इस देश के सैकड़ों आदिवासी समुदाय आज भी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्तर पर भारतीय मुख्य समाज से अलग-थलग जंगल-पहाड़ों में प्रकृति पर आधारित जीवन जी रहे हैं। उनके लिए लोकतंत्र और भौतिक विकास अभी पराया लगता है। अबूझमांड़ के लंगोटीधारियों से लेकर दूरदराज बंगाल की खाड़ी के काले समुद्र के बीच बिखरे टापुओं में वन्यजीवों की तरह जीवन से जूझते अंडमानी कबीलों तक के मन में अभी वायुयान एक आसमानी अजूबा बना हुआ है।

अधिकतर आदिम समुदाय अलग-थलग भौगोलिक अंचलों में बसते हैं, फिर भी उनकी जीवन-शैली में समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं, जिसकी एकमात्र वजह है उनका ‘आदिम’ होना, यानी प्रकृति पर निर्भरता। विभिन्न आदिम समुदायों के बीच अनेक समानताओं के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर उनमें एकता का अभाव चौंकाता और चिंतित करता है। चिंता इसलिए कि लोकतांत्रिक प्रणाली में समान अतीत, समान समस्याएं, समान आशाएं आदि कारक एक जैसे समुदायों के मध्य एकजुटता पैदा करने का आधार बननी चाहिए, ताकि ऐसे मानव समुदाय दबाव समूह के रूप में अपनी समस्याओं के प्रति व्यवस्था का ध्यान आकर्षित करते हुए, बिना किसी अन्य के अधिकारों पर कुठाराघात किए, अपने पक्ष में सकारात्मक निर्णय करवाने की स्थिति में आ सकें।

सवाल सामाजिक न्याय के प्रति सकारात्मक सोच का है। प्रगति के पथ पर जो वर्ग आगे बढ़े या बढ़ रहे हैं, उनकी सहमति और सहयोग से पिछड़ों के उत्थान कार्य को आगे बढ़ाना सभ्य और संस्कारयुक्त समाज का दायित्व होना चाहिए। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण जैसे प्रावधान सम्मिलित किए गए। भौतिक विकास, शिक्षा और एकजुटता के सहारे दलित समाज के सिर से ‘अछूत’ का भूत धीरे-धीरे उतर रहा है। आदिवासी समाज ने ‘अछूत’ की पीड़ा नहीं सही, पर आदिम अवस्था की ‘जड़ता’ का शिकार वह अब तक है।
सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक विकास आदिवासी समाज की देहरी तक नहीं पहुंच रहा है। सवाल है कि संविधान और परवर्ती योजनाओं में पर्याप्त प्रावधान होने के बावजूद आखिर ‘खोट’ कहां है?

1970 के दशक में मूलधारा के उन आदिमानवों को तथाकथित मुख्यधारा में लाने के लिए एक मुहिम चलाई गई, जिसमें सरकार के साथ गैर-सरकारी संगठन भी शामिल हुए थे। हेलीकॉप्टरों से खाना, कपड़े आदि के पैकेट गिराए गए। यहां तक कि वे दवाइयां भी पटक दी गर्इं, जिनसे संबंधित बीमारियां उन्हें कभी नहीं हुर्इं। यह सब बिना यह सोचे किया गया कि वे लोग हम जैसा जीवन नहीं जीते। वे कपड़ों से तन नहीं ढंकते। वे पका हुआ खाना नहीं खाते। वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करने लगे। कुछ दिनों बाद वे मरने लगे। जनसंख्या तेजी से घटने लगी। सरकार चिंतित हुई। आखिरकार उन आदिवासियों को ‘उनके हाल’ पर छोड़ देने का फैसला किया गया। कुछ साल बाद उनकी जनसंख्या फिर से सामान्य होने लगी। यहां फिर से ‘सभ्यों’ का वही पूर्वग्रह सामने आता है कि वे चाहते ही नहीं कि मुख्यधारा में आएं।
आप अपने हिसाब से आदिवासियों के बीच मत जाइए, उनकी मानसिकता को समझ कर, उनके हिसाब से जाइए। वे आपको और आपकी योजनाओं को बड़े सम्मान के साथ अंगीकार करेंगे। आदिवासी समाज का एक हिस्सा विकास से जुड़ता जा रहा है, बाकी भी जुड़ेगा। शर्त है कि विकास को उनके लिए ‘अजूबा’ मत बनाइए। उसे ‘मिशन’ मान कर चलिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के समस्त आदिवासी समुदाय अपनी आदिम मानसिकता से चिपके हुए हैं, जिसका सकारात्मक पक्ष यह है कि वे उस प्राकृत अवस्था को अब भी प्यार करते हैं, जिसमें प्रकृति तत्त्वों के साथ बेहतरीन तालमेल, वन्य जीवों के प्रति सह-अस्तित्व की भावना, सामूहिकता, जीवन से गहरे जुड़ी कलात्मकता आदि उपस्थित हैं। साथ ही वह नकारात्मक पहलू भी सामने आता है, जिसमें ढेर सारे अंधविश्वास हैं, जो वैज्ञानिक चेतना और प्रगतिशीलता के विरुद्ध है।
इनके दर्शन का सकारात्मक पक्ष नाइजीरिया के उस आदिम कबीलों तक हमें ले जाता है, जिसके जंगल में गाय-भैंस-बकरियों जैसे दुधारू मवेशियों के अनगिनत झुंड हैं। जब उन्हें सलाह दी गई कि आप लोग इन्हें पालतू बना कर इनके दूध का सेवन और व्यवसाय क्यों नहीं करते। तो उनका सरल-सा जवाब था कि यह कैसे संभव है? इनके दूध पर तो इनके बछड़ों का प्राकृतिक अधिकार है। हम उस दूध को कैसे छीन सकते हैं?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया की समस्त मानवता आदिम दशा से निकल कर इस आधुनिक स्थिति तक पहुंची है। फिर क्या आदिवासी समाज किसी अन्य ग्रह से टपका है, जो इस विकास यात्रा से नहीं जुड़ सकेगा? इसलिए यह कह देना कि आदिवासी समाज विकास-विरोधी है, सर्वथा गलत है। गड़बड़ी आदिवासी की मानसिकता में नहीं, हमारी दृष्टि में है, जिसे पहचानने की आवश्यकता है। यह काम आदिवासी समाज का नहीं, हम विकसित लोगों का है।
मानवीय क्षमता, संभावनाओं और परिस्थितियों के बीच गहरा रिश्ता होता है। योग्यता रक्त में नहीं होती, अवसरों पर निर्भर करती है। संगत और शिक्षा से संस्कार पनपते हैं। इतिहास साक्षी है कि जड़ और परंपरागत मानसिकता प्रगतिशील आधुनिकता में परिवर्तित होती रही है। बाबा साहेब आंबेडकर ने ‘शिक्षा-संगठन-संघर्ष’ के अपने त्रिसूत्रीय दर्शन द्वारा दलित समाज में चेतना भरने का अद्भुत काम किया। आदिवासी समाज ने अपने ‘जल-जंगल-जमीन’ के लिए बाहरी देशी-विदेशी शोषकों-लुटेरों के विरुद्ध हमेशा जम कर संघर्ष किया है। इतिहास इसका गवाह है, पर बाकी दुनिया में भौतिक स्तर पर क्या प्रगति होती रही है, इसके प्रति न उसने अपनी आंखें खुली रखीं, न उसकी परवाह की और न ही उससे सीख ली। अधिकतर आदिवासी अपनी आदिम-अल्हड़ मस्ती में रहते आए। बाहरी दुनिया से जो उनका अलगाव रहा, शायद यही बड़ी वजह और बाधा रही, जिसने आदिवासियों को आधुनिक भौतिक विकास की राह से दूर रखा।
इस मानसिकता के पीछे प्रमुख कारण शायद बाहरी लोगों का आदिवासी समाज के प्रति दृष्टिकोण है। ठेठ भारतीय मिथकों से लेकर ब्रितानी उपनिवेश और वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था तक इस नजरिए को देखा जा सकता है। प्राचीन पुराण-महाकाव्यों के ‘असुर-राक्षसी’ संज्ञाओं, ब्रिटिश कालीन ‘आपराधिक जनजातीय अधिनियम’ से लेकर आज के ‘विकास-विरोधी’ ठप्पों तक से यह मानसिकता स्वत: सिद्ध हो जाती है। अगर किन्हीं लोगों ने सहानुभूतिपूर्ण दूसरा दृष्टिकोण अपनाया तो वह रहा ‘रोमांटिक’- यह कहते हुए कि ‘समृद्ध प्रकृति की गोद में आदिवासीजन अपनी ‘मस्ती में नाचते-गाते रहते हैं’। वास्तविकता यह है कि आदिवासी जीवन में झांक कर हमने देखा ही नहीं। हम आदिवासियों से परिचित हुए भी, तो केवल गणतंत्र दिवस की झांकियों को देख कर। झांकियां वास्तविक होती कहां हैं?
जिन आदिवासियों को हमारी पुस्तकों, फिल्मों, टीवी धारावहिकों, गणतंत्र दिवस की झांकियों, इंटरनेट आदि में दिखाया जाता रहा है उस सबसे बहुत भिन्न वे मुझे दिखाई दिए। जरूरत है कि हम आदिवासियों को उनके असल रूप में देखने का प्रयास करें। उनकी मानसिकता को समझ कर विकास योजनाएं लेकर उनके यहां जाएं। इस देश के सम्माननीय नागरिकों की तरह उनके साथ व्यवहार करें। वे लोग पहले झिझकेंगे, फिर आपके हाव-भाव देख कर खुलेंगे। योजनाओं को समझेंगे। अंत में स्वागत करेंगे और अपना लेंगे।