तुलसीदास ने राम के राज्यारोहण के बाद उनके द्वारा नागरिकों को संबोधन में उनसे यह कहलाया है: जो अनीति कछु भाखों भाई। तो मोहिं बरजहु भय बिसराई।।
दूसरे शब्दों में, ‘रामचरितमानस’ के साक्ष्य से यह कहा जा सकता है कि राम के राज्य में साधारण नागरिक को, अगर उसे लगे कि अनीति हो रही है, तो राम तक को टोकने-बरजने की सहज अनुमति थी। लेकिन हमारी रामभक्त और भारतीय परंपराप्रेमी नई सत्ता में अगर लेखकों-बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, फिल्मकारों, अकादमिकों की इतनी बड़ी संख्या को लगे कि अनीति हो रही है, तो उन्हें टोकने का अधिकार नहीं है: उलटे कहा जा रहा है कि ये सभी बौद्धिक असहिष्णुता कर रहे हैं!
थोड़ा और पहले जाएं तो हमारे कालजयी महाकाव्य ‘महाभारत’ में शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह राजधर्म का उपदेश देते हुए कहते हैं कि राजा को अपने राज में बसने वाले ज्ञानियों का सम्मान करना चाहिए; लोभी और मूर्खों को राज के काम में नहीं लगाना चाहिए। भीष्म ने यह भी जोड़ा कि राजा को, प्रत्येक प्रकार के भय से, प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। लगे हाथ यह भी याद कर लें कि उसी ‘महाभारत’ में एक यक्ष प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर कहते हैं कि मन का मैल धोना ही स्नान है, रक्षा करना ही सबसे बड़ा दान है। सत्ताधारी कभी-कभी हमारे महाकाव्यों में दिए गए विवेक को भी दुहरा लिया करें जो, संयोगवश, हमारे पूर्वज कवियों ने ही विन्यस्त किया है और जिनकी आज की स्थिति में प्रासंगिकता उनके कालजयी होने का एक और प्रमाण है।
मौजूं तो तुलसीदास लिखित यह अंश भी है:
कह तुलसिदास सुनु रामा। लूटहिं तस्कर तव धामा।।
चिंता यह मोंहि अपारा। अपजस नहिं होय तुम्हारा।।
हम कुछ लेखकों और सोचने-विचारने वाले लोगों ने मिल कर पिछले रविवार को बढ़ी असहिष्णुता, नफरत, हिंसा, हत्या, नासमझी, अभिव्यक्ति की आजादी पर लगातार हो रहे हमलों आदि के विरुद्ध एक आयोजन ‘प्रतिरोध’ नाम से किया। संयोगवश उसी दिन अखबारों में ये खबरें भी छपीं कि राष्ट्रपति, रिजर्व बैंक के गवर्नर और उद्योेगपति ने भी असहिष्णुता पर गहरी चिंता व्यक्त की है और इसे भारतीय चरित्र और विकास के विपरीत वृत्ति बताया है। अब तक सैकड़ों लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी, इतिहासकार, कानूनविद, फिल्मकार, वैज्ञानिक आदि इस असहिष्णुता के विरुद्ध वक्तव्य दे चुके और उनमें से कई अपने पुरस्कार, पद्म अलंकरण आदि लौटा चुके हैं।
हर दिन इस संख्या में वृद्धि हो रही है। देश के हर अंचल से लोग सामने आए हैं। इस स्वत:स्फूर्त अभियान को, सत्ताधारी लोग ‘बनावटी’ मैन्यूफैक्चर्ड विरोध की राजनीति करार दे रहे हैं। मजा यह है कि इस मैन्यूफैक्चर्ड राजनीति में बिना हमारे कुछ किए-चाहे राष्ट्रपति और अन्य मूर्धन्य शामिल हो गए हैं! हम तो अंत:करण, बहुलता, पारंपरिक समझदारी और सद्भाव, असहमति और विभिन्नता, सर्वधर्मसमभाव, प्रश्नवाचकता और जिज्ञासा की बिरादरी है: अंत:करण का आयतन संक्षिप्त किए जाने का हम प्रतिरोध कर रहे हैं। नफरत, हिंसा, हत्या आदि की राजनीति तो सत्ता मैन्यूफैक्चर कर या उसकी अनदेखी कर चुप रह कर उसे विकसित होने का अवसर दे रही है।
दूसरी तरफ हम भारतीय लोकतंत्र, भारतीय परंपरा और भारतीय अध्यात्म, सभी में बहुलता, अथक प्रश्नाकुलता, असहमति और वाद-विवाद-संवाद की मौजूदगी और संभावना पर आग्रह कर रहे हैं। उनका सार्वजनिक संवाद में पुनर्वास बहुत जरूरी है। लोकतंत्र को तानाशाह बहुमतवाद से, परंपरा को उसके बहुलतावादी चरित्र को नजरअंदाज करती दुर्व्याख्याओं से और अध्यात्म को निरे कर्मकांड में घटाए जाने, दूसरों के प्रति घृणा और हिंसा का औजार बनाने से बचाने के लिए लंबा संघर्ष कई स्तरों पर करना होगा। बहुत कठिनाई से सही, बहुल भारत का विचार अंतत: विजयी होगा, इसमें संदेह नहीं। यह एक तरह की प्रतिराजनीति होगी जिसका लक्ष्य सत्ता नहीं, सत्ता का निरंतर प्रश्नांकन होगा। जो सत्ता प्रश्नांकन को द्रोह मानती है वह लोकतांत्रिक नहीं हो सकती, भले वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से आई हो।
बेचैनी का भूगोल:
हालांकि अपने पुरस्कार, सम्मान आदि विरोधस्वरूप लौटाने वालों को सत्ताधारी शक्तियां गिरोह और बनावटी बार-बार कह रही हैं, पर सच्चाई यह है कि चालीस से अधिक लेखकों में, जो देश भर में और अनेक भाषाओं में फैले हुए हैं, अधिकांश का आपस में संवाद तो दूर, परिचय तक नहीं है। चार सौ से अधिक कलाकारों-कलाविदों के सख्त विरोध में, जैसे कि लेखकों में भी, अनेक दृष्टियों और विचारों के लोग शामिल हैं। पांच सौ से अधिक वैज्ञानिकों ने जो विरोध दर्ज किया है वे देश की वैज्ञानिक विरादरी के लब्धप्रतिष्ठ सदस्य हैं। सैकड़ों अकादमिकों और इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों ने जो चिंता और प्रतिरोध दर्ज किया है, वे अनेक विचारदृष्टियों और अनुशासनों से आते हैं।
फिल्मकारों की बेचैनी और प्रतिरोध व्यापक रूप से ध्यान खींच रहे हैं, उनकी लोकप्रिय स्थिति के कारण। इस सबसे जो बात साफ जाहिर है कि देश के सभी सर्जनात्मक हलकों में गहरी बेचैनी है: सामाजिक समरसता और सद्भाव, संवाद और सहकार को नष्ट करने का जो लगभग सुनियोजित अभियान चल रहा है वह इन सबको चिंतित क्षुब्ध कर रहा है। यह भी जाहिर है कि सत्ता इस बेचैनी को तरह-तरह से लांछित करने की लगातार कोशिश कर रही है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि सौभाग्य से देश को जोड़े रखने की जिम्मेदारी इस समय साहित्य-कलाएं-विज्ञान-विद्वत्ता-सिनेमा-संगीत आदि निभा रहे हैं और दुर्भाग्य से देश को तोड़ने का काम राजनीति कर रही है। ऐसा मुकाम है कि प्रतिरोध ही ईमानदार साहस है। उसकी सीमाएं निश्चय ही हैं, पर वे उसे बाधित, निष्क्रिय या लंगड़ा नहीं कर सकतीं।
भोपाल में वृंदसंगीत:
हमारी शास्त्रीयता के दायरे में एकलता और जब-तब की जुगलता कुछ इस कदर जमी हुई है कि वृंदसंगीत प्रतिष्ठित या मान्य नहीं हो पाया, भले उस्ताद अलाउद्दीन खां ने मैहर बैंड बनाया हो और उन्हीं के शिष्य पंडित रविशंकर ने आकाशवाणी वाद्यवृंद का बरसों संचालन किया हो। तीनेक दशक पहले संतूरवादक ओमप्रकाश चौरसिया ने भोपाल में वृंदगान की एक संस्था मधुकली स्थापित की, जो अनवरत अनेक हिंदी कवियों जैसे निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन आदि से लेकर सोमदत्त आदि की कविताओं का वृंदगान करती रही है।
हाल ही में उन्होंने दुर्लभ संगीत परंपराओं पर एकाग्र अपने एक आयोजन में सात रावणहत्था वादकों, सात इसराज वादकों, सात ध्रुपद गायिकाओं और सात नादस्वरम वादकों की प्रस्तुतियां शामिल कीं। चौरसियाजी बहुत अशक्त हो गए हैं, पर उनके जीवट का कमाल है कि ऐसा सफल-सार्थक आयोजन हुआ। स्वरवृंद के लिए यह कठिन समय है, क्योंकि बेसुरे बहुतेरे साथ मिल कर चीख-पुकार और बरबादी कर रहे हैं: ऐसे में सुरीला, शांतिदायी और आश्वस्तिमूलक वृंदसंगीत सुनना बड़ी राहत था। संगीत हमेशा ही कायर चुप्पी, बेसुरी चीख-पुकारों और शोरोगुल का प्रतिरोध होता है।