अगले हफ्ते हम इंदिरा गांधी को याद करेंगे। देश भर के अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाएगी कांग्रेस पार्टी इकतीस अक्तूबर को, जिनमें होंगी इंदिराजी की तस्वीरें और उनकी तारीफें। मगर बहुत कम लोगों को याद आएगा कि हत्याएं और भी हुई थीं 1984 के उन मनहूस दिनों में। इतनी हत्याएं कि दिल्ली के मुर्दाघरों में जगह नहीं बची थी लाशों के लिए। सो, सिखों की लाशों को दिल्ली की सड़कों पर जला दिया गया था, बिल्कुल वैसे ही जैसे कूड़े को जलाया जाता है। न कोई अंतिम संस्कार, न कोई मातम। रिश्तेदार उनके खुद डर के मारे भागे फिर रहे थे, तो कोई था नहीं रोने वाला। हर साल हमको इस कत्लेआम को याद करना चाहिए, इस सप्ताह में, क्योंकि इसको याद करके ही याद आएगा हमें कि आज भी कानून-व्यवस्था को उसी तरह पांव तले कुचल सकते हैं हमारे राजनेता, जिस तरह 1984 में उन्होंने कुचला था।

राजीव गांधी ने उस समय प्रधानमंत्री होने के नाते न्याय देने की कोशिश की होती उनको, जिनके बेटे, भाई और पति जिंदा जला दिए गए थे, तो शायद देश की कानून-व्यवस्था इतनी बुरी न होती आज कि फतेहपुर सीकरी में विदेशी पर्यटकों पर बच्चे जानलेवा हमला कर सकते। गनीमत है कि वह स्विस दम्पति बच गया है, लेकिन चोटें इतनी गंभीर हैं कि शायद उम्र भर उन्हें तकलीफ देंगी। इस हिंसा को न किसी स्थानीय प्रत्यक्षदर्शी ने रोकने की कोशिश की और न ही स्थान पर योगी आदित्यनाथ की प्रख्यात पर्यटन पुलिस पहुंची। सो, किस मुंह से कह सकते हैं हम कि भारत में कानून-व्यवस्था है?

सच तो यह है कि चूंकि हमारे राजनेताओं को आदत है कानून-व्यवस्था में गलत दखल देने की, हिंसा कभी भी भड़क सकती है कहीं पर भी, अपने इस भारत महान में। लोकतांत्रिक देशों में कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है पूरी तरह पुलिस की, लेकिन भारतवासी जानते हैं कि इस व्यवस्था को कायम रखने का काम असल में नेताजी का है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी राजनेताओं की मर्जी के मुताबिक काम करते हैं। सो, जब दंगा-फसाद शुरू हो जाते हैं या कोई बहुत बड़ा आतंकवादी हमला होता है, तकरीबन हमेशा सेना को बुलाना पड़ता है, क्योंकि पुलिस को इतना कमजोर कर दिया गया है। ऐसा नहीं होता उन लोकतांत्रिक देशों में, जहां कानून-व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का अधिकार राजनेताओं को नहीं है। उन देशों में कभी वही हाल हुआ करता था, जो आज भारत में है, लेकिन वहां सुधार लाए गए थे बहुत पहले, क्योंकि वहां के राजनेता भी जानते हैं कि लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए कानून-व्यवस्था जरूरी है।
हमारे राजनेता भी इस बात को जानते हैं, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि कमजोर कानून-व्यवस्था से उनको राजनीतिक फायदा मिलता है। पुलिस अगर अपना काम सही ढंग से करती तो न 1984 में सिखों का कत्लेआम होता और न ही आज गोरक्षक मुसलमानों को मारते फिरते। समस्या यह है कि जब राजनीतिक दल हत्यारों को शरण देते हैं, अपने फायदे के लिए, तो वे कानून-व्यवस्था को हर बार थोड़ा और कमजोर करते हैं। ऐसा होने से सबसे बड़ा खतरा है कि हत्यारे खुद राजनेता बन जाते हैं।

आज अगर संसद और विधानसभाओं में अपराधी किस्म के जनप्रतिनिधि जगह पा चुके हैं, तो इसलिए कि चुनावों में वोट हासिल करने के लिए राजनेताओं ने डकैतों और माफिया गुटों को इस्तेमाल करना शुरू किया था कोई तीस वर्ष पहले। इन बाहुबलियों को जब समझ में आया कि जो काम वे राजनेताओं के लिए कर रहे थे, वह अपने लिए भी कर सकते हैं, तो वे खुद राजनेता बन गए। किसी की हिम्मत है ऐसे लोगों को वोट न देने की? किसी की हिम्मत है कहने की कि जेल की सलाखों के पीछे से चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं होनी चाहिए?

नुकसान हुआ है तो भारतीय लोकतंत्र को, क्योंकि जितनी कमजोर होती है कानून-व्यवस्था उतना ही कमजोर हो जाता है लोकतंत्र। नुकसान यह भी हुआ है कि भारत का आम नागरिक समझता है कि कानून से उसको डरने की जरूरत नहीं है। ज्यादा डर उनको लगता है राजनेताओं से, क्योंकि कानून-व्यवस्था की बागडोर उनके हाथों में है, पुलिस के हाथों में नहीं। यह भी जान गए हैं भारत के आम नागरिक कि पुलिस अधिकारी अगर नेताजी के आदेश का उल्लंघन करते हैं, तो उनका तबादला हो सकता है अगले दिन, सो उनसे डरने की क्या जरूरत?

इस गलत प्रथा को बदलने के लिए कई सरकारी समितियों ने कई बार लंबी-लंबी रिपोर्टों में सुझाव दिया हैं। रिपोर्ट तैयार होते ही लेकिन उसको दबा दिया जाता है गृह मंत्रालय की किसी अदृश्य गुफा में, जहां इस किस्म की कई और रिपोर्टें पड़ी हुई हैं। गृहमंत्री आते-जाते हैं, लेकिन आज तक किसी ने उस गुफा में से इन रिपोर्टों को निकालने की हिम्मत नहीं दिखाई है। निकालेंगे क्यों जब जानते हैं कि पुलिस में राजनेताओं का हस्तक्षेप बंद हो जाएगा तो फिर उनको इस्तेमाल करने के जरिए भी बंद हो जाएंगे। समस्या यह है कि जब तक कानून-व्यवस्था को राजनेताओं के हस्तक्षेप से सुरक्षित नहीं किया जाता, तब तक लोकतंत्र भी सुरक्षित नहीं है। समस्या यह भी है कि ऐसी स्थिति में देश के आम नागरिक भी राजनेताओं से सुरक्षित नहीं हैं। जब भी हममें से कोई कुछ ज्यादा बोलने लगता है ऊंची आवाज में, नेताजी हमारे घर पुलिस भेज कर हमको चुप करा सकते हैं झूठे आरोप लगा कर। सो, कानून-व्यवस्था का मजबूत होना हमारे हित में है, लेकिन नेताजी के हित में नहीं। कौन बदलेगा इस अजीब स्थिति को? कौन समझाएगा पुलिसवालों को कि उनका असली दायित्व हमारी सुरक्षा है?