एक था कंक्रीट का जंगल। और एक रहा वही, दकियानूसी, सदियों पुराना जंगल, जिसे आप जानते ही हैं; वही, जहां पेड़, झाड़ियां, घास, गुफाएं होती हैं और जंगली जानवर रहते हैं।
तो कहानी कुछ यों कि कंक्रीट के इस जंगल में, एक बहुत ऊंची इमारत के सबसे ऊपर के फ्लैट में, पचासवीं मंजिल पर एक आदमी रहता था। वहां सबसे ऊंची फुनकी पर बैठा वह दिन-रात पैसे बनाता था। वह बस, पैसे बनाना जानता था।
इधर दूसरे जंगल में, एक ऊंचे पेड़ की आखिरी डाल पर एक परिंदा रहता था। परिंदे को आप निठल्ला कह सकते हैं, क्योंकि वह पैसे नहीं बनाता था। वह बस अपनी डाल की एक ऊंची फुनगी पर बैठा दिन भर चहचहाता रहता था। स्वयं में मग्न। दाने चुनने को उड़ता, या कभी यों ही मौज में। पेट भर दाने मिल जाएं तो पट्ठे को लगता कि दुनिया कितनी हसीन है!
कंक्रीट के जंगल में पैसा बनाते आदमी ने सालों से परिंदा नहीं देखा था। वह तो भला हो कि कभी-कभी टीवी के किसी शो में उसे परिंदा दिख जाता था, वरना तो आदमी भूल ही चुका होता कि परिंदा आखिर दिखता कैसा है?… यही आदमी, एक दिन जब नोट गिन-गिन कर थक गया तो ‘वैकेशन’ के लिए जंगल की तरफ घूमने निकल गया। चार रातें, तीन दिन का ‘वाइल्ड लाइफ’ टूर का कोई अच्छा पैकेज मिल रहा था। फायदे का कोई भी सौदा आदमी छोड़ता नहीं। वह जंगल चल दिया।
कंक्रीट के जंगल का प्राणी पूरी तैयारी से असली जंगल में पहुंचा था। जंगल को लेकर आदमी के अपने भय थे। जंगल के रेस्ट हाउस वाले ने भी चेता दिया था कि हमेशा पूरी बांहों वाली शर्ट ही डालें, जुराबें लंबी हों, तेज धूप से बचने के लिए टोपी और धूप का चश्मा डाल कर ही निकलें, ‘सन स्क्रीन’ आपने पहले ही पोत रखा है। अपने जंगल गाइड की बात मानते रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे। आदमी सतर्क था। मच्छर काट न लें, कीट पतंगे छू न जाएं, हवा लग न जाए, खाल पर धूप पड़ न सके और झाड़ियों, घास आदि से दूर रहें- इस एहतियात के साथ जंगल देखना था उसे। वह जंगल को छुए बिना जंगल का मजा लेने जंगल आया था। मजेदार बात यह थी कि वह जंगल के स्पर्श से बचता हुआ जंगल को देख-देख कर आह्लादित हो भी रहा था। वह बात-बात पर ‘वॉओ’ कहता, जंगल सफारी की जीप पर कैमरा लिए हुए, बार-बार जीप रुकवा कर फोटो लेता और जीप में साथ चल रहे गाइड को सुनाता हुआ कहता कि जंगल बेहद फेंटास्टिक है।
जीप चल रही थी। आदमी थकने लगा। आदमी बोर होने लगा। वही पेड़। वही हवा। वही जानवर।… आदमी चट गया। अचानक आदमी ने जीप रोकने को कहा। उसने पूछा कि जीप से उतर कर देखें तो कैसा रहेगा? गाइड ने चेताया कि यहीं पगडंडी पर जीप के आसपास टहल लें, बस। इससे ज्यादा जंगल आपके लिए ठीक नहीं। आदमी ने कहा कि मैं बस थोड़ा निवृत्त होकर भी आता हूं।
संयोग यह रहा कि आदमी उसी पेड़ के तने पर पेशाब करने लगा जिसकी ऊपरी फुनगी पर परिंदा बैठा रहता था। परिंदा अभी मौज में चहचहा कर गा रहा था। परिंदे का गाना ऐसा मीठा था कि आदमी मुंडी उठा कर ऊपर देखने लगा। वाह! कौन है जो इतना मधुर…। उसने पंछी देखा। पंछी ने उसे नहीं देखा। पंछी स्वयं में इतना आनंदित और मग्न था कि आदमी को बेहद आश्चर्य हुआ। यहां, जंगल में, जहां न तो एसी लगा है, न कूलर, न ढंग से लाइट, न पंखे, न गद्देदार पलंग वगैरह- वहां कोई कैसे इतना आनंदित हो सकता है? वह पेशाब करता रहा और पंछी को ताकता रहा। निवृत्त होकर उसने परिंदे को आवाज दी। पास बुलाया। गाना बंद करके पंछी उड़ा और नीचे उतर कर, आदमी से एक सुरक्षित दूरी पर आकर बैठ गया।
‘क्या बात है?’ पंछी ने पूछा।
‘तुम इस पेड़ पर ऊपर नीचे आते जाते रहते हो- थक नहीं जाते होगे? तुम इस पेड़ पर एक लिफ्ट क्यों नहीं लगवा लेते? उसी पर चढ़ कर ठाठ से ऊपर नीचे हुआ करो?’ आदमी ने आत्मीयता बढ़ाने के लिए पंछी के प्रति चिंता जताई। बात शुरू करने का आदमी का अपना तरीका है।
पंछी आश्चर्य से उसका मुंह देखता रह गया। ‘फिर मेरे पंख क्यों हैं? क्या करूंगा इनका मैं? अरे, जब पंख हैं तो मुझे और क्या चाहिए? जब मन करे ऊपर, जब चाहूं तब नीचे।’ वह बोला।
‘पर इस चक्कर में तुम अपनी कितनी एनर्जी और टाइम वेस्ट करते हो, पता भी है?’ आदमी ने कहा।
‘पर यही तो जीवन है।’
‘नहीं, यह जीवन नहीं है रे पगले। तुम पंछी लोग फालतू के कामों में समय नष्ट करते रहते हो। तुम्हें पता ही नहीं कि जीवन में और क्या क्या कर सकते हो।’ आदमी चकित है। कैसा जंगली है यह नादान कि उड़ान को ही जीवन समझता है। इसी में टाइम वेस्ट करता रहता है।
‘वैसे, तुम टाइम बचा कर क्या करते हो?’ पंछी ने पूछा।
‘बहुत काम हैं। बहुत आनंद है। टीवी देखता हूं, फिल्में देख लेता हूं, पार्टी करता हूं, शेयर मार्केट फॉलो करता हूं, यहां वहां पैसे लगाता हूं।… मैं ऐसे काम करता हूं जिससे मुझे आनंद मिले।’ आदमी ने उत्तर अवश्य दिया, पर लड़खड़ा गया।
पंछी उसे देखता रहा, घूर कर। ‘अगर तू इतना आनंदित ही है तो तेरा मुंह इतना सूखा सूखा क्यों है? तेरे माथे पर इतनी लकीरें क्यों हैं? तू इतना डरा डरा क्यों लगता है?’ पंछी ने पूछा।
‘नहीं, मैं डरा हुआ नहीं हूं। हां, जंगल में खड़ा हूं तो सतर्क जरूर हूं। डर रहता है न जंगल में। तो प्रीकॉशन लिए हूं, बस।’ आदमी बोला।
‘तो शहर में डर नहीं होते क्या?’
‘नहीं, वहां भी होते हैं।’
‘फिर?… क्या तू सारा जीवन डरे डरे ही गुजार देगा?…’
‘तू नहीं डरता?… तू इतना आनंदित कैसे रहता है?’
‘पता नहीं। मैं तो जो हूं, वही हूं।… शायद इसीलिए आनंदित लगता होऊंगा।’
‘वैसे, तू और आनंदित होना चाहे, तो बोल?’
‘वो कैसे?’
‘तू मेरे साथ शहर चल।… तू इतना अच्छा गाता है। वहां तेरा कॅरिअर बन जाएगा। खूब कमाएगा। शो होंगे। सोने का पिंजरा बन जाएगा। मैं तेरा बिजिनेस संभाल लूंगा, तो तेरा कॅरिअर यों ऊपर जाएगा कि…’ आदमी बताने लगा कि जंगल में कुछ नहीं धरा।
पंछी अचानक उड़ कर ऊपर वाली डाल पर बैठ गया।
आदमी नीचे खड़ा उसे फुसलाता रहा; सुन तो।… तेरा गाना और मेरी मार्केटिंग… चल मेरे साथ, बड़ा अनंद आएगा।
पंछी डाल पर बैठा चुपचाप घूर रहा था उसे। क्या उत्तर दे इस पागल को। इसे तो आनंद की परिभाषा ही नहीं पता।
इधर आदमी पंछी के पागलपन को समझ नहीं पा रहा। निराश होकर आदमी ने पंछी को देखा।… फिर वापस जाकर जीप मैं बैठ गया। गाइड ने पूछा, ‘आगे चलूं?’
‘नहीं यार, सड़क ठीक नहीं।… बड़े दचके हैं।… तुम लोग जंगल की सड़कें ठीक क्यों नहीं करते?’
गाइड चुप रहा। बड़ा आदमी है। मूर्खतापूर्ण बातें करने का हक है इसे। ‘तो?’
‘वापस चलो।…’ वह चिढ़ता हुआ बोला।
आदमी वापस गेस्ट हाउस आ गया। इधर गेस्ट हाउस में लाइट चली गई थी। इंटरनेट भी नहीं चल रहा। आदमी बेहद परेशान हो उठा। चिल्ला रहा था गेस्ट हाउस स्टाफ पर। क्या थर्ड रेट इंतजाम है यह। उसे फेसबुक अपडेट करनी है। जंगल में कितना मजा आ रहा है, यह बात ट्विटर करनी है। इंपोर्टेंट मेल आने थे- चेक करने हैं।… बेहद बेचैन था आदमी।
वह इस अव्यवस्था के लिए ऊंची आवाज में मैनेजर को डांट रहा था।
आदमी चीख रहा था। आदमी गुस्सा था।
गेस्ट हाउस की लॉबी का छोटा-सा आकाश उसकी बड़बड़ाहट और चिल्लाहट के कब्जे में आ गया था। पर शुक्र है कि बाहर एक बड़ा आकाश और था, जहां पंछी अब भी गा रहा था। (ज्ञान चतुर्वेदी)

