एक साथ चुनाव कराने पर सुझाव देने के लिए उच्च स्तरीय समिति गठित करने के पीछे सरकार की असली मंशा अब उसकी संदर्भ शर्तों के जरिए उजागर हो गई है। समिति के सामने पहली संदर्भ शर्त यह रखी गई थी कि वह ‘एक साथ चुनाव कराने की स्थितियों का अध्ययन और फिर इसकी सिफारिश करे…’। समिति को हुक्म दिया गया था कि वह इस बात की सिफारिश करे कि लोकसभा और भारत के अट्ठाईस राज्यों (और विधानसभाओं वाले केंद्र शासित प्रदेशों) के लिए एक साथ चुनाव कराना संभव और जरूरी है। हुक्म यह भी था कि समिति में एक साथ चुनाव कराने के विचार के खिलाफ कोई सिफारिश नहीं की जाएगी। समिति ने ईमानदारी से उस आदेश को पूरा किया।

कोई विद्वत निकाय नहीं

समिति की संरचना से भी तथाकथित अध्ययन में पक्षपात उजागर होता है। समिति के अध्यक्ष और आठ सदस्यों में केवल एक संविधान विशेषज्ञ था। एक अन्य सदस्य संसदीय प्रक्रिया से अच्छी तरह वाकिफ था, मगर उसने कभी किसी अदालत में कानून का व्यावहारिक उपयोग या कहीं कानून का अध्यापन नहीं किया था। दो राजनेता थे और एक नौकरशाह से राजनेता बना व्यक्ति था। तीन आजीवन सिविल सेवक रह चुके थे। रामनाथ कोविंद की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति शोभा भर के लिए थी और शायद इसका उद्देश्य समिति को और अधिक गंभीरता प्रदान करना था। समिति जो भी थी, वह निश्चित रूप से संविधान के विद्वानों का निकाय नहीं थी।

जैसा कि व्यापक रूप से अपेक्षित था, समिति ने सिफारिश की कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव पांच साल में एक बार, एक साथ होने चाहिए। मेरी जानकारी के अनुसार, किसी भी बड़े, संघीय और लोकतांत्रिक देश में इसका कोई उदाहरण मौजूद नहीं है। तुलना करने के माडल संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी हैं। अमेरिका में, प्रतिनिधि सभा के चुनाव दो वर्ष में एक बार होते हैं, राष्ट्रपति और राज्यपालों के पद के लिए चुनाव चार वर्ष में एक बार होते हैं और एक साथ नहीं होते हैं, और सीनेट के चुनाव तीन द्विवार्षिक चक्रों में छह साल में होते हैं। हाल ही में, जर्मनी के संघीय गणराज्य के दो राज्यों- थुरिंगिया और सैक्सोनी- में उनके खुद के चुनाव चक्र के अनुसार चुनाव आयोजित किए गए, जो बुंडेस्टैग (राष्ट्रीय संसद) के चुनाव चक्र से अलग थे।

कोविंद समिति एक ऐसे विचार की खोज कर रही थी, जो संघीय, संसदीय लोकतंत्र के विपरीत हो। संसदीय लोकतंत्र में, निर्वाचित सरकार हर दिन लोगों के प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होती है और कार्यपालिका के लिए कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता। संविधान सभा में राजनीतिक माडल के चयन पर बहस हुई थी। संविधान निर्माताओं ने निर्णायक रूप से राष्ट्रपति प्रणाली को अस्वीकार कर दिया और संसदीय प्रणाली को चुना था, क्योंकि उनका मानना था कि संसदीय प्रणाली भारत की विविधता के लिए अधिक उपयुक्त होगी।

सूत्र और सूत्रीकरण

कोविंद समिति की रपट रहस्यमय बीजगणितीय सूत्रों और सरलीकृत कानूनी सूत्रों का मिश्रण है। समिति ने स्वीकार किया है कि एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी: नए अनुच्छेद 82ए, 83(3), 83(4), 172(3), 172(4), 324ए, 325(2) और 325(3) बनाए जाएंगे और अनुच्छेद 327 में संशोधन किया जाएगा। इन नए प्रावधानों और संशोधनों का राज्य विधानसभा के कार्यकाल की समाप्ति तिथि को लोकसभा के कार्यकाल की समाप्ति तिथि के अनुसार व्यवस्थित करने के लिए उपयोग किया जाएगा।

मान लीजिए कि नवंबर-दिसंबर 2024 में संविधान संशोधन पारित हो जाते हैं (जैसा कि सरकार ने संकेत दिया है) और 2029 में एक साथ चुनाव निर्धारित हैं। ऐसे में, 2025, 2026, 2027 और 2028 (कुल 24) में निर्वाचित होने वाली राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल एक से चार वर्ष तक कम हो जाएगा! कल्पना कीजिए कि 2027 में केवल दो वर्ष के लिए या 2028 में केवल एक वर्ष के लिए राज्य विधानसभा का चुनाव हो! राज्य के लोग और राजनीतिक दल ऐसे चुनाव को क्यों स्वीकार करेंगे?

इससे भी बदतर, अगर चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा बनती है; या अगर विधानसभा में निर्वाचित राज्य सरकार हार जाती है; या यदि कोई मुख्यमंत्री इस्तीफा दे देता है और कोई भी बहुमत हासिल नहीं कर पाता है: ऐसी स्थिति में पांच वर्ष के शेष कार्यकाल के लिए फिर से चुनाव होंगे, जो कुछ महीनों के लिए भी हो सकते हैं! ऐसे चुनाव हास्यास्पद होंगे और केवल बहुत सारे पैसे वाले राजनीतिक दल या उम्मीदवार (याद रखें चुनावी बांड से समृद्ध दल) ही ऐसे चुनाव लड़ सकते हैं। ये सिफारिशें मुख्यमंत्री के हाथ में अपने असंतुष्ट विधायकों को कम अवधि के लिए नए चुनाव की धमकी देकर काबू में रखने का एक हथकंडा थमा देंगी।

कोई मुफ्त पास नहीं

कोविंद समिति की सिफारिशें इतिहास के बिल्कुल उलट हैं। 1951 से 2021 के बीच सात दशक के चुनावों में, केवल दो दशकों, 1981-1990 और 1991-2000 में अस्थिरता का दौर था। 1999 से उल्लेखनीय स्थिरता आई है। इसके अलावा, अधिकांश राज्य सरकारों/ विधानसभाओं ने अपने पांच साल के कार्यकाल पूरे किए। चुनावों के बीच अंतराल से आर्थिक वृद्धि पर कोई असर नहीं पड़ा: यूपीए ने दस वर्षों में 7.5 फीसद की औसत वृद्धि दर हासिल की और एनडीए ने दावा किया है कि उसने अपने दस वर्षों में इससे बेहतर प्रदर्शन किया है।

कोविंद समिति ने यह गलत अनुमान लगाया है कि एनडीए सरकार संसद में संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने में सक्षम होगी। इसके विपरीत, इस विधेयक को पराजित करने के लिए विपक्ष आसानी से लोकसभा में 182 सांसदों और राज्यसभा में 83 सांसदों को जुटा सकता है। ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का उद्देश्य एक बहुलतावादी और विविधता वाले देश पर एक आख्यान थोपना है। मुझे उम्मीद है कि एक राष्ट्र एक चुनाव का प्रस्ताव आने से पहले ही खत्म हो जाएगा।