बहुत साल पहले ओलंपिक में भारत की लगातार विफलताओं के बारे में मेरी बातचीत हुई थी हेमवती नंदन बहुगुणा से। दिल्ली में उनकी सरकारी कोठी मेरे घर से दूर नहीं थी, तो अक्सर उनसे मिलने जाया करती थी राजनीति के दांव-पेच सीखने। उस समय के कद्दावर राजनेताओं में माने जाते थे बहुगुणा जी, इसलिए कई राजनीतिक पंडितों को दुख हुआ जब राजीव गांधी की चतुर चाल की वजह से उनको इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन ने हराया था। मैं राजनीति के बारे में बहुत कम जानती थी उन दिनों और उनसे इन मुलाकातों में मैंने बहुत कुछ सीखा।
उस दिन खेलकूद की चर्चा शायद इसलिए हुई कि एक बार फिर हमारे खिलाड़ी ओलंपिक से खाली हाथ लौट कर आए थे, जैसे अक्सर हुआ करता था उस दौर में। हार के कारण हमारे शासक जानने की कोशिश भी नहीं किया करते थे, इसलिए कि ओलंपिक का मजा हमारे राजनेता और आला अधिकारी खुद लेना पसंद करते थे। याद है मुझे कि भारत की टीम में खिलाड़ी कम और अफसर ज्यादा हुआ करते थे। याद है मुझे कि कितना गुस्सा आता था हमको जब वे टीम के साथ भारत की वर्दी पहने ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में स्टेडियम का चक्कर लगाया करते थे।
उस दिन जब बहुगुणा जी के साथ मुलाकात में मैंने ओलंपिक में भारत की लगातार विफलताओं की बात शुरू की तो उन्होंने एक बात कही, जो अभी तक महत्त्व रखती है। उन्होंने कहा कि पहली गलती यह है कि शहरी मध्यवर्ग में ही अक्सर चैंपियन खोजे जाते हैं। उनका कहना था कि गांवों में अगर इस खोज को हम गंभीरता से शुरू करेंगे तो हर गांव में मिलने लगेंगे ऐसे बच्चे जो किसी न किसी खेल में हुनर रखते हों। मिसाल दी उन्होंने उन बच्चों की, जो पुरानी इमारतों की बावड़ियों में दो तीन रुपयों के लिए डुबकियां मारते हैं।
इसी तरह देहातों में अक्सर बच्चे छोटी उम्र में ही घुड़सवारी सीख जाते हैं और कई दूसरे खेल भी। इन बच्चों को अगर प्रशिक्षण मिले उस तरह जैसे रूस, चीन और अमेरिका में मिलता है तो भारत उन देशों में शीघ्र ही पहुंच जाएगा, जो सबसे ज्यादा पदक हासिल करते हैं हर ओलंपिक में।
उन देशों के सरकारी स्कूलों में जब कोई बच्चा किसी खेल में जरूरत से ज्यादा हुनर दिखाने लगता है, उसको पहचान लिया जाता है और उसका प्रशिक्षण शुरू हो जाता है। अगर वह शिक्षा में थोड़ी लापरवाही भी दिखाने लगता है, तो उसको बख्श दिया जाता है, ताकि अपने प्रशिक्षण में वह ध्यान दे सके। जब तक वह पंद्रह-सोलह साल का होता है तो उसकी काबिलियत देख कर उन देशों की ओलंपिक समितियां उसे तैयार करने लगती हैं अगले ओलंपिक के लिए। हमारे भारत महान में आज तक इस तरह कुछ नहीं होता है। और तो और, हमारे गांवों में न खेल के मैदान अच्छे होते हैं, न स्टेडियम।
हां, ये जरूर अब हो गया है कि क्रिकेट, बाक्सिंग और पहलवानी में अब ऐसा होने लगा है, लेकिन यह भी इतनी लापरवाही से कि हमारे कई खिलाड़ी आज भी असली प्रशिक्षण लेने विदेश जाते हैं और विदेशी कोच रखते हैं उनको नई ऊंचाइयों तक पहुंचने में सहायता करने के लिए। अब बड़े शहरों में क्रिकेट के आलीशान स्टेडियम तैयार हो गए हैं, लेकिन यह हुआ है तबसे जब आइपीएल शुरू होने के बाद भारत दुनिया का क्रिकेट केंद्र बन गया है।
क्रिकेट में जो हमने सफलता पाई है, वह हर खेल में आसानी से हमको मिल सकेगी, अगर हर राज्य में खेलमंत्री अपना काम ईमानदारी और गंभीरता से करने लगेंगे। हरियाणा में ऐसा हुआ है कुछ वर्षों से, सो कोई संयोग नहीं है कि हरियाणा से हमारे सबसे अच्छे और सबसे ज्यादा खिलाड़ी निकलते हैं। केरल में एथलेटिक्स पर काफी ध्यान दिया जाता है, तो वहां भी थोड़ी-बहुत सफलता दिखती है, लेकिन अब भी हम अपने चैंपियन उस तरह नहीं तैयार करते हैं, जैसे वे देश करते हैं, जो सोने के पदकों के थैले लेकर लौटते हैं हर ओलंपिक के बाद।
पिछले सप्ताह जब ओलंपिक की मशाल पेरिस पहुंची इस साल के खेलों की शुरुआत के लिए, हमारे कुछ राजनेताओं ने कहा कि 2037 के ओलंपिक के लिए भारत को दावा करना चाहिए। अच्छी बात है यह, लेकिन साथ में क्यों नहीं कहते हैं कि अगले दशक में हर गांव में खेलकूद के स्टेडियमों का निर्माण भी होना चाहिए, ताकि इस सपने को हम साकार होते देख सकें। हमसे छोटे देश हमसे ज्यादा स्वर्ण पदक जीतते हैं सिर्फ इसलिए कि उनके शासकों ने खेलकूद की जो महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है, उसमें निवेश किया है। ये काम सिर्फ सरकारें कर सकती हैं। निजी क्षेत्र में कुछ बड़े उद्योगपति हैं, जिन्होंने किसी एक या दो खिलाड़ियों को तैयार करने में पैसे लगाए हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर निवेश कोई निजी संस्था नहीं कर सकती है। आइपीएल भी संभव न होता, अगर सरकारों की क्रिकेट संस्थाओं ने इसमें शामिल होने का काम न किया होता।
इस बार बड़ी उम्मीदों के साथ हम भेज रहे हैं कुछ ऐसे खिलाड़ी, जो हम मानते हैं कि दुनिया के बेहतरीन खिलाड़ियों को मुकाबला दे सकेंगे, लेकिन इनकी गिनती अभी भी बहुत थोड़ी है। मैं जब सोचती हूं कि एक सौ चालीस करोड़ लोगों के इस देश में हम आज तक सिर्फ दो बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीते हैं तो शर्म आती है और गुस्सा भी। शर्म तब भी आती है जब एक भी स्वर्ण पदक मिलने पर हम ऐसे पागल हो जाते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया हो। लंबा और कठिन है इससे आगे बढ़ने का रास्ता, लेकिन अभी तक उस पर हमने चलना भी शुरू नहीं किया है। अभी भी वह जोश, वह तैयारी नहीं दिखती है राष्ट्रीय स्तर पर।