शुरू में ही स्पष्ट कर दूं कि मैंं दिल से समाजवादी विचारधारा का विरोध करती हूं। इस लिए कि मुझे विश्वास है कि भारत की गिनती दुनिया के संपन्न, समृद्ध देशों में होती, अगर हमने इस विचारधारा को गीता की तरह पूजा न होता पिछले सत्तर वर्षों में। इसे इतना पूजा है हमने और हमारे शासकों ने कि हमारी हिंदुत्ववादी संस्थाएं, जिनको वामपंथी दुश्मन मानते हैं, वह भी समाजवाद शब्द को अपनी सोच से अलग नहीं रख पाए हैं। सो, संघ परिवार ने अपनी आर्थिक विचारधारा का नाम गांधीवादी समाजवाद रखा है और आज तक इसको मानते आए हैं वे सभी लोग, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच से प्रभावित हुए हैं।
नरेंद्र मोदी ने 2014 में चुनाव प्रचार करते समय कई बार कहा था कि बिजनेस करना सरकार का काम नहीं है और ऐसे इशारा किया था मेरे जैसे समाजवादी विरोधियों को कि मोदी देश को एक नई दिशा में ले जाकर दिखाएंगे। एक ऐसी दिशा, जिसमें देश की प्रगति और अर्थव्यवस्था पर सबसे ज्यादा अधिकार रहेगा देशवासियों का, न कि हमारे शासकों का। प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मोदी की भाषा बदल गई है। अब भी भारत में परिवर्तन और विकास लाना चाहते हैं, लेकिन उन्हीं सरकारी अफसरों के जरिए, जिनको समाजवादी आर्थिक सोच पूरा अधिकार देती है। फर्क इतना दिखा है कि मोदी के दौर में केंद्र सरकार के कामकाज में थोड़ी फुर्ती बढ़ गई है और भ्रष्टाचार कुछ हद तक कम हुआ है। इसके अलावा देश की आर्थिक दिशा अब भी समाजवादी है और आज मोदी उन्हीं शब्दों में गरीबी हटाने की बातें करते हैं, जैसे इंदिरा गांधी कभी किया करती थीं।

गरीबी हटाना अच्छा लक्ष्य है और हर प्रधानमंत्री का यही लक्ष्य होना भी चाहिए। सवाल है कि भारत में गरीबी हटाने का तरीका कौन-सा होना चाहिए। समाजवादी आर्थिक नीतियों का आधार है मनरेगा जैसी बड़ी-बड़ी योजनाओं द्वारा खैरात बांटना गरीबों में। दूसरा रास्ता लिया होता मोदी ने तो आज वही पैसा, जो इन बड़ी-बड़ी योजनाओं में लगाया गया है, निवेश होता ग्रामीण सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों में, पेयजल की सुविधाएं उपलब्ध कराने में। यह रास्ता बेहतर है, क्योंकि देखा गया है कि इस रास्ते को अपनाने के बाद ही अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के विकसित देश गरीबी हटाने में सफल हुए हैं। पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ के दबाव की वजह से आर्थिक नीतियां समाजवादी सोच पर आधारित थीं और इन देशों में गरीबी हटाने के लिए इतनी देर लगी कि इनको अपनी आर्थिक नाकामियों को छिपाने के लिए दीवारें खड़ी करनी पड़ी थीं।निजी तौर पर मैंं समाजवादी सोच की दुश्मन इसलिए भी हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि समाजवादी सोच ने भारत की रूह को गहरी चोट पहुंचाई है और इसी वजह से 1947 के बाद हम पैदा नहीं कर पाए हैं प्रेमचंद जैसे लेखकों को, हरिवंश राय बच्चन जैसे कवियों को। मैंने समाजवादी सोच से अपनी दुश्मनी खुल कर व्यक्त की है अपने लेखों में, इसलिए अजीब लगा जब जेएनयू के एक अधिकारी ने मुझे आमंत्रित किया समाजवाद की विफलताओं पर इस विश्वविद्यालय के अध्यापकों को संबोधित करने के लिए।

मैंं जाने को राजी हुई, यह सोच कर कि अच्छी बहस होगी, क्योंकि जेएनयू की सोच और मेरी सोच में इतना अंतर है। सो, खूब तैयारी करके गई मैंं विचारों की इस लड़ाई में जीत हासिल करने के लिए। तैयारी लेकिन मैंने इसकी नहीं की थी कि बहस करने के बदले इस प्रसिद्ध वामपंथी विश्वविद्यालय के अध्यापक मेरे ऊपर व्यक्तिगत वार करने की तैयारी करके बैठे थे। यह भी भूल गई थी कि वामपंथी विचारधारा में हंसी-मजाक की कोई जगह नहीं है, सो मुझे नीचा दिखाने की पहली कोशिश तब हुई जब मैंने शुरू में ही मजाक में कहा कि मेरे विचारों को सुन कर ऐसा न हो कि मेरे ऊपर जानलेवा हमला किया जाए। यह शब्द मुंह से निकले ही थे कि एक गंभीर शक्ल वाले व्यक्ति ने मुझे यह कह कर टोक दिया कि मुझे बढ़ा-चढ़ा के बातें नहीं करनी चाहिए। मैंने जवाब दिया कि मुझे पूरा अधिकार है अपनी बात अपने अंदाज में कहने का, तो वह साहब चुप हो गए।

सो, मुझे मौका मिला अपनी बात पूरी तरह रखने के लिए, लेकिन जब सवाल-जवाब का समय आया तो सवालों को सुन कर मुझे ऐसा लगा कि मेरी बातों को किसी ने सुनने की तकलीफ ही नहीं की थी। पहला सवाल, सवाल नहीं हमला था, जिसमें पूछने वाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे मेरे लेख हर हफ्ते पढ़ते हैं, लेकिन एक बार भी मेरे विचारों से सहमत नहीं होते। फिर उन्होंने आक्रामक अंदाज में मेरे किसी एक लेख का जिक्र किया, जिसके बारे में उन्होंने कहा कि मैंने वैश्वीकरण की तारीफ की थी, जबकि जानेमाने अर्थशास्त्री भी अब इसके खिलाफ हो गए हैं। मैंने उनको याद दिलाया कि मेरे भाषण का विषय भारतीय समाजवाद था, सो चुप हो गए। फिर आई बारी एक महिला की, जिसने मुझे इस बात को लेकर टोका कि मैंने कहा था कि सरकारी स्कूल इतने बेकार हैं कि उनका निजीकरण होना चाहिए। मैंने देवीजी को याद दिलाया कि मैंने इसका बिलकुल उलटा कहा था, क्योंकि मैंं मानती हूं कि अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं दिलवाना सरकार का काम है, उद्योगपतियों का नहीं।

अगला व्यक्ति जब सवाल पूछने उठा, तो उसने भी सवाल करने के बदले मेरे ऊपर व्यक्तिगत टिप्पणी की, सो मेरे पास निकल भागने के अलावा कोई चारा न दिखा और मैंं जेएनयू से भाग निकली। खुशी से नहीं, उदास होकर, इसलिए कि मैंं मानती हूं कि समाजवादी नीतियों की विफलताओं पर जब तक देश भर में बहस नहीं होगी, हम अपनी दिशा बदल नहीं सकेंगे। सरकारी अफसरों के भरोसे रुक-रुक के धीरे-धीरे ही चलेगी भारतीय विकास की गाड़ी।