हिजाब का विरोध पुराना है ईरान में, लेकिन महसा अमिनी नाम की बाईस साल की लड़की की मौत के बाद इस विरोध ने क्रांतिकारी का रूप ले लिया है। महसा की मौत हुई थी जब वह इस्लाम के पहरेदारों की गिरफ्त में थी। ये लोग घूमते हैं तेहरान की सड़कों पर उन लड़कियों की खोज में, जिन्होंने अपने हिजाब और बुर्के ठीक से नहीं पहने होते हैं।
महसा को पकड़ कर इन इस्लाम के रखवालों ने अपनी गाड़ी में घसीट लिया। गवाह उसका भाई था, जो उसके साथ था उस समय। उसका कहना है कि गाड़ी के अंदर उसकी बहन को पीटा गया, जिससे वह बेहोश हो गई और अस्पताल में कुछ घंटों बाद उसकी मौत हो गई थी।
महसा प्रतीक बन गई है ईरानी महिलाओं के हिजाब के खिलाफ इस आंदोलन की। दुनिया भर की औरतें ईरानी औरतों के पक्ष में आवाज उठा रही हैं, लेकिन अपने भारत महान में हाल यह है कि ज्यादा आवाज उठ रही है हिजाब पहनने के हक को लेकर। याद कीजिए कि कर्नाटक में शुरू हुआ था यह आंदोलन, जब शिक्षा संस्थाओं में हिजाब पर पाबंदी लगाई गई थी।
इस आदेश का विरोध शुरू किया कोई पांच-छह लड़कियों ने, जिनके बारे में बाद में मालूम हुआ कि उनका सीधा रिश्ता था उस जिहादी संस्था पापुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआइ) के साथ। इसमें कोई शक नहीं कि इन लड़कियों के पीछे कई बड़ी ताकतें थीं, क्योंकि उनका विरोध शुरू होते ही देश के कई शहरों में बुर्का पहनी महिलाओं के बड़े-बड़े जुलूस निकले हिजाब का ‘संवैधानिक’ अधिकार मांगने।
पिछले सप्ताह पीएफआइ के कई नेता गिरफ्तार हुए हैं और छापे पड़े हैं उनके दफ्तरों और घरों पर। अच्छी बात है कि गृह मंत्रालय हरकत में आ गया है, लेकिन यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, इसलिए कि पीएफआइ का एक ही मकसद है और वह है भारत में इस्लाम को कट्टरपंथी शक्ल देना और आम मुसलमानों में जिहादी विचारधारा के बीज बोना।
हिजाब को इस संस्था ने अपनी जिहादी विचारधारा फैलाने के लिए बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया है और उनके चुंगल में मुसलिम महिलाओं के अलावा फंस गए हैं कई वामपंथी बुद्धिजीवी और राजनेता। सोशल मीडिया पर खूब हल्ला मचाया है ऐसे लोगों ने, यह साबित करने के लिए कि हिजाब जबर्दस्ती नहीं पहनाया जाता है महिलाओं को, जो पहनती हैं वे अपनी मर्जी से पहनती हैं।
जब उनसे पूछा जाता है कि यह सच है, तो छोटी बच्चियां क्यों दिखती हैं हिजाब और बुरका पहने हुए, उनके पास इसका जवाब नहीं होता है। फिर भी हल्ला मचाए जाते हैं मानवाधिकारों के ये तथाकथित सिपाही।
इनकी बातें (और गालियां) सुनने के बाद मुझे याद आई भारत में 1987 में हुई वह अंतिम सती रूप कंवर, जो अठारह बरस की थी, सीकर जिले के देवराला गांव में। रूप कंवर पढ़ी-लिखी थी और उसकी शादी को सिर्फ आठ महीने हुए थे। इस सती का समर्थन किया था कई पढ़ी-लिखी महिलाओं ने, जिनमें एक दो राजमाताएं भी थीं, जो खुद विधवा थीं।
विरोध अगर किया तो अनपढ़ औरतों ने, जिन्होंने इंडिया गेट पर एक आमसभा में भाग लेते हुए कहा कि अगर महिलाओं के लिए सती होना अनिवार्य है, तो मर्दों के लिए भी होना चाहिए। मैं जार्ज फर्नांडीज द्वारा बुलाई गई उस सभा में मौजूद थी और आज भी याद हैं मुझे एक दलित महिला के कहे शब्द- ‘हमको बताया जा रहा है कि सती होना हमारे शास्त्रों में लिखा है। अगर ऐसा है तो मैं कहती हूं कि इन शास्त्रों को जला देना चाहिए।’
हर मजहब, हर धार्मिक परंपरा में ऐसी कुछ चीजें हैं, जो गलत हैं। ये अक्सर ऐसी चीजें हैं जो सिर्फ महिलाओं के लिए अनिवार्य मानी जाती हैं, मर्दों के लिए नहीं। इन चीजों का समर्थन करने के बदले इनको निकाल देने के लिए आवाज उठनी चाहिए। हैरान होती हूं मैं जब पढ़ी-लिखी, अपने आप को तरक्की पसंद कहने वाली महिलाएं हिजाब के पक्ष में आवाज उठाती हैं।
भारत में जिन मुसलिम महिलाओं को लगता है कि हिजाब और बुर्का वे अपनी मर्जी से पहनती हैं, उनको अपने पड़ोस में ईरान और अफगानिस्तान की तरफ नजर उठा कर देखना चाहिए कि कितना अत्याचार हो रहा है महिलाओं पर इन चीजों को लेकर। ऐसा करने के बाद उनको उन ईरानी महिलाओं के साथ अपनी आवाज जोड़नी चाहिए, जो अपनी जान को दांव पर लगा कर अपने हिजाब उतार कर जला रही हैं टीवी पत्रकारों के सामने।
इतना गुस्सा है अब ईरान में अपने धार्मिक गुरुओं और तथाकथित धार्मिक पहरेदारों के खिलाफ कि कई लोग कहने लगे हैं कि एक नई क्रांति शुरू हो गई है ईरान में उस तसद्दुत के खिलाफ जो महिलाओं ने बर्दाश्त किया है, जबसे अयातुल्ला खोमैनी के नेतृत्व में इस्लाम के नाम पर क्रांति हुई थी 1979 में।
भारत में मुसलिम महिलाएं कैद हैं दकियानूसी सोच में, तो उनसे उम्मीद रखना शायद बेकार होगा, लेकिन जो वामपंथी महिला राजनेता कहती फिर रही हैं आजकल कि हिजाब का कानूनी अधिकार मिलना चाहिए, इसलिए कि यह फैसला औरतें खुद लेती हैं अपनी इच्छा से, उनको शर्म आनी चाहिए। जानती हैं अच्छी तरह कि औरतों को पर्दे में रखने के फैसले मर्द लेते हैं, फिर भी इस तरह की बातें कर रही हैं।