बुलावा आवा है।
तो ई कौनो नई बात है! तोहर गठरी तैयार है। लादो और निकल लो।
बा (यानी कस्तूरबा गांधी) कमरे से निकलीं और गांधीजी को गठरी थमा दी। बापू ने एक पल बा की ओर देखा और फिर गठरी कंधे पर लटका ली। हमने दौड़ कर उनकी लाठी उठाई और हाथ में दे दी।
बापू बोले, अच्छा पंडित, हम जाऊं? बाहर अंगरेज इंस्पेक्टर बहुत देर से खड़ा है।
बापू तनिक रुक जाओ। हम दौड़ कर रिक्शा ले आते हैं।
बापू मुस्कराए, पंडित फटाफट निकलना है।
हम यों गए और यों आए बापू। तब तक आप अंगरेज से बतियाए।
हम एक मिनट में रिक्शा ले आए। अंगरेज बापू से कह रहा था कि उनको पुलिसिया जीप में ही चलना होगा, क्योंकि आप अब गिरफ्तार हो चुके हैं। बापू ने हमरी ओर देखा। हम बिफर गए। अंगरेजी में इंस्पेक्टर को समझा डाला कि बापू रिक्शा में ही जाएंगे। पुलिस चाहे तो रिक्शा के अगाड़ी या पिछाड़ी अपनी जीप लगा सकती है। अंगरेज ने बीच में हमें टोका, कहा ये पॉसिबल नहीं है मिश्रा जी। आप तो सब जानते हैं, फिर भी ऐसी रिक्वेस्ट कर रहे हैं।
पर हम कहां मानने वाले थे। कांग्रेसी जो ठहरे। अपने घर से बापू को कैसे पुलिसिया जीप में विदा करते। हम भिड़ गए। बापू बेचारे गठरी-लाठी लिए इंतजार करते रहे। पंद्रह मिनट बाद तय हुआ कि गांधीजी हमारे घर से रिक्शा पर निकलेंगे और फिर चौराहे से जीप में सवार हो जाएंगे, पर चूंकि हम रिक्शा सेंट्रल जेल तक का लेकर आए थे, तो चौराहे से हम उस पर बैठ जाएंगे- बेचारे रिक्शा वाले की बोहनी क्यों खराब करें? हम कांग्रेसियों का कल्चर ऐसा ही था। एक बोहनी दो, सौ जय-जयकार पाओ। पब्लिक में हवा बनाए रहो। बापू से सीखा था।
पंडितजी यानी सत्यव्रत मिश्रा ने किस्सा खत्म किया और चश्मा उतार कर आखें मलीं।
बापू ऐसी हिंदी बोलते थे? बुलावा आवा है कहते थे? हमने पूछा।
और कैसन बतियाएंगे? पढ़े-लिखे थे। बैरिस्टर थे। क्या पूछते हो भई। अहमक हो क्या?
मिश्रा जी सत्तर साल के थे या नब्बे के, किसी को पता नहीं था। घरवालों को भी नहीं। स्वतंत्रता सेनानी के बेटे थे, पर पिता को गुजरे हुए अरसा हो चुका था। उनके साथी रिश्तेदार और दोस्त भी संसार त्याग चुके थे। अपनी पीढ़ी के अब वे अकेले थे। हम लोग उनके पौत्र के दोस्तों में से थे और बाउजी आते-जाते अपनी किस्सा-कहानी सुना दिया करते थे। कांग्रेसी कल्चर से जान-पहचान उन्हीं की मार्फत हुई थी।
गांधीजी कभी उनके घर आए थे की तस्दीक उनके परिजन भी नहीं करते थे, पर पंडितजी किस्से पर किस्सा सुनाते नहीं थकते थे। हवा बनाए हुए थे।
यहीं, हां यहीं, इसी आंगन में बबुआ, बापू बैठे चरखा कात रहे थे सुबह-सुबह और हम कमरे से निकले। हमने चरण स्पर्श किए। बापू ने आयुष्मान भव कहा। देखो हम कान्यकुब्जी ब्राहमण हैं और बापू वैश्य, कायदे से उन्हें हमारे पैर छूने चाहिए थे, पर सही आदमी के पैर छूने में हमको कोई हिचक नहीं है। कांग्रेस कल्चर यही है। सही आदमी के पैर छुए रहो।
पंडितजी थे न अपने- जवाहरलाल- पिताजी से मिलने घर आए। हमको देखा तो कहा सांड़-से घूम रहे हो या कुछ करते भी हो?
चच्चा, हम का करी ये ससुर आइसीएस वाले फेल कर दिए। कलेक्टर-कमिश्नर तो बन नहीं पाएंगे, सो मुंसिफ का इंतिहान दिया था। कल ही पता चला है कि उसमें भी लटक गए हैं।
पंडितजी ने हमारी पीठ पर हाथ रखा और कहा: कौनो चिंता नहीं। हम गोविंद (बल्लभ पंत, जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे) से बतियाते हैं। दो दिन बाद सरकार का हरकारा आ गया, बोला: मिश्रा जी तुरंत चलो आपको पंतजी ने टेलीफोन आॅपरेटर बना लिया है। मुख्यमंत्री पीबीएक्स पर बैठो और उनके फोन मिलाओ।
इस तरह मिली हमको नौकरी। हम जानते थे कि जब जवाहरलाल अपने चच्चा हैं तो मन काहे को घबराना? रिश्तेदारी, जान पहचान, पैर छुऔवल कांग्रेसियों के संस्कार हैं, पार्टी कल्चर है। भाड़ में गई मुंसफी, चचा ने सीधे मुख्यमंत्री के बराबर बैठा दिया। सही जगह पर तो बहुत लोग पहुंच जाते हैं, पर उसका सही इस्तेमाल सिर्फ एक अच्छा संस्कारी कंग्रेसी ही कर सकता है। हमने वहां बैठ कर अपने खूब तार फैलाए!
पंतजी और जवाहर चचा जब भी बात करते हम जरूर सुनते। अपनी अंगरेजी जो सुधारनी थी। फोन लगते ही जवाहरलाल कहते: आई कॉमा जवाहरलाल नेहरू कॉमा प्राइम मिनिस्टर आॅफ इंडिया कॉमा स्पीकिंग, फुल स्टॉप। पंतजी उत्तर देते: गुड मोर्निंग कॉमा प्राइम मिनिस्टर फुल स्टॉप। दोनों इसी तरह पूरी बात करते, विराम और अल्प विराम के साथ। हम उनसे खूब अंगरेजी ग्रामर सीखे। एक दिन पंडित जी एक सेंटेंस बोले और फिर कहा सेमी कोलन। हमसे न रहा गया और हमारे मुंह से निकल गया, नहीं चचा सेमी कोलन नहीं, कोलन। जवाहरलाल हड़बड़ा गए: यू ब्लडी मिश्रा, यू आर ओवर हियरिंग अस! उन्होंने फोन पटक दिया। हम दौड़ कर पंतजी के पास गए और पैर पकड़ लिए। ब्राह्मण थे, सो कैसे ब्राह्मण को दंडित करते। फोन से हटा कर सचिवालय प्रशासन का बड़ा बाबू बना दिया। सारे कलेक्टर-कमिश्नर दंडवत करने आते थे- सबकी फाइल जो हमारे पास थी! और हम जाते ही पता क्या किए? अपनी कुर्सी छोड़ सारी कुर्सियां हटवा दिए! उनकी जगह स्टूल लगवा दिए- अब आओ ससुर, बैठो स्टूल पर बड़े बाबू के आगे। जिले में अपनी कुर्सी पर बड़ा इतराते हैं साले! माना हम फेल हो गए थे, पर हैं तो ब्राह्मण बुद्धि। हमसे न जीत पाओगे।
एक बार चंद्रभानु गुप्ता सीएम थे और चरण सिंह नया-नया मंत्री बने थे। आदेश भेज दिया कि स्याही बदलो, मुझको कुइंक इंक नहीं चाहिए, वाटरमैन चाहिए। अब हम तीन-तीन किताबें, जिन पर सरकार ने पांच-पांच हजार पुरस्कार दिया, कुइंक से ही लिखे थे, तो क्यों बदल दें? हमने मना कर दिया। जाट भड़क गया। फिर आदेश भेजा, हमने फिर मना कर दिया, तो वो गुप्ताजी के पास चला गया। गुप्ताजी बोले चौधरी, मिश्रा से मत उलझ, मेरे से दो रुपैया ले ले और अपनी स्याही मंगवा ले। पर वो नहीं माना। सीएम के यहां से आदेश करा दिए। अब भला ये बागपत का चौधरी क्या जाने कांग्रेस सरकार कैसे चलती है! ब्राहमण विवेक वो क्या जाने?खैर, हमने मुख्यमंत्री को लिखा, एक देसी स्याही है और चौधरी ने विदेशी चाही है। नीतिगत देसी उत्पादन ही खरीदा जा रहा है, पर मुख्यमंत्री चाहें तो चौधरी की सदारत में सचिवों की कमेटी बना दें, जो विदेशी माल न खरीदने की नीति को बदल दे। चौधरी फंस गया। हमारा कुइंक स्याही से लिखा नोट चालीस साल से सचिवालय में पड़ा है, कोई कमेटी नहीं बनी। कांग्रेसी ब्राह्मण से कोई पार पा सकता है भला?

