पिछले सप्ताह सर्वोच न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उसकी इजाजत के बिना ‘बुलडोजर न्याय’ नहीं होगा। यह सुनकर मेरा दिल खुश हुआ, इसलिए कि मैंने इस किस्म के न्याय का विरोध किया है ऊंची आवाज में, जबसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने किसी का घर तोड़ने के गंभीर अपराध को न्याय का नाम दिया है। योगी आदित्यनाथ की नकल करके कई भाजपा शासित राज्यों में बुलडोजर चलाए गए हैं न्याय के नाम पर। इस तथाकथित ‘न्याय’ के बारे में सवाल पूछे गए, तो कई मुख्यमंत्रियों ने झूठ बोलकर कहा कि बुलडोजर सिर्फ अवैध इमारतों पर चलाए गए हैं। इस झूठ का पर्दाफाश तब हुआ जब मध्यप्रदेश के गृहमंत्री ने कहा था कि जो लोग पत्थर फेंकने का काम करते हैं, उनके घर पत्थरों के ढेर किए जाएंगे।

मंत्री जी ने स्वीकार किया कि बुलडोजर न्याय जैसी कोई चीज

अच्छी बात थी कि मंत्री जी ने स्वीकार किया कि बुलडोजर न्याय जैसी कोई चीज है। लेकिन तब तक सारा देश जान गया था कि अदालतों की जगह बुलडोजर ले रहे हैं। इसलिए कि योगी आदित्यनाथ के समर्थक उनको गर्व से ‘बुलडोजर बाबा’ बुलाने लग गए थे। उन्होंने कभी इनकार नहीं किया है कि बुलडोजर चलाए जाएंगे उन लोगों के घरों पर, जो सरकारी संपत्ति का नुकसान करते हैं दंगों के दौरान या धार्मिक जुलूसों पर पथराव करते हैं। लेकिन अजीब निकला बुलडोजरों का मिजाज। अक्सर तोड़ने पहुंचते हैं सिर्फ मुसलमानों के घर। हिंदू अपराधी बख्शे जाते हैं। हाथरस नहीं पहुंचे, जहां उस दलित बच्ची ने मरने से पहले ठाकुर लड़कों के नाम लिए थे यह कहकर कि उन्होंने उसका बलात्कार करने के बाद उसका गला घोंट दिया था उसके अपने दुपट्टे से। न बुलडोजर पहुंचे लखीमपुर खीरी, जहां एक हिंदू मंत्री के बेटे ने अपनी गाड़ियों का काफिला किसानों के जुलूस पर चलाकर चार लोगों को मार डाला था।

मुसलमानों के मामले में बुलडोजर घंटों में पहुंच जाते हैं

बुलडोजर घंटों में पहुंच जाते हैं उस जगह, जहां किसी मुसलमान पर आरोप है उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने का, या किसी दंगे में शामिल होने का। एक घर को मैंने सोशल मीडिया पर तोड़े जाते देखा था, जब वामपंथी राजनेता की बेटी ने आखिर तक घर के सामने रह कर वीडियो अपलोड किया था। याद है मुझे कि उस पुराने, शानदार घर को टूटते देखकर कितना बुरा लगा था मुझे। लड़की के मुसलिम पिता को पुलिस ने जेल में बंद कर दिया था, दंगे में शामिल होने का आरोप लगाकर। उसकी बेटी ने बुलडोजरों की कार्रवाई का पूरा वीडियो बनाकर अपलोड किया ,शायद इस उम्मीद से कि कोई आएगा उसके पुश्तैनी घर को बचाने। कोई नहीं आया, इसलिए देखते ही देखते घर को खंडहर बनाया गया न्याय के नाम पर।

सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया है। उसने कहा कि एक भी बुलडोजर अगर किसी घर को तोड़ता है बिना कोई अपराध साबित किए, तो इस कार्रवाई को संविधान विरोधी माना जाएगा। यह भी कहा न्यायाधीशों ने कि ऐसा लगने लगा है कि बुलडोजर सिर्फ घर नहीं तोड़ रहे हैं, बल्कि कुचल रहे हैं देश की तमाम न्याय प्रणाली को। सरकार की तरफ से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलील यह थी कि एक ‘झूठी कहानी’ फैलाई जा रही है कि घर केवल एक समाज के लोगों के तोड़े जाते हैं, लेकिन उनकी दलीलें नाकाम रहीं।

न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि ‘अपराध साबित होने के बाद भी किसी का घर नहीं तोड़ा जा सकता है, जब तक ऐसा न कहा जाए कानूनी तौर पर। एक पिता का सिरफिरा बेटा हो सकता है, जिसने कोई अपराध किया हो। इसका मतलब यह नहीं कि उस पिता का घर तोड़ा जाए। यह कोई तरीका नहीं है’। सच पूछिए, तो जबसे बुलडोजर न्याय का दौर शुरू हुआ है, मुझे गहरी मायूसी महसूस हुई है, इसलिए कि मैं जानती हूं कि कानून का राज होता है लोकतंत्र का आधार। जहां बुलडोजर लेते हैं अदालतों की जगह, वह कहलाता है जंगलराज। अफसोस की बात यह है कि ‘बुलडोजर बाबा’ के समर्थकों ने शुरू से कोशिश की है इस बात को साबित करने की कि बिना बुलडोजर के माफिया किस्म के लोगों को काबू में नहीं रखा जा सकता है। शाबाशी दी है उन्होंने बार-बार योगी आदित्यनाथ को।

सोशल मीडिया पर मैंने जब भी बुलडोजर न्याय के खिलाफ आवाज उठाई है, तो हिंदुत्ववादी सोच के लोगों ने मुझे ‘हिंदू-विरोधी’ कहा है, इस बात को भूल कर कि ऐसा कहकर ये लोग साबित कर रहे हैं कि बुलडोजर न्याय सिर्फ मुसलमानों के लिए है, हिंदुओं के लिए नहीं। जो थोड़े समझदार लोग हैं, वे कहते हैं कि बुलडोजर जरूरी हो गए हैं, क्योंकि न्याय की गाड़ी भारत में बैलगाड़ी के रफ्तार चलती है। यह बात सही है, लेकिन समाधान यह नहीं हो सकता कि अदालतों की जगह बुलडोजरों को दी जाए।

समाधान यह जरूर है कि न्याय व्यवस्था में जरूरी सुधार लाए जाएं जल्दी से जल्दी। कई चीजें होती हैं हमारी अदालतों में जो किसी दूसरे लोकतांत्रिक देश में देखने को नहीं मिलती हैं। मिसाल के तौर पर विकसित, पश्चिमी देशों में जब किसी को बेगुनाह पाया जाता है तो अदालत से ही उसकी रिहाई हो जाती है। हमारे देश में ऐसा नहीं है। बेगुनाह पाए जाने के बाद अभियुक्त को वापस जेल में जाना पड़ता है। फिर इतनी लंबी कार्यवाही चलती है कि बेगुनाह व्यक्ति को रिहा करने में तीन-चार दिन लग जाते हैं। सुधार न्यायाधीशों के तौर-तरीकों में भी हो सकते हैं। समझना मुश्किल है कि क्या जरूरत है उपन्यास जितने लंबे फैसले लिखने की। पुलिस वाले भी इल्जाम पत्र इतनी पुरानी भाषा में लिखते हैं कि उसको पढ़ने में कई दिन लग सकते हैं। कंप्यूटरों के इस जमाने में ऐसा क्यों होता है अपने देश में, कभी किसी मुख्य न्यायाधीश ने नहीं समझाया है। लेकिन समाधान बुलडोजर न्याय नहीं है।