राजनेताओं, सांसदों और विधायकों के खिलाफ देश के विभिन्न न्यायालयों में लंबित आपराधिक मामलों का ब्योरा केंद्र सरकार द्वारा न दिए जाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी जताई है। न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इस पर सख्त टिप्पणी की, जिसमें दोषी सांसदों और विधायकों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है। याचिका में आपराधिक मामलों में आरोपित सांसदों-विधायकों के मामलों की सुनवाई के लिए अलग से विशेष न्यायालयों के गठन की भी मांग की गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी याचिका की सुनवाई करते हुए राजनीति के अपराधीकरण पर केंद्र सरकार से पूछा था कि क्यों न आपराधिक मामलों के आरोपियों को चुनाव का टिकट देने वाले राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द कर दिया जाए? न्यायालय ने यह भी जानना चाहा था कि क्या चुनाव आयोग को ऐसा करने का निर्देश दिया जा सकता है?
इस याचिका में कहा गया है कि वर्ष 2014 में चौंतीस प्रतिशत से अधिक सांसद और विधायक दागी थे, इस कारण विधायिका चुप है। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को ताकीद किया था कि वह 2014 में नामांकन भरते समय आपराधिक मुकदमा लंबित होने की घोषणा करने वाले विधायकों और सांसदों के मुकदमों की स्थिति बताए। इनमें से कितनों के मुकदमें सर्वोच्च न्यायालय के 10 मार्च, 2014 के आदेश के मुताबिक एक वर्ष के भीतर निपटाए गए और कितने मामलों में सजा हुई और कितने बरी हुए। 2014 से 2017 के बीच कितने वर्तमान और पूर्व विधायकों और सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हुए। जवाब में केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में कुल अठाईस राज्यों का ब्योरा दिया गया है, जिसमें उत्तर प्रदेश के सांसदों-विधायकों के खिलाफ सबसे ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। 2014 में कुल 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इसमें लोकसभा के 184 और राज्यसभा के 44 सांसद शामिल थे। इनमें महाराष्ट्र के 160, उत्तर प्रदेश के 143, बिहार के 141 और पश्चिम बंगाल के 107 विधायकों पर मुकदमे लंबित थे। सभी राज्यों के आंकड़े जोड़ने के बाद कुल संख्या 1581 थी। यहां ध्यान देना होगा कि चुनाव-दर-चुनाव दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। मसलन, 2009 के आम चुनाव में तीस प्रतिशत प्रत्याशियों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी। आम चुनाव 2014 के आंकड़ों पर गौर करें तो 2009 के मुकाबले इस बार दागियों की संख्या बढ़ गई। दूसरी ओर ऐसे जनप्रतिनिधियों की भी संख्या बढ़ी है, जिन पर हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। 2009 के आम चुनाव में ऐसे सदस्यों की संख्या तकरीबन 77 यानी पंद्रह प्रतिशत थी जो अब बढ़ कर इक्कीस प्रतिशत हो गई है।
कुछ अरसा पहले सर्वोच्च न्यायालय ने दागी नेताओं पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कहा था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए, क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। पर विडंबना है कि न्यायालय की इस नसीहत का पालन नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाय इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दी है। दरअसल, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। जब कानून में गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं माना गया है, तो फिर मंत्रिमंडल गठन के मामले में उन्हें अयोग्यता कैसे ठहराया जा सकता। वैसे भी उचित है कि व्यवस्थापिका में न्यायपालिका का अनावश्यक दखल न हो। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि कार्यपालिका दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर अपनी आंखें बंद किए रहे और न्यायपालिका तमाशा देखे।
कुछ अरसा पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगाई, तो राजनीतिक दलों ने वितंडा खड़ा किया। उस समय सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें कैबिनेट से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों को हटाने की मांग की गई थी। शुरू में न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका दायर किए जाने पर 2006 में इस मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में राजनीतिकों और अतिविशिष्ट लोगों के खिलाफ लंबित मुकदमे एक साल के भीतर निपटाने का आदेश दिया था। दूसरे फैसले में उसने कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था, जो दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अपील लंबित रहने के दौरान विधायिका का सदस्य बनाए रखता है। अब चूंकि केंद्र सरकार ने दागी जनप्रतिनिधियों के मामले की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय के गठन को हरी झंडी दिखा दी है, राजनीति के शुद्धीकरण की उम्मीद बढ़ गई है। अगर दोषी नेताओं पर कानून का शिकंजा कसता है तो राजनीतिक दल ऐसे लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करेंगे।
अकसर राजनीतिक दल सार्वजनिक मंचों से कहते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है। वे इसके खिलाफ कड़े कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की भी हामी भरते हैं। लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं। दरअसल, राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। पिछले कुछ दशक से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। हैरान करने वाली बात यह कि दागी चुनाव जीतने में सफल भी हो रहे हैं। पर इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता भी बराबर की कसूरवार है। जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाय जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रूप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे। नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि चुने।
यह तर्क सही नहीं कि कोई दल साफ-सुथरे लोगों को उम्मीदवार नहीं बना रहा है इसलिए दागियों को चुनना उनकी मजबूरी है। यह एक खतरनाक सोच है। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना एक स्वाभावगत प्रक्रिया है। लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए, यह जनता की जिम्मेदारी है। देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा और समर्पण राजनेताओं की होनी चाहिए उतनी ही जनता की भी। दागियों को राजनीति से बाहर खदेड़ने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।