उस दिन जब मैं सो कर उठा तो बड़ी देर हो चुकी थी। देर मेरे हिसाब से नहीं, बल्कि घड़ी के अनुसार थी। वह सुबह के दस बता रही थी, जबकि मुझे ऐसा लग रहा था जैसे अभी ब्रह्म मुहूर्त भी नहीं लगा है। वैसे घड़ी मात्र समय मापने का यंत्र ही तो है! उसकी चाबी और सुइयां हमारे हाथ में है। अभी कुछ अरसा पहले एक साहब ने बड़े कायदे से प्रदर्शित किया था कि दिल्ली में जो वक्त घड़ी दिखाती है, उसका उल्टा वक्त लंदन में होता है। उन्होंने कहा था कि लंदन का वक्त जानने के लिए अपनी कलाई में बंधी घड़ी को सिर्फ उल्टा कर लें और बस इतनी-सी हरकत से दिल्ली का वक्त लंदन के वक्त में तब्दील हो जाएगा।
उनका कहना एकदम सही था। सिर्फ दिल्ली-लंदन के बारे में ही नहीं, बल्कि हर जगह के लिए, क्योंकि समय स्थान और संदर्भ के हिसाब से पढ़ा और देखा जाता है। हम अपनी रात को लंदन या न्यूयॉर्क का दिन भी कह सकते हैं। मैं यह स्तंभ दिन में लिख रहा हूं, पर एक तरह से मैं न्यूयॉर्क की रात सियाह कर रहा हूं। शायद इसलिए मुझे देर से उठने पर लगा था कि सुबह होने में अभी वक्त है। मैं दिल्ली में लंदन हो रहा था। वैसे दिल्ली या लंदन में कैसे वक्त गुजर रहा है, उसकी गणना कोई घड़ी नहीं कर सकती है, क्योंकि समय की गुणवत्ता मानवीय कारक है। मशीन वक्त माप सकती है, पर उसको जान नहीं सकती है।
वैसे हम वक्त मशीनी तौर से बिताते हैं। सुबह से रात और फिर अगली सुबह तक हर पल बिताने से पहले हम उसको भली-भांति मापते हैं। कितनी देर सोना है, कितनी देर सुबह की चाय पीनी है, कितने वक्त में सुबह का टहलना पूरा करना है और फिर कितने बजे तक तैयार होकर घर से निकल जाना है आदि। हमें लगता है कि माप में ही सार्थकता निहित है। हम मानते हैं कि अगर हम घड़ी के साथ चल रहे हैं तो हम वक्त के भी साथ चल रहे हैं। पर घड़ी उतनी ही चल सकती है, जितनी उसमें चाबी भरी गई है (या जितनी चार्ज की गई हो)। वह आगे और पीछे भी चल सकती है या फिर ठहर भी जाती है। रुकी घड़ी को अपना कोई मलाल नहीं होता है। रुकी जिंदगी बेहद खटकती है।
अपने स्थान और संदर्भ से आगे या पीछे होने का मतलब वक्त की कदमताल से बेताल होना है। घड़ी उल्टी करके लंदन का वक्त तो पता चल सकता है, पर दिल्ली लंदन नहीं बन सकती है, न ही हम काले से गोरे हो जाते हैं या फिर दिल्ली का मौसम लंदन जैसा हो जाता है। पर लोग इस तरह का ज्ञान देने से बाज नहीं आते है। ऐसा करना उनको वाजिब लगता है और तर्कपरक भी, क्योंकि तर्क का संदर्भ उनके अतर्क से एकदम अलग होता है।
पर क्या हर बुद्धिमान व्यक्ति में एक मूर्ख छिपा होता है और क्या हर मूर्ख में एक बुद्धिमान व्यक्ति विद्यमान होता है? वैसे किसी अक्लमंद आदमी की बेअक्ली जल्द ही पकड़ ली जाती है। पर अक्लमंद होने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि वह हमेशा दिमाग से ही काम लेगा और उसकी बाती की लौ कभी फड़फड़ाएगी नहीं। कई बार ऐसा होगा कि उसका अक्ल से अनायास ही फासला हो जाए, पर इससे वह बेअक्ल साबित नहीं होता है। यह बात बेअक्ल पर भी लागू होती है। वह अचानक होशियारी कर सकता है, पर रहेगा बेवकूफ ही। हम सब बहुत होशियार हैं।
हमारा समाज भी ऐसा है कि हम गर्व से अपना जयघोष करते रहते हैं। पर क्या ऐसा वास्तव में है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि बुद्धिमता के दिवास्वप्न में हम जी रहे, जबकि हम दिन-ब-दिन तर्कनिष्ठ व्यवहार से किनारे होते जा रहे हैं? अगर एक तरह से देखा जाए तो पिछले कुछ सालों में ‘वाट्सऐप यूनिवर्सिटी’ की शागिर्दगी जिस तरह से बढ़ी है, उससे तर्कहीन मेधा का विकास साफ नजर आता है। हम मानें या न मानें, पर हम बुद्धिमता से बुद्धिहीनता की ओर सरपट फिसलते जा रहे हैं।
भारत में वैज्ञानिक प्रवृत्ति का चलन आदि काल में ही समाप्त हो गया था। हमने गंभीर अध्ययन करना तभी से बंद कर दिया था और सिर्फ अनुमान लगाने में विशेषज्ञ या कुशल हो गए थे, क्योंकि हमारा दावा है कि ज्ञान तो सब हम हजारों वर्षों पहले ही पा चुके थे! ऐसी स्थिति में आज के हालात जानने के लिए हमारे पास पश्चिमी देशों में हो रहे शोध पर निर्भर होने के अलावा कोई और चारा नहीं है। इन अध्ययनों से हम अपने हालात का मोटा-मोटा अंदाजा लगाने के लिए मजबूर हैं।
यों अब यह जगजाहिर है कि तर्कनिष्ठ व्यवहार और संवाद लगातार घट रहा है और हम हर मुद्दे के अति सरलीकरण में जुटे हुए हैं। हम संकल्पना और व्यावहारिक जटिलता से मुंह चुराने लगे हैं। शायद हमारी रोशन-खयाली का बल्ब फ्यूज हो गया है और इसीलिए अतीत की अंधेरी गुफाओं में हमें जेहनी आराम मिलने लगा है। अगर हम सभ्यतागत प्रतिलोम को अपनी उपलब्धि मान रहे हैं तो हमसे ज्यादा और कौन कम दिमाग हो सकता है?
मैं देर से जब सोकर उठा था तो शायद इसी अंदाज में मेरा वक्त जाया हो चुका था। वक्त कुछ और था, भोर घोर सुबह में बदल चुकी थी, पर मेरा एहसास ऐसा था, जैसे ब्रह्म मुहूर्त भी अभी शुरू नहीं हुआ है। मैं गलत था, पर कलाई की घड़ी को सही तरीके से देखने और अपना वक्त पहचानने के बजाय अपने को सही ठहराने पर आमादा था। घड़ी को उलट कर देखने का तर्क दे रहा था। दिल्ली और लंदन में अपने को अटकाए हुए था। सुबह की धूप को पहचानने से इनकार कर अपने को सिर्फ सही साबित करने पर तुला था या फिर अपनी अकड़ में था। समाज, व्यक्ति की तरह अपनी अकड़ में जब वक्त को झुठलाने लगता है, कुतर्क को सत्य वचन कहलाने पर अड़ जाता है तो वह पतन को शीघ्र प्राप्त होता है।
