आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य और उसकी संस्थाओं से साहित्यकारों का क्या संबंध होना चाहिए, इस पर लंबे समय से बहस होती रही है। भाजपा सरकारों के दौरान यह बहस थोड़ी तेज हो जाती है, पर अब तक यह किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है। इसका कारण है कि राज्य और उसकी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का विरोध सैद्धांतिक कम, निजी लाभ-लोभ और राग-द्वेष से अधिक होता है। साहित्यकारों के ‘स्टैंड’ में बराबर बदलाव होते रहे हैं। हिंदी में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि एक समय में जो रचनाकार विरोध में होता है वही दूसरे समय समर्थन में खड़ा दिखता है। विरोध और समर्थन से इतर हिंदी में एक और पाखंड यह है कि मैं करूं तो ठीक, दूसरा करे तो गलत। भारत एक जनतांत्रिक राज्य है। जनता अपनी सरकार स्वयं चुनती है। सैद्धांतिक तौर पर जनता और सरकार कोई अलग-अलग इकाई नहीं हैं। देश का प्रत्येक नागरिक किसी न किसी रूप में सरकार से लाभान्वित है। पर इसे सरकारी दान के रूप में नहीं, बल्कि नागरिक के अधिकार के तौर पर देखा जाता है। ऐसे में, सरकार की नीयत और नीति के विरोध में एक संस्था का तो बहिष्कार और उसी सरकार की दूसरी संस्था से सहयोग को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
अगर हम किसी संस्था का विरोध उस संस्था की समस्याओं के कारण न करके सरकार से विचारधारात्मक विरोध के कारण करते हैं, तो फिर हमें प्रत्येक संस्था का विरोध करना चाहिए। मसलन, माओवादी मानते हैं कि भारत एक बुर्जुआ राज्य है और उसे ताकत से ही पलटा जा सकता है। अपनी इस मान्यता के साथ वे भारतीय राज्य की प्रत्येक संस्था का विरोध करते हैं। ऐसा नहीं कि वे किसी एक संस्था के साथ खड़े होते हैं और दूसरी संस्था के विरोध में। जब गांधीजी ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अन्यायपूर्ण मान कर असहयोग आंदोलन चलाया, तो उन्होंने हर सरकारी संस्था से असहयोग की अपील की थी।
अगर कुछ साहित्यकार मानते हैं कि भारतीय राज्य सांप्रदायिक और जनविरोधी हो गया है, तो उन्हें इसकी सभी संस्थाओं का बहिष्कार कर देना चाहिए। जिस तर्क से साहित्य अकादेमी का विरोध हुआ, उसी तर्क से विश्वविद्यालय या अन्य संस्थानों का विरोध करते हुए अपनी नौकरियां क्यों नहीं छोड़ देनी चाहिए? विश्वविद्यालय या अन्य दूसरे शैक्षणिक संस्थानों में संघ का कोई कैडरनुमा प्रमुख आ जाता है, तो नौकरी छोड़नी तो दूर की बात है, कितने लोग यह बहस भी करते हैं कि अब नौकरी करनी चाहिए या नहीं?
साहित्य अकादेमी, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र आदि संस्थानों के कार्यक्रम का बहिष्कार और दूसरी तरफ उसी सरकार के अधीन और उसी तरह के आरोप झेल रहे दूसरे संस्थानों में नौकरी एक भयंकर पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हिंदी के साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी वहीं तक विरोध कर सकते हैं, जहां तक उनका रत्ती भर भी नुकसान न हो। यह नुकसानरहित विरोध करने वाले भी दो तरह के हैं। एक तो वे, जिन पर ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। ऐसे लोग हर तरह से अपना आकलन कर लेते हैं कि समय विशेष में उनके लिए कोई ‘स्कोप’ है कि नहीं। जब उन्हें लगता है कि अब कोई गुंजाइश नहीं, तो वे विरोध में उतर जाते हैं।
दूसरे वे लोग हैं, जो तब तक विरोध करते हैं जब तक कि उन्हें कुछ महत्त्व या सुख-सुविधा देकर संतुष्ट न कर दिया जाए। यही कारण है कि हिंदी के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में विरोध की कोई विश्वसनीयता नहीं बची है। यह स्पष्ट करना बहुत जरूरी है कि यहां विरोध के अधिकार को प्रश्नांकित नहीं, बल्कि विरोध की आड़ में चल रहे पाखंड को रेखांकित किया जा रहा है। इस पाखंड के कारण ही हिंदी के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की कोई हैसियत नहीं बची है।
हिंदी में इस समय देश के कोने-कोने से ढेर सारी लघु पत्रिकाएं निकल रही हैं। इनमें से अधिकतर का तेवर वामपंथी है। बहुत सारे संपादकों का मानना है कि वर्तमान सरकार सांप्रदायिक है और वह साहित्य-संस्कृति और देश की साझी विरासत को नष्ट कर रही है। वे वर्तमान सरकार के अधीन आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक गोष्ठियों और सम्मेलनों में शामिल होने के खिलाफ हैं। पर अपनी पत्रिकाओं के लिए भाजपा सरकार का गुणगान करते विज्ञापनों से उन्हें कोई परहेज नहीं है। समारोह में जाना गलत है, पर विज्ञापन लेना सही है। यह दूसरा बड़ा पाखंड है, जो हिंदी में खूब चल रहा है।
विज्ञापन को लेकर दो तर्क गढ़े गए। एक यह कि सरकार जो विज्ञापन देती है, वह करदाताओं का धन है यानी जनता का पैसा है। दूसरी बात यह कही जाती है कि अगर पत्रिका का ‘कंटेंट’ प्रभावित नहीं होता, तो विज्ञापन से कोई समस्या नहीं है। अब इनसे कोई पूछे कि जो सम्मेलन आयोजित होता है तो वह क्या किसी साधु-संन्यासी के पैसे से होता है? वह भी तो करदाताओं का ही पैसा होता है। जहां तक विज्ञापन से पत्रिका का कंटेंट प्रभावित न होने की बात है, पूछा जा सकता है कि अगर वक्ता विरोधी मंच पर जाकर अपनी बात कह कर आता है तो फिर उसे कैसे गलत कहा जा सकता है?
सच्चा साहित्यकार किसी पार्टी का नहीं हो सकता, वह सिर्फ जनता का होता है। उसका विरोध और समर्थन दोनों मूल्यगत और सैद्धांतिक होने चाहिए। उसे इस बात की परवाह ही नहीं करनी चाहिए कि सरकार भाजपा की है या कांग्रेस की, माकपा की है या आप की? चुनावी राजनीति की अपनी बाध्यताएं और समस्याएं होती हैं। साहित्यकार को तो हर समय मानवता के पक्ष में अपनी आवाज बुंलद करनी चाहिए। तभी, साहित्यकार की विश्वसनीयता बनती है।
मगर हिंदी के साहित्यकारों में चयनित विरोध की प्रवृत्ति बहुत पहले से चली आ रही है और बहुत हद तक आज भी जारी है। इसी कारण, हिंदी में साहित्यकार की आवाज का कोई असर नहीं होता। उसकी नैतिकता आम जनता की नजर में संदिग्ध हो चुकी है। आखिर कुछ तो कारण होगा कि सिंगूर-नंदीग्राम की हिंसा के विरुद्ध महाश्वेता देवी जब कोलकाता की सड़कों पर निकलीं तो लाखों लोग उनके साथ हो गए। क्या हिंदी का साहित्यकार अपने साथ हजार लोगों को भी घरों से निकाल सकता है? जाहिर है, नहीं। इसका एक बड़ा कारण उसकी विश्सनीयता का ही संकट है।
हिंदी के जितने भी क्रांतिकारी और प्रतिबद्ध साहित्यकार हैं वे कारणों पर कोई बहस नहीं करते और परिणाम पर खूब हाय-तौबा मचाते हैं। जनता से पूरी तरह कट चुके हैं ये लोग। जमीन पर ऐसी कोई कोशिश नहीं करेंगे, जिससे भाजपा सरकार में न आए। पर जब वह सरकार में आ जाएगी तब वे सतही विरोध शुरू करेंगे। वे अपनी इच्छा को ही निष्कर्ष समझते हैं और यथार्थ से भी मुंह मोड़ लेते हैं। वर्तमान साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के विरोध के पीछे एकमात्र कारण यही नजर आता है कि वर्तमान सरकार उनकी इच्छा के विरुद्ध आ कैसे गई?