मुझे मोदी की भक्तन कहते हैं मेरे कई पत्रकार बंधु और सोशल मीडिया पर भारत के राजपरिवार की समर्थक। इसके बावजूद जब भी मुझे लगा है कि मोदी ने कोई गलती की है, मैंने डंट कर उस गलती की आलोचना की है। गलतियां हुई हैं। कुछ तो बहुत बड़ी गलतियां। अपनी निजी फेहरिस्त में नंबर एक पर मैं नोटबंदी रखती हूं। मेरी राय में नोटबंदी से भारत का नुकसान ज्यादा हुआ है। लाभ बहुत कम। दूसरे नंबर पर मैं रखती हूं गोरक्षकों की हिंसा और प्रधानमंत्री का उस पर मौन रहना। तीसरे नंबर पर मैं रखती हूं मोदी का घबरा कर अपनी तय हुई आर्थिक दिशा बदल डालना, जब राहुल गांधी ने ‘सूट-बूट की सरकार’ वाला उन पर ताना कसा था।

मोदी ने 2014 के चुनाव अभियान में वादा किया था आर्थिक दिशा बदलने का। कहा करते थे तब कि भारत को समृद्धि का सपना देखना चाहिए, सिर्फ गरीबी हटाने का नहीं। कहा करते थे कि सरकार का कोई बिजनेस नहीं होना चाहिए। सो, इशारा गया उस वक्तव्य से कि निजी निवेशकों का स्वागत है भारत की अर्थव्यवस्था में। इशारा था कि जिन समाजवादी नीतियों के कारण भारत गरीब और पिछड़ा रहा है, उनको बदल कर वे देश की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने का काम करेंगे। इस वादे को पूरा किया होता मोदी ने, तो मुमकिन है कि आज रोजगार की बहार आ गई होती भारत में और उनके इस चुनाव में हारने की चर्चा भी न होती। राजनीतिक क्षेत्र में मोदी परिवर्तन लाए हैं। एक नए किस्म का भारतीय राजनीति में आ गया है। जिन मुट्ठी भर राजनीतिक परिवारों में संसद में प्रवेश पाने के सारे टिकट हुआ करते थे, उनको इस नए किस्म के राजनीतिज्ञ से खतरा है, सो वे मोदी के आज सबसे बड़े दुश्मन हैं। महगठबंधन बना ही है इस डर से कि मोदी अगर दुबारा प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो देश का राजनीतिक चरित्र और बदल डालेंगे। मगर इस बदलाव से भारत को लाभ हुआ है, क्योंकि वे लोग राजनीति में आने की सोचने लगे हैं अब, जो किसी राजनीतिक परिवार या राजनीतिक दल के वारिस नहीं हैं। यह बहुत अच्छी बात है।

मेरी राय में मोदी की सबसे सफल योजना स्वच्छ भारत है। जहां ग्रामीण भारत में 2014 में एक भी जिला नहीं था, जिसमें खुले में शौच करने की गंदी प्रथा पूरी तरह समाप्त कर दी गई थी। आज तकरीबन पूरे देश में यह बंद हो चुकी है। साथ में स्वच्छता की क्रांति आ गई है, जिसके सिपाही बन गए हैं ग्रामीण भारत के युवा और युवतियां। काश कि शहरी भारत में भी यह क्रांति आई होती। लेकिन यह भी याद रखना जरूरी है कि अगर हमारे सारे शहर और महानगर गंदी बस्तियों जैसे दिखते हैं, तो यह हाल पैदा हुआ है दशकों की लापरवाही के कारण। मोदी ने कम से कम इशारा तो किया है कि यहां परिवर्तन लाना जरूरी है।
मोदी ने बहुत कुछ किया है देश के लिए, लेकिन मतदाताओं की दृष्टि में यह सब काफी नहीं है। तो, मोदी को प्रधानमंत्री नहीं रहने देंगे तेईस मई के बाद, बिना किसी ब्रिटिश पत्रिका की नसीहत लिए। इस पत्रिका ने पिछले हफ्ते एक संपादकीय में लिखा है कि मोदी ने भारत में इतनी नफरत फैलाई है, इतनी गलतियां की हैं कि कांग्रेस पार्टी को जिताना जरूरी हो गया है। साथ में कांग्रेस पार्टी की तरफदारी इस आधार पर की है कि कांग्रेस मजहब और जाति को लेकर भारतीयों में फूट नहीं डालती है। मैंने जब यह पढ़ा तो ऐसा लगा जैसे किसी ऐसे व्यक्ति ने यह लेख लिखा होगा, जिसको भारत का इतिहास बिल्कुल मालूम नहीं होगा। इतिहास पढ़ने की जरूरत ही नहीं है आज। गूगल करके ही क्षणों में पता लग जाता है कि कितने दंगे हुए हैं किस साल में, जाति-मजहब को लेकर। बिना उस जनसंहार की बात किए, जो 1984 में राजीव गांधी का कार्यकाल शुरू होते हुआ था और जिसमें तीन हजार से ज्यादा बेगुनाह सिख मारे गए थे। राजीव ने इस जनसंहार को जायज ठहराया था।

इकोनॉमिस्ट अखबार का आरोप है कि मोदी की नीतियों के कारण कश्मीर घाटी में अराजकता फैली है। इस आरोप को पढ़ कर मुझे फिर से लगा कि इस लेखक ने अज्ञानवश यह लेख लिखा है। कश्मीर की समस्या दशकों पुरानी है और पैदा हुई है कांग्रेस प्रधानमंत्रियों की गलतियों के कारण। यह सच है कि मोदी घाटी में अराजकता खत्म नहीं कर पाए हैं, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि इसकी शुरुआत हुई थी बुरहान वानी की मुठभेड़ में हत्या के बाद। और बुरहान वानी ने अपने हर वीडियो में स्पष्ट किया था कि वह भारत के खिलाफ अपना जंग तब तक जारी रखेगा जब तक कश्मीर घाटी में शरीअत का निजाम नहीं नाफिस होता है। ऐसा अगर किसी ब्रिटिश राज्य में किसी जिहादी ने करने की कोशिश की होती तो ब्रिटेन की सरकार क्या करती? क्या शरीअत नाफिस होने देती? या उन जिहादियों को ढूंढ़ कर मारती, जो उनके देश में इस्लामी रियासत का निर्माण करना चाहते हैं? मोदी ने हर तरह से कोशिश की है कश्मीर घाटी में शांति लाने की। पहले सख्ती दिखा कर और बाद में ‘कश्मीरियत, इंसानियत, जम्हूरियत’ का नारा देकर। अटल बिहारी वाजपेयी ने यह नारा दिया था अपने दौर में और काफी हद तक शांति ला सके थे घाटी में। लेकिन तब कश्मीरी लड़ रहे थे ‘आजादी’ के नाम पर। आज इस मुहिम का नेतृत्व जो कर रहे हैं उनकी मांग है शरीअत। निजाम-ए-मुस्तफा। यह ऐसी मांग है, जिस पर कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री बहस करने को तैयार नहीं हो सकता। कांग्रेस का भी कोई प्रधानमंत्री नहीं।