यह जानते हुए कि मोदी सरकार के तीन सालों का विश्लेषण इतने सारे राजनीतिक पंडित कर चुके हैं कि आप ऊब गए होंगे पढ़-पढ़ कर। सच पूछिए तो मैं खुद ऊब गई हूं, लेकिन क्या करूं, कुछ तो कहना पड़ेगा इस तीसरी वर्षगांठ पर। मगर फिक्र न करें, मैं इस लेख को थोड़ा मसालेदार बनाऊंगी, सिर्फ मोदी सरकार की नाकामियों की तरफ ध्यान दिलाऊंगी। हालांकि कई क्षेत्रों में मोदी सरकार ने बहुत कुछ नया करके दिखाया है, सो ऐसा नहीं कि कोई उपलब्धि नहीं रही है। मेरी राय में मोदी की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि जिस घनी मायूसी को उन्होंने 2014 में विरासत में पाया था, उसको दूर करने में बहुत सफल रहे हैं। याद कीजिए उस मंदी को, जो अर्थव्यवस्था पर छाई हुई थी सोनिया-मनमोहन सरकार के दस वर्ष के शासनकाल के बाद? याद कीजिए, कितने मायूस थे हम घोटालों के उस अनंत मौसम में। याद कीजिए, कितना अजीब लगता था उस समय जब भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री साबित करते थे बार-बार कि महत्त्वपूर्ण फैसले वे सोनिया गांधी की मर्जी के बिना नहीं ले सकते हैं! सो, परिवर्तन आया है और विकास भी हुआ है, वरना मोदी के नाम पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में इतनी शानदार जीत न हासिल होती भारतीय जनता पार्टी को।
इन चीजों के बावजूद मेरी राय में तीन ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अब भी मायूसी छाई हुई है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है शिक्षा का क्षेत्र। बहुत अफसोस की बात है कि अभी तक मोदी सरकार की तरफ से कोई नई शिक्षा नीति नहीं बनी है। बिना नई नीति के परिवर्तन लाना असंभव है, क्योंकि उच्च शिक्षण संस्थाओं में सरकारी अधिकारियों का इतना दखल है कि एक लाइसेंस राज कायम हो चुका है दशकों पहले, जिस पर कब्जा सरकारी अफसरों का ज्यादा है और शिक्षकों का कम। इस ढांचे को बदलना वैसे भी आसान नहीं है, लेकिन और भी मुश्किल तब हुआ जब शिक्षा को प्रधानमंत्री ने स्मृति ईरानी के हवाले किया पूरे दो वर्ष तक। स्मृतिजी छोटे-मोटे झगड़ों में उलझी रहीं, सो कभी उनको अपनी बड़ी जिम्मेदारियों को समझने की फुर्सत ही नहीं मिली। उनको विदा किया तो मोदी ऐसे व्यक्ति को लाए उनकी जगह, जो शायद परिवर्तन लाने से घबराते हैं, क्योंकि स्मृतिजी के समय इतने सारे फिजूल के हंगामे हुए थे, जिनके कारण मंत्रालय सुर्खियों में गलत चीजों के लिए रहा। समस्या यह है कि कुछ किए बिना काम नहीं चलेगा, क्योंकि वर्तमान स्थिति यह है कि भारत के अधिकतर विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं। हर वर्ष सूची छपती है, जिसमें भारतीय शिक्षण संस्थाओं का नाम तक नहीं होता।
दूसरी महाविफलता मोदी सरकार की रही है शहरीकरण के क्षेत्र में। प्रधानमंत्री बनने के पहले मोदी खुद ध्यान दिलाते थे कि 2050 तक आधे से ज्यादा भारतवासी शहरों में बस जाएंगे, सो बहुत जरूरी है कि शहरीकरण सुनियोजित तरीके से हो। स्मार्ट सिटी की योजना उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद घोषित जरूर की है, लेकिन अगर घूम सकते गोरखपुर जैसे शहर में, जहां से मैं पिछले सप्ताह घूम कर आई हूं, तो उनको दिखता कि समस्या कितनी गंभीर है। स्मार्ट सिटी का सपना प्रधानमंत्री भूल जाएंगे अगर एक दिन उनको घूमना पड़े गोरखपुर की सड़कों पर। गंदी नालियां, बदबू, बेहाल बस्तियां और कूड़े के ढेर हर नुक्कड़ पर। भारत के तकरीबन सारे छोटे शहर ऐसे दिखते हैं और महानगरों की आधी आबादी वैसी ही गंदी बस्तियों में रहने को मजबूर है। समस्या इतनी गंभीर है कि अगर युद्धस्तर पर काम शुरू नहीं होता, तो भारत 2050 तक दब जाएगा कूड़े तले। समाधान हैं, लेकिन हम उनको अभी तक ढूंढ़ने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं। स्मार्ट सिटी सिर्फ एक नारा बन कर रह गया है। तीसरा क्षेत्र जहां वह हरारत नहीं दिखी अभी तक, जिसकी उम्मीद थी, वह है अर्थव्यवस्था का। माना कि मंदी के बादल अब घट गए हैं, लेकिन अभी तक बहारों के दिन भी नहीं आए हैं। बहारों के दिन मेरी उम्र के लोगों ने देखे थे जब प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने लाइसेंस राज समाप्त किया था। एक पूरे दशक तक भारत की अर्थव्यवस्था ऐसे दौड़ती रही कि विशेषज्ञ मानते हैं कि कम से कम तीस करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर उठ कर मध्यवर्ग में शामिल हुए थे। बहुत बड़ी उपलब्धि थी और दुनिया के महान अर्थशास्त्री भारत की तरफ उम्मीद की नजरों से देखने लगे थे। लेकिन सोनिया-मनमोहन के दौर में फिर उन्हीं पुरानी समाजवादी नीतियों पर ध्यान दिया गया, जिन्होंने भारत को दशकों गुरबत में जकड़ कर रखा था।
मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मनरेगा जैसी योजना के खिलाफ आवाज उठाई थी, कहा था कि उनका लक्ष्य भारत में समृद्धि लाने का है, सिर्फ गरीबी हटाना नहीं। फिर पता नहीं क्या हुआ कि मनरेगा में निवेश कम करने के बदले बढ़ाया गया और निवेश सरकारी कंपनियों में भी जारी रहा, बावजूद इसके कि एअर इंडिया ने जनता के चालीस हजार करोड़ रुपए डुबोए हैं। विजय माल्या के पीछे पड़ी रही है मोदी सरकार, लेकिन अपने ही गिरेबान में झांक कर देखा होता तो साफ दिखता एअर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियों का नुकसान।
सो, शिक्षा, शहरीकरण और अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा जरूरत है परिवर्तन की, क्योंकि इन क्षेत्रों में परिवर्तन आएगा तो पूरे देश का माहौल बदल जाएगा। इन क्षेत्रों में जब तक नहीं आएगा तूफानी परिवर्तन, तो यह कहना गलत न होगा कि भारत के अच्छे दिन भी नहीं आएंगे। बहुत कुछ हुआ है परिवर्तन और विकास के तौर पर प्रधानमंत्रीजी, लेकिन अभी बहुत कुछ करना है बाकी।