राकेश सिन्हा

कुछ दिनों पूर्व समाजशास्त्र के छात्रों से अनौपचारिक संवाद के दौरान मैंने कुछ नामों, जिनमें विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण शामिल थे, का उल्लेख किया। जब मैंने उनसे उनके बारे में जानना चाहा तो उनकी जानकारी सीमित थी। मुझे तनिक भी हैरानी नहीं हुई। हमने अपनी विरासत से नई पीढ़ी को अवगत कराने का गंभीर प्रयास ही नहीं किया। इसलिए इन नामों की उपयोगिता प्रतियोगिता परीक्षा के सामान्य ज्ञान के प्रश्नों के रूप में सिमट कर रह गई है।

नई पीढ़ी के राजनेता भी इन नामों को सुविधाजनक नारों के रूप में ही देखते हैं। यथार्थ कुछ और है। कुछ विरासतें भविष्य को अपने गर्भ में पालती हैं। विनोबा और जयप्रकाश की विरासत उसी श्रेणी में आती है। उनमें जीवंतता और नव-सृजन की असीम क्षमता है। ऐसी विरासत कभी मरती नहीं है। बल्कि मरती हुई चेतना को जीवित करने का कारण बनती है।

जब राजनीतिज्ञ संतों की भूमिका में आ जाते हैं, तब वे दीर्घकालिक परिवर्तन के जनक ही नहीं बनते, अपने जीवन के बाद भीड़ से अपने जैसे पथिकों की खोज करने की ताकत भी रखते हैं। महात्मा गांधी, विनोबा और जयप्रकाश तीनों ने सामाजिक- राजनीतिक परिवर्तनों की शुरुआत महानगरों या बड़े साइनबोर्ड वाले दफ्तरों या बड़े उद्देश्य वाले दावों से नहीं की। वे भीड़ और जनमत तैयार करने का दावा करने वालों तथा शहरी चमक-दमक से दूर देहात को अपना केंद्र और प्रयोगशाला बनाया। महात्मा गांधी ने 1915 में साबरमती नदी के किनारे कोचरब नामक स्थान पर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। यह अहमदाबाद शहर से मीलों दूर है।

विनोबा ने 1921 में धाम नदी के किनारे वर्धा से छह किलोमीटर दूर पवनार में सत्याग्रह आश्रम बनाया, तो जयप्रकाश ने बिहार के नवादा जिले में, जिला केंद्र से बावन किलोमीटर की दूरी पर शेखोदेवरा नामक गांव में सर्वोदय आश्रम की स्थापना 1954 में की थी। ये तीनों ही स्थान राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन की प्रयोग भूमि बन गए और कई पीढ़ियों को अपनी ओर खींचते रहे।

आजादी के बाद विनोबा ने 1951 में भूदान यज्ञ शुरू किया। पूरे देश का भ्रमण कर उन्होंने चार लाख एकड़ भूमि बड़े और मध्यम किसानों से दान में प्राप्त किया। यह भूमिहीनों के पक्ष में अभियान था। विनोबा सामाजिक-आर्थिक विषमता के अंत के लिए प्रबोधन करते रहे। यह प्रबोधन पश्चिम के वाम और दक्षिण की अवधारणा से भिन्न था। हजारों लोग इस अभियान का हिस्सा बने।

समाज में बदलाव सहमति से पैदा होते हैं, जो कानून या व्यवस्था से कहीं ताकतवर औजार है। इस सहमति के निर्माण के लिए परिवर्तन के सारथी की पात्रता ही कारगर सिद्ध होती है। इसका निर्माण संत भाव से समाज के साथ साक्षात्कार से ही आता है। इसलिए विनोबा यह मानते थे कि सेवा के लिए सत्ता की जरूरत नहीं है। उनका दृढ़ मत था कि ‘सेवा के लिए स्वतंत्र योजना होनी चाहिए।’ विनोबा के अनुसार सेवा एक ‘बड़ा प्रतीक्षालय’ है। इसकी एक तरफ से गाड़ी जाती है व्यवस्था और सत्ता की ओर और दूसरी बाजू से गाड़ी जाती है भक्ति और मुक्ति की ओर।

पिछले वर्ष 15 मई को विनोबा के पवनार आश्रम गया और उस विरासत को समझने की कोशिश की। आश्रम में बत्तीस लोग थे। सबसे अधिक उम्र के विनोबा के सहायक पंचानबे वर्षीय बालविजय और सबसे कम उम्र के चौरासी वर्षीय गौतम बजाज थे। भौतिकतावाद से आश्रम बचा हुआ है। सादगी बनी हुई है। आश्रम की पत्रिका ‘मैत्री’ के प्रबंधन से जुड़ी ज्योत्स्रा, बहन की उम्र इक्यानबे वर्ष थी। बत्तीस लोगों में से तीस महिलाएं थीं। एक दो नए लोग आश्रम से जुड़े। पर वे सभी विनोबा के जीवनकाल से आश्रम में रह रहे हैं।

जब सभी रास्ते आर्थिक जगत की ओर जा रहे हों और आर्थिक चेतना सभी चेतनाओं को दबोच रही हो, तब मनुष्य का आर्थिक संस्करण उसे विचार और दर्शन से दूर करता है। वह आंतरिक विरोधाभासों का निदान अर्थ से बनी रचनाओं में ढूंढ़ता है। विषमता के प्रति संवेदना समाप्त हो जाती है। उस क्रम में वह निर्ममता का संचय कर संवेदनारहित, सामुदायिक जीवन से विरक्त जीवन दर्शन का प्रवक्ता होता है। इसका निषेध और सकारात्मक समाधान पवनार की भूमि देती है। नई पीढ़ी को इस प्रयोग भूमि को समझने और संदर्भ अनुकूल बनाने की आवश्यकता है।

इस वर्ष एक अप्रैल को जयप्रकाश के सर्वोदय आश्रम गया। जेपी संपूर्ण क्रांति के निश्छल प्रवक्ता थे। इस आश्रम ने परिवर्तन की एक नैतिक ताकत को जन्म दिया। जब उन्होंने आश्रम बनाया, तो न्यूनतम भौतिक सुविधाएं सड़क, बिजली, बाजार तक उपलब्ध नहीं था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के साथ-साथ समकालीन राजनीति में वे एक बड़े नाम थे। पर गुमनाम स्थान को नैतिक ताकत के सृजन की प्रयोगशाला बनाया। शहरों और विश्वविद्यालयों से लोग यहां आने लगे। जेपी अपनी पत्नी प्रभावती के साथ सामान्य जन की तरह रहने लगे।

जेपी की नैतिक ताकत ने चंबल के डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य कर दिया

अपनी लोकप्रियता, प्रतिभा और संत भाव की पिरोकर वे भविष्य का जेपी तैयार कर रहे थे, जिसे भारतीय लोकतंत्र को राक्षसी हमले से बचाना था। 1942 में जब जेपी हजारीबाग जेल से भाग निकले थे, तब कुछ दूरी पर एक चट्टान पर आश्रय लिया था, जिसे जेपी चट्टान के नाम से जानते हैं। सर्वोदय आश्रम स्वावलंबन और स्वचेतना और का सृजन स्थल बन गया। जेपी की नैतिक ताकत ने चंबल के डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य कर दिया। बाद में जेपी नौजवानों के आंदोलन के सारथी बने। विरोधी विचारधाराओं से सत्संग करने के लिए प्रेरणा के स्रोत बन गए। जो आश्रम लोकतंत्र और स्वावलंबन की पाठशाला होना चाहिए था, वह अज्ञात बना हुआ है।

स्थानीय लोग इस स्मृति से जुड़ी सभी चीजों को बचाने का अथक प्रयास कर रहे हैं, पर लोकतांत्रिक राज्य इस अमूल्य धरोहर के प्रति उपेक्षा का भाव लिए उदासीन बना हुआ है। सर्वोदय आश्रम लोकशक्ति निर्माण का एक दर्शन है। यह लोकशक्ति चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं होती है। राजनीतिक संस्कृति की शिक्षक होती है। वह उसे भटकने से रोकती और निर्माण तथा विध्वंस दोनों की क्षमता रखती है। तात्कालिकता उसकी बुनियाद में नहीं होती। राजनीति को दीर्घकालिक सोच पैदा करने को बाध्य करती है। इसके प्रबोधन से लोक-पात्रता पैदा होती है, जो संकीर्णताओं को कुचलती है। जब लोकशक्ति में अहंकार पैदा होता है, तब उसका क्षरण होता है, जिसका आभास तब तक नहीं होता जब तक कि वह समाज के लिए बोझ नहीं बन जाता। जेपी कभी बोझ नहीं बने।

भौतिकता आचरण और नैतिकता की बलि चढ़ाती है

इन दोनों विरासतों से साक्षात्कार पर्यटक के रूप में नहीं, परिवर्तन की मानसिकता से करने पर उसकी उपयोगिता और प्रसांगिकता समझ में आती है। समाज और राजनीति दोनों में परस्पर सामंजस्य तभी रह सकता है, जब परिष्कारवादी धारा अपनी स्वायत्तता बनाए रखे। उसकी निर्लिप्तता ही उसको सामर्थ्य और जोखिम उठाने की शक्ति प्रदान करती है। इसे खोकर लोकशक्ति ढोलक की तरह खोखलेपन के साथ स्वर निकालती है। भौतिकता आचरण और नैतिकता की बलि चढ़ाती है। फिर समाज और राजनीति में मापदंड बदल जाते हैं। ऐसी स्थिति में नवउदारवादी चेतना को परास्त करने के लिए नवनिर्माण को अपनी कोख में छिपाए इन विरासतों की खोज ही रचनात्मकता है। विनोबा और जेपी उसी सृजनशील रचनात्मकता के दो जीवंत नायक हैं और सत्याग्रह आश्रम और सर्वोदय आश्रम जीवंतता के प्रतीक हैं।

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)