भारतीय पत्रकारिता के कुछ उसूल हैं, जिन्हें जो तोड़ने की हिम्मत दिखाता है उसे उसका खमियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। बुनियादी उसूल यह है कि नए सिरे से राजनीति और राजनीतिक सोच को देखने की कोशिश जो करते हैं वे गलत हैं। मिसाल के तौर पर सत्तर के दशक में जो राजनीतिक पंडित सोवियत संघ के खिलाफ बोलने की हिम्मत दिखाता था या इंदिरा गांधी की समाजवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ, उस पर फौरन चिपक जाता था सीआइए का दलाल होने का बिल्ला। आज के दौर में जिन मुट्ठी भर पत्रकारों ने (जिनमें मैं भी हूं) नरेंद्र मोदी के पक्ष में बोलने की कोशिश की है, उन पर ‘भक्त’ होने का आरोप लग जाता है। मेरे कई बंधु हैं पत्रकारिता की दुनिया में, जो खुल कर समर्थन करते हैं नेहरू या मार्क्स का, लेकिन उन पर भक्ति का आरोप नहीं लगता है।
अब जब ऐसा लगने लगा है कि मोदी के अच्छे दिन समाप्त होने जा रहे हैं, मुझे हर मोड़ पर मिलते हैं ऐसे लोग, जो मेरे ऊपर ताने कसते हुए पूछते हैं कि क्या अब भी मैं मोदी की भक्त हूं या नहीं। सो, मैंने मुनासिब समझा है इस सप्ताह के लेख में याद दिलाना कि भारतवासियों ने 2014 में मोदी को पूर्ण बहुमत दिया था और मैंने क्यों उनका समर्थन किया था। मोदी के विरोधी मानते हैं कि जनता को गुमराह किया था मोदी ने हिंदुत्व के नाम पर। मेरा मानना है कि मोदी के दो शब्द जनता के दिल को छू गए थे और वे हैं परिवर्तन और विकास। याद है मुझे कि छोटे-छोटे गांवों में मुझे लोग मिलते थे चुनाव अभियान शुरू होने से पहले और उसके दौरान भी, जो कहा करते थे कि इन दो शब्दों में बयान थीं उनकी सारी उम्मीदें।
निजी तौर पर मैंने मोदी का समर्थन इसलिए किया, क्योंकि परिवर्तन की उम्मीद मुझे भी थी। सारी उम्र दिल्ली में गुजारने की वजह से मैंने बहुत करीब से देखा था कि ब्रिटिश राज के समाप्त होने के बाद भी भारत को ऐसे शासक मिले थे, जो राज करना जानते थे, शासन नहीं। इनमें ज्यादातर ऐसे लोग थे, जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी थी और जो सवर्ण जातियों के थे। कहने को तो ये लोग अपने आप को समाजवादी सोच से जोड़ा करते थे, लेकिन इसके बावजूद इन्होंने जनता के लिए ऐसी टूटी-फूटी आम सेवाएं तैयार कीं, जिन पर सिर्फ उनके नौकर निर्भर थे। उनके अपने बच्चे पढ़ते थे अच्छे प्राईवेट स्कूलों में, इलाज करवाने जाते थे ये लोग प्राईवेट अस्पतालों में और आम यातायात तभी इस्तेमाल करने को मजबूर थे, जब उनकी अपनी गाड़ी खराब होती थी। ऐसा अब भी है, लेकिन मुझे उम्मीद थी कि मोदी के आने से नए किस्म के शासक भी आएंगे और शासन के नए तरीके भी।
अफसोस कि इन चीजों में मोदी अभी तक परिवर्तन नहीं ला पाए हैं। परिवर्तन सिर्फ इतना हुआ है कि लटयंस दिल्ली की आलीशान कोठियों में अब रहने लगे हैं शान से मोदी सरकार के मंत्री उसी तामझाम से, जैसे हमारे ‘समाजवादी, सेक्युलर’ राजनेता रहा करते थे। फर्क सिर्फ इतना है कि इन राजनीतिक महाराजाओं के चेहरे बदल गए हैं। परिवर्तन जब तक देश की राजनीतिक संस्कृति में नहीं आएगा, तब तक ऐसे लोग ही ऊंचे ओहदों पर बैठेंगे, जिनको कोई समझ नहीं है इस देश के आम आदमी की समस्याओं की।
निजी तौर पर मुझे उम्मीद यह भी थी कि देश की आर्थिक दिशा बदल कर दिखाएंगे। प्रधानमंत्री बनने से पहले बहुत बार कहा करते थे मोदी कि उनकी नजरों में भारत को गरीब देशों की श्रेणी में होने का कोई कारण नहीं दिखता है।
मेरी अपनी राय भी यही है। भारत को समाजवादी आर्थिक नीतियों ने गरीब रखा है, क्योंकि किसी भी देश में जब अर्थव्यवस्था के तमाम अहम फैसले करने का अधिकार सिर्फ सरकारी अफसरों को दिया गया है, वहां गरीबी कभी दूर नहीं हो पाई है। ये लोग अक्सर सिर्फ अपनी गरीबी दूर कर पाए हैं। सो, बहुत अफसोस होता है इस बात को कहने में कि मोदी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं, उन्होंने पुरानी आर्थिक दिशा पर ही कदम रखे हैं। यहां तक कि मनरेगा जैसी खैरात बांटने वाली योजनाओं को भी नकारने के बाद अपना समर्थन दिया है। सो, न आर्थिक दिशा बदली है और न भारत की राजनीतिक सभ्यता। न ही उन आम सेवाओं में भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में वह परिवर्तन दिखने लगा है, जिसकी उम्मीद थी। नतीजा यह है कि अब जिन लोगों की जगह मोदी ने पिछले चार सालों से ले रखी है, उनको लगने लगा है कि अगले आम चुनाव के बाद उनके अच्छे दिन लौट कर आने वाले हैं। ऊपर से खूब बातें करते हैं देश के भले की, लेकिन अंदर से खुश हैं मोदी की नाकामियों पर।