पिछले दिनों एक गुनगुनी सुबह चुनाव की सरगर्मी देखने निकल पड़े। पर घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही, राजमार्ग पर एक मोड़ आ गया, जिससे गांव की तरफ एक पतली सी, मुरझाई हुई सड़क जा रही थी। गाड़ी उधर ही मुड़वा दी। सड़क पर टायर पड़ते ही पता लग गया कि गांव की पंचायत और सरकारी जूनियर इंजीनियर साहब लोगों के बीच अच्छी साठगांठ है। शाम को समिति की बैठक में उनके बीच खूब हंसी-ठठ्ठा होता होगा।

सड़क के दोनों तरफ सब्जी के खेत थे। एकदम ताजी सब्जियां लहलहा रही थीं। मन हुआ कि कुछ उखाड़ लें। सुबह का समय था, सो चौकीदार रात भर सोने के बाद भोर अंधेरे शायद मैदान पानी करने चला गया था। दूर-दूर तक सन्नाटा था। हां, कहीं झुरमुट से दो कुत्तों के भौंकने की आवाज जरूर आ रही थी। पर उनकी क्या परवाह थी? पालतू थे। जरा-सा पुचकारते तो वे दुम हिला देते।
‘जो उखाड़ना है, उखाड़ लीजिए। मौका अच्छा है।’ हमारे हमसफर, वरिष्ठ सहयोगी ने उकसाया।
पर हम सब्जबाग देखने में इतने मशगूल हो गए थे कि कुछ उखाड़ नहीं पाए। सोचते ही रह गए। हमारी अकर्मण्यता की वजह से चौकीदार बदनाम होने से बच गया। अब उसे चौकीदार ही चोर है की लानत नहीं उठानी पड़ेगी।
चुनाव देखने निकले थे, सो चायवाले से मुलाकत तो लाजमी थी। सुबह का समय भी था। पेट में गुबार उठ रहा था। चाय पर चर्चा से उसके निकलने की प्रबल संभावना थी। वैसे भी, चायवाले की प्रभुत्ता हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की वैदिक काल से रीढ़ रही है। ऐसा शास्त्रों में लिखा है। आदि पत्रकार नारद मुनि भी ब्रह्मज्ञान पाने के लिए चायवाले के पास ही जाते थे।
चायवाले की भट्ठी पर चाय तो उबल रही थी, पर वह उससे मुंह मोड़े देवी-देवताओं को नमो नमो कर रहा था। शायद चौकीदार ही चायवाला था, जो रात भर प्रहरी की नींद सोने के बाद, सुबह आनन-फानन अपनी असली दुकान खोलने में लगा था। थोड़ा लेट हो गया था, पर उसे परवाह नहीं थी। उसके ग्राहक पक्के थे। शायद इसीलिए कई सारे ग्राहक मुंह बाए चाय का इंतजार तो जरूर कर रहे थे, पर आश्वस्त थे कि जैसे ही चायवाले की कृपा हुई, अच्छे दिनों की पिछली कड़ी आज की कड़ी से जुड़ जाएगी।

‘हां भई, क्या चल रहा है यहां?’ हमारे उत्साही सहयोगी ने चुनावी नब्ज टटोलने के लिए अपनी उंगलियों को हवा में लहराया। वे चुनाव अनंत काल से कवर करते आए हैं और उनका कहना है कि सारा चुनाव चाय की दुकान तक ही सीमित होता है। वे कहते हैं कि क्या है कि अंग्रेज तो चले गए, पर चायवाला छोड़ गए थे। सूट-बूट की सरकार जो चलवानी थी उनको। बड़े चालू थे। सारा दोष नेहरू का है। खुद तो अचकन पहनते थे, पर जैकेट और सूट औरों को सिलवा गए। ठीक अंग्रेजों की तरह वे ‘एंटी नेशनल’ थे, राष्ट्रवादी नहीं थे।
‘क्या आप राष्ट्रवादी हैं?’ हमने चायवाले से पूछा।
‘हां, सौ फीसद।’ उसने अपना भरा-पूरा सीना ठोक कर कहा। ‘राष्ट्रवाद मेरी रग-रग में वैसे ही लहरें मारता है जैसे गंगा मैया अस्सी घाट पर सावन में हिलोरें लेती हैं। भारत माता की जय!’ उसने तुरंत नारा लगाया।
हमने औरों की तरफ देखा। ‘आप लोग भी राष्ट्रवादी हैं?’ पास बैठे कुछ लोगों ने गाय माफिक सिर हिला दिया। शायद हम जैसे शहर से आए सूट-बूट टाइप के सरकारी सांड़ों से सींग लड़ाना नहीं चाहते थे।
पर अचानक दूर बेंच से आवाज आई। ‘मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं।’
हम चौंक गए। ‘तो क्या हैं?’
‘देशभक्त।’ उसने पास आकर कहा।
‘एक ही बात हुई न?’ हमारे सहयोगी जी ने कहा।
‘नहीं।’ उसने तापक से कहा।
‘क्या फर्क है दोनों में?’
‘बहुत बड़ा फर्क है, जो मैं गांव वालों को समझाता रहता हूं।
‘मतलब?’

‘सर, मैं इस गांव में शिक्षक हूं और मैं इन्हें समझाता हूं कि राष्ट्रभक्ति सहज प्राकृतिक होती है। हममें से कौन ऐसा है, जिसे अपनी मिट्टी से प्यार नहीं है? हम सब एक ही मिट्टी की अलग-अलग पौध हैं, एक जंगल की माफिक। कोई पेड़ है, तो कोई उस पर चढ़ी बेल है। सब मिलेजुले हैं। देशभक्त इस जंगल को पूजता है, जो अपने आप उगा है, रोपा नहीं गया है। पर जब देशभक्ति से राष्ट्रवाद की तरफ हम जाते हैं तो मिट्टी के दुलार से उपजा जंगल कट जाता है। राष्ट्रवाद अलग-अलग खेत बना देता है। एक तरह की पौध एक तरफ, तो दूसरी दूसरी तरफ। बीच में बंटवारे की मेढ़। गेहूं ज्यादा बोना है, बाजरा कम। चौलाई तो उखाड़ ही फेंकनी है, क्योंकि साहब लोगों को बिलकुल पसंद नहीं है। सर, देशभक्ति खुद-ब-खुद उत्पन्न होती है, जबकि राष्ट्रवाद फसल पाने के लिए बोया जाता है। मैं अपनी बुआई नहीं चाहता हूं। स्वछंद जंगल बना रहना चाहता हूं। इसीलिए मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। ज्यादातर लोग देशभक्ति और राष्ट्रवाद को एक ही समझते हैं और उनको जानबूझ कर कन्फ्यूज भी किया जाता है। मैं इन्हें अकसर कहता हूं- अपना जंगल संभालो। राष्ट्रवाद उसे काटे लिए जा रहा है।’ नवयुवक शिक्षक की बात सुन कर हम सन्नाटे में आ गए। चाय भी खत्म हो चुकी थी। चायवाला अब पकौड़ी तलने की तैयारी में लग गया था। हम लोग गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे। एक प्रौढ़ साथ में हो गया। ‘साहब’, उसने धीरे से कहा, ‘गांव में जब चोर भैंस चुराने आते हैं, तो सबसे पहले उसके गले में बंधी घंटी उतारते हैं। फिर भैंस लेकर एक चोर पूरब दिशा में भाग जाता है। दूसरा घंटी बजाता पश्चिम दिशा में भागता है। जाग होने पर लोग समझते हैं कि चोर पश्चिम की ओर भैंस के साथ भाग रहा है, क्योंकि घंटी की आवाज उधर से ही आ रही है। जब वे उधर दौड़ते हैं तो उनके हाथ फेंकी हुई घंटी लगती है। भैंस निकल चुकी होती है।’ ‘साहब’, उसने मुस्कुरा कर कहा, ‘चोर हमें नारों की घंटी सुना कर असली मुद्दों को कभी का गायब कर चुके हैं। हमारी भैंस तो गई- अब क्या राष्ट्रवाद और क्या विकास। बस, घंटी बजा रहे हैं और आरती गा रहे हैं।’