दुनिया बिखर रही है। तार-तार हो रही है। एक तरफ राष्ट्रवादी ताकतें प्रचंड होती जा रही हैं, तो दूसरी तरफ उदारवादी (लिबरल) विचारधारा फिर से एकजुट होकर इन तथाकथित फासिस्ट और कट्टरवादियों को सीधा मुकाबला देने पर अमादा है। विश्व मंच पर यह टकराव पिछले एक साल से लगातार सुर्खियों में है। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी, ग्रीस, साइप्रस, इराक, ईरान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, कतर, तुर्की, सीरिया, मिस्र, पाकिस्तान, पूर्व सोवियत संघ के कुछ हिस्से और यहां तक कि भारत भी इस संघर्ष की गिरफ्त में है। लड़ाई विचारधारात्मक है और जिस्मानी भी। जहां एक तरफ अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड टंÑप की राष्ट्रवादी नीतियों के खिलाफ देशव्यापी अभियान चल रहा है, जिसमें लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हैं, वहीं दूसरी ओर मध्य पूर्व एशिया के तमाम देश, जैसे सीरिया, लगभग खंडर हो गए हैं। इस भूभाग से बड़े स्तर पर पलायन हुआ है और आज भी हो रहा है और इस भयावह विस्थापन का कारण कुछ देशों का कट्टरवाद और आतंकवाद के खिलाफ खोला गया मोर्चा है।
अगर देखा जाए तो विश्व समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज बुरी तरह से बंट गया है। जहां गोला-बारूद से संघर्ष नहीं हो रहा, वहां पर आपसी कड़वाहट अपने चरम पर है। दक्षिणपंथ को वामपंथ फूटी आंख नहीं सुहाता और उदारवादी वाम राष्ट्रवादी विचारधारा को इंसानियत पर एक बदनुमा धब्बा समझता है। आपसी सलाह-मशविरा या भाईचारे की इन दोनों गुटों के बीच कोई गुंजाइश नहीं है। अमेरिका में टंÑप हों, फ्रांस में ली पेन्न, इंग्लैंड में थेरेसा मे, रूस में पुतिन या फिर कोई और, हर तरफ ‘हम’ और ‘वह’ के बीच के फासले बढ़ाने की कोशिशें पूरे जोर-शोर से हो रही हैं। राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ मानता है कि उनके लोगों और उनके देश को अपने अस्तित्व को बचाना इसीलिए मुश्किल हो गया है कि उदारवादी वामपंथ की सरकारों ने ‘अपने’ लोगों की जगह ‘दूसरों’ को अपनाया था। इसकी वजह से स्थानीय लोगों की एक तरफ तो आर्थिक स्थिति खराब हुई और दूसरी तरफ ‘नए’ लोगों ने आतंकवाद को अपने आंगन में पनापने की सुविधा दी।
दक्षिणपंथ का मुद्दा एक तरफ तथाकथित रूप से सांप्रदायिक है, तो दूसरी तरफ उन सभी आर्थिक और व्यापार व्यवस्थाओं के खिलाफ भी है, जो कि पिछले पचास सालों में सरकारों ने स्थापित किया है। इसको नियो लिबरल (नवउदार) विचारधारा के अंतर्गत स्थापित किया गया था। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और यूनाइटेड किंगडम की प्रधानमंत्री माग्रेट थैचर इसके मुख्य संस्थापक थे। नवउदारवादी अर्थशास्त्र सत्तर और अस्सी के दशक में खूब पनपा। निजीकरण, स्वतंत्र व्यापार, अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को हर स्तर पर बढ़ावा दिया गया और सर्वजनिक उपक्रमों को या तो बंद कर दिया गया या फिर अपने हाल पर छोड़ दिया गया। निजी उद्योग अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने के लिए अपने भौगोलिक हलके से बाहर निकल कर उन स्थानों पर पहुंच गए, जहां उत्पादन की कीमतें न्यूनतम थीं। इन आर्थिक नीतियों के चलते एशिया के लगभग सभी देशों को बड़ा फायदा हुआ। उदाहरण के तौर पर भारत के इंजीनियर अमेरिका में बसने लगे या फिर बंगलुरु और पुणे में बड़े सूचान प्रौद्योगिकी के हब बन गए। नब्बे के दशक में जो आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ, उससे दर्जनों बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में स्थापित हो गर्इं। वास्तव में 1991 से लेकर आज तक विभिन्न भारतीय सरकारें वह कर रही हैं, जो नवउदारवादी विचारधारा उनसे करवाना चाहती थी।
कुछ लोग नवउदारवाद को एक साजिश के रूप में भी देखते हैं। उनका कहना है कि आर्थिक उदारीकरण का दौर आम लोगों की बेहतरी के लिए नहीं शुरू किया गया था, बल्कि शक्तिशाली बैंकों का बड़ा मुनाफा कमाने का विश्व स्तरीय षड्यंत्र था, जो आज भी फल-फूल रहा है। इसके तहत आम लोगों की पूंजी का व्यापक और योजनाबद्ध तरीके से एक छोटे से गुट को हस्तांतरण हुआ। भारत में ही आज देश के एक प्रतिशत अमीर तिरपन प्रतिशत धन पर काबिज हैं। मात्र सत्रह, पहले वे छत्तीस प्रतिशत के मालिक थे। दूसरे शब्दों में, सत्रह सालों में सत्रह प्रतिशत धन आम लोगों की जेब से निकल कर रईसों की तिजोरियों में भर गया। अमेरिका और विश्व के लगभग सभी देशों में ऐसा ही हुआ है। अमीर बेहताशा तरीके से और धनवान होते जा रहे हैं और आम लोग पाताल की गहराइयां नाप रहे हैं। साथ ही मुनाफा बनाए रखने के लिए जरूरी है कि प्राकृतिक और मानवीय संसाधन पर सेठों की पकड़ बनी रहे। अमेरिका और सहयोगी देशों का इराक पर हमला या फिर अफगानिस्तान में हस्तक्षेप इसी प्रक्रिया के उदाहरण हैं, जिसका परिणाम आतंकवाद और कट्टरपंथ का उभार है। इन हालात से उत्पन्न राजनीतिक और सामाजिक बेचैनी को राष्ट्रवादी भुना रहे हैं। विश्व एकीकरण के बजाय वे प्रत्येकीकरण चाहते हैं। अपनी-अपनी दीवारें बनाना चाहते हैं, जिसकी ओट में छिप कर वे अपनी महानता का गुणगान कर सकें। हो सकता है कि अतिउदारवाद का टोटका कठोरतावाद हो, पर यह मर्ज का स्थायी इलाज नहीं है।
वास्तव में आज हमारे आपके सामने और पूरी दुनिया के सामने एक भयावह स्थिति मुंह बाए खड़ी है। नवउदारवादी नीतियों से अगर नुकसान हुआ है, तो फायदे भी हुए हैं, हालांकि सुधार वक्त की मांग है। कठोरतावाद का राष्ट्रवादी चोगा इसका विकल्प नहीं है, क्योंकि यह अधकचरी सोच है, जिसको पहन कर अपरिपक्व प्रवक्ता भाषणबाजी कर रहे हैं और दुनिया भर में इन भाषणों पर लोग कान दे रहे हैं। यह उनकी मजबूरी है, क्योंकि अनियंत्रित उदारवाद की वजह से असुरक्षा हर दिल में बस गई है और राष्ट्रवाद उनको अपने निजी कमरों में कैद कर के सुरक्षा का आश्वासन देता है। यह अपने में एक बड़ी विडंबना है। पिछले दो हजार सालों में दुनिया खुली है। हम और आप एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे बढ़े हैं, मजबूत हुए हैं। यही एक सरल और प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिससे हम खुशहाली का रास्ता कुछ हद तक ढूंढ़ पाए हैं। पर आज हम उस मुकाम पर खड़े हैं, जहां से आगे राष्ट्रवादी सिपाही कांटे की बाड़ लगाने के लिए आतुर हैं। उनसे भिड़ना जरूरी नहीं है और न ही उदारवादियों से उलझना है। नई पगडंडी तलाशना बेहद जरूरी है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो निकट भविष्य में रेशा-रेशा हुई दुनिया को भयानक परिणाम भुगतने होंगे।
नवउदारवादी नीतियों से अगर नुकसान हुआ है, तो फायदे भी हुए हैं, हालांकि सुधार वक्त की मांग है। कठोरतावाद का राष्ट्रवादी चोगा इसका विकल्प नहीं है, क्योंकि यह अधकचरी सोच है, जिसको पहन कर अपरिपक्व प्रवक्ता भाषणबाजी कर रहे हैं और दुनिया भर में इन भाषणों पर लोग कान दे रहे हैं।

