शुरू में स्पष्ट कर दूं कि मेरी राय में पूर्णबंदी समाप्त करने का समय आ गया है। यह भी स्पष्ट करना चाहती हूं कि मुझे निजी तौर पर अधिक चिंता होने लगी है इस देश के आर्थिक भविष्य को लेकर और अपने उन गरीब प्रवासी मजदूरों की बेरोजगारी या भूख से मरने की संभावना से। माना कि अमेरिका और यूरोप में लंबी ‘लॉकडाउन’ के बाद ही इस बीमारी को फैलने से रोका गया है। लेकिन उन विकसित देशों की बात और है और हमारे देश की और।
विकसित देशों में जब घर से बाहर न निकलने का आदेश आता है, तो उसका पालन लोग आसानी से कर लेते हैं, क्योंकि सबके घर होते हैं। हमारे देश में जो प्रवासी मजदूर शहरों में आते हैं रोजी-रोटी की तलाश में, उनको अक्सर रहना पड़ता है कई लोगों के साथ छोटे-छोटे कमरों में। मुंबई में मेरे जानकार प्रवासी मजदूर बताते हैं कि ऐसे कई लोग हैं जो रात को काम करते हैं और दिन में सोते हैं, सो ऐसे साथी ढूंढ़ते हैं जो दिन में काम करते और रात को सोते हैं, ताकि बारी-बारी समय मिले छोटी-छोटी ‘खोलियों’ में रहने के लिए। सो, आश्चर्य नहीं होना चाहिए किसी को कि लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर बंदी के बाद अपने ग्रामीण घरों तक जाने लगे थे, चाहे उनको हजारों मील पैदल क्यों न जाना पड़े।
समस्या अब यह है कि अगर अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंकनी है, तो उन सबको वापस कैसे लाया जाएगा। उनके बिना न लाखों छोटे कारोबार चल सकते हैं और न ही उन विशाल योजनाओं पर काम शुरू हो सकेगा, जो फिलहाल रुकी पड़ी हैं। इन कार्यों को शुरू किए बगैर अर्थव्यवस्था में जान फूंकना असंभव है। महामारी को रोकने के लिए पहली बंदी शायद जरूरी थी और दूसरी भी, लेकिन इस पूर्णबंदी को और लंबा खींचना गलत इसलिए होगा, क्योंकि लोग भूख से मरने शुरू हो जाएंगे।
अभी से विश्व खाद्य कार्यक्रम ने सावधान किया है कि अविकसित देशों को तैयार हो जाना चाहिए बड़े पैमाने पर भुखमरी फैलने को लेकर। अगर अमेरिका जैसे देश में दो करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं पिछले दो महीनों में, तो कल्पना कीजिए अपने देश में क्या हो चुका होगा? वहां सरकार की तरफ से बेरोजगार लोगों को पंद्रह सौ डॉलर दिए गए हैं, बेरोजगारी भत्ते के अलावा। हमारी सरकार के पास क्षमता नहीं है ऐसा करने की। मुश्किल से पांच सौ रुपए पहुंचाए गए हैं जन धन खातों में। सो, बहुत जरूरी है कि लोगों को काम पर लौटने का मौका दिया जाए अब।
पिछले सप्ताह बजाज आॅटो के मालिक राजीव बजाज ने इंडिया टुडे को एक इंटरव्यू देकर कहा कि बड़े उद्योगपतियों को भी अब चिंता होने लगी है अपने उद्योगों के भविष्य को लेकर। उन्होंने सुझाव दिया है कि जहां महामारी ज्यादा फैली है उन जगहों में ही पूर्ण बंदी रखी जाए। जहां इसका असर कम दिखता है वहां बंदी हटाई जाए, वरना नुकसान इतना ज्यादा हो सकता है कि महामारी से ज्यादा लोग बेरोजगारी और भूख से मरने लगेंगे। वैसे भी इस महामारी का असर भारत में इतना नहीं दिखा है अभी तक, जितना अमेरिका और यूरोप में देखा गया है।
इसके कई कारण हो सकते हैं, जिनका विश्लेषण हमें अभी से शुरू करना चाहिए। ऐसा क्यों है कि जिन विशेषज्ञों और विज्ञानिकों ने भविष्यवाणी कि थी कि भारत में लोग लाखों की तादाद में मरने वाले हैं वे सब गलत साबित हुए हैं? क्या इसलिए ऐसा हुआ कि ज्यादातर भारतीयों की उम्र पैंतीस वर्ष से कम है? या इसलिए कि इस विषाणु में ताकत नहीं है गर्म मौसम झेलने की? सवाल और भी हैं जिन पर ध्यान अभी से दिया जाना चाहिए।
इतना लेकिन अभी से दिखने लगा है कि जो हाल अन्य देशों का हुआ है वैसा हाल अपने देश का नहीं हुआ है। सो, हमारे लिए आर्थिक समस्याओं की गंभीरता की चिंता इस संक्रमण से ज्यादा करनी चाहिए। इन पर इतना कम ध्यान दिया गया है कि भारत सरकार की तरफ से अजीब-अजीब नियम आने लगे हैं। सबसे अजीब नियम यह था कि कारोबार और कारखाने खुल सकते हैं अब, लेकिन खुलने के बाद अगर एक भी मुलाजिम कोरोना संक्रमित पाया गया, तो मालिकों को जेल भेजा जा सकता है। दूसरा नियम यह बना है कि जो उद्योग खुलते हैं, उनमें मजदूरों और मुलाजिमों के लिए आवास का प्रबंध अपने अहाते में करना होगा। इस नियम का पालन मुंबई जैसे महानगर में कैसे किया जाएगा, जहां आवास की इतनी कमी है कि इस महानगर की आधी आबादी झुग्गी बस्तियों में रहने पर मजबूर है।
जब बात आ ही गई है इन बेहाल बस्तियों की, तो यह भी कहना जरूरी है कि इस महामारी ने भारत के सामने आईना दिखाने का काम किया है, जिसमें अपना चेहरा देख कर भारतमाता शर्मिंदा हो रही होगी। ऐसा डरावना अक्स दिखता है इस आईने में कि उसको देख कर रोना आता है। बड़ा गर्व करते हैं हमारे शासक भारत के विकास पर, लेकिन कैसा विकास है यह कि हम न अपने लोगों के लिए ढंग का आवास दे पाए हैं और न ही इस आपदा के समय अपने सबसे गरीब, लाचार लोगों की सहायता कर सकते हैं। यह शब्द लिखते हुए मेरी आंखों के सामने उन बच्चों की शक्लें आती हैं, जो कई सौ मील पैदल अपने ग्रामीण घरों तक जाने की कोशिश कर रहे हैं आज भी। एक बच्ची ने तो कई दिन चालने के बाद उस समय दम तोड़ा जब उसका गांव सिर्फ एक घंटा दूर था। कैसा विकास है यह, जो आम लोगों को बुनियादी सुविधाएं नहीं उपलब्ध करा सका है?