के लिए याद रखा जाएगा। प्रकाश परिकल्पना के लिए टॉर्च की रोशनी का उम्दा इस्तेमाल इसमें किया गया था। पटना के थिएटर ग्रुप नटमंडप की प्रस्तुति ‘न्यायप्रिय’ को वरिष्ठ निर्देशक परवेज अख्तर के कुशल निर्देशन और उनके अभिनेताओं का शानदार अभिनय दिखा इसमें। इस नाटक के बहाने निर्देशक सार्त्र से लेकर हीगेल तक को मंच पर खड़ा कर देता है। अस्तित्ववाद से लेकर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्थापित और पुनर्व्याख्यायित करता है यह नाटक।

निर्देशक त्रिपुरारी शर्मा का नाटक शुरू हुआ मौलाना आजाद के ओजपूर्ण भाषण यानी अभिनेता सुरेश शर्मा की प्रभावशाली आवाज से। ‘आजाद मौलाना’ पूरे नाटक के दौरान ऐसा लग रहा था जैसे दर्शक 1940-1947 के बीच भारत में बैठे हैं। रामेश्वर प्रेम द्वारा लिखित और संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित नाटक ‘जल डमरू बाजे’ (जोकि निर्माण कला मंच पटना की प्रस्तुति थी) की विषय वस्तु और प्रस्तुतीकरण सराहनीय रहा। नाटक में आंचलिक और लोक संगीत बेहतर रहा। संजय उपाध्याय का नाटक अपने लोक के संगीत को आत्मसात किए आगे बढ़ता है। संजय उपाध्याय ने बिहार के लोक संगीत को देश-विदेश में प्रतिष्ठित किया है।

नाटक ‘स्त्राता-2’ ने भी ध्यान खींचा। यह नाटक नहीं, बल्कि नृत्य के जरिए दो चरणों में विभक्त निर्देशक मारिया दोनाता की ऐसी प्रस्तुति थी, जिसके पथ का पहला चरण अपनी उन कोशिकाओं का आह्वान करता है, जिनसे हमारी रचना होती है। प्रस्तुति के दूसरे हिस्से की बाहरी अंतर्क्रिया स्वाभाविक रूप से हमारी अलौकिक अभिलाषाओं को जगाती है। ये जमीन से उड़ान भरता और उस गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होने का प्रयास करता है जो हमें नीचे रोके रखता है। यह नाटक कोई प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक संवाद है, खेल है, नृत्य है, वास्तुकला है, मूर्तिकला है। वोल्फ-का के प्रकाश कौशल और मारिया दोनाता की देह के बीच नृत्य-स्पर्धा।

इस भारत रंग महोत्सव का सर्वाधिक उल्लेखनीय नाटक था, ‘रैग्ज आॅफ मेमोरी’। एना दोरा दोर्नो द्वारा निर्देशित और खुद एना और अभिनेता निकोला पियांजोला की स्तब्ध कर देने वाली प्रस्तुति अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनकारी कलाओं की परियोजना का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है। यह नाटक शारीरिक और वाचिक क्रियाओं, जीवंत संगीत और वीडियो प्रोजेक्शंस के साथ एक मौलिक और प्रयोगवादी संयोजन है। दृश्य को चावल, मिट्टी, पत्थरों, पानी और अग्नि से भरे प्रकाश के तीन वृत्तों में संयोजित किया गया।

एक कालातीत उद्यान जहां एक पुरुष और एक स्त्री मंच पर या प्रोजेक्शन के जरिए हर बार एक मौलिक और अनूठे रूप में रहस्यात्मक आनुष्ठानिक क्रियाओं और गीतों को प्रस्तुत करते हैं। प्रस्तुति जीवन चक्र का एक रूपक है जहां जन्म, करुणा और मृत्यु एक चक्र और अनुष्ठान की चिरंतनता में स्थिर किए गए आवर्ती मार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। (मंजरी श्रीवास्तव)