सरकारें आएंगी और जाएंगी। लोग सरकारों की उतनी फिक्र नहीं करते, जितनी शासन की। किसी भी सरकार की बानगी उसकी प्राथमिकताएं ही होती हैं। केंद्र सरकार मई 2017 में अपना तीन साल पूरा करेगी। कुछ हफ्तों पहले, भारत के सबसे बड़े राज्य यानी उत्तर प्रदेश में, जहां कि हर पांचवां भारतीय निवास करता है, एक नई सरकार ने कमान संभाली है। उत्तर प्रदेश का विकास, या उसकी कमी देश के विकास के संकेतकों पर काफी असर डालती है। मैं तो यह भी कहूंगा कि केंद्र सरकार और सबसे बड़े राज्य की प्राथमिकताएं भिन्न नहीं हो सकतीं, खासकर तब, जब दोनों जगह एक ही पार्टी सत्ता में हो। कोई भी सरकार कोरे कागज पर शुरुआत नहीं करती। उसे पिछली सरकारों से कुछ निश्चित नीतियां और कार्यक्रम विरासत में मिले होते हैं जिन्हें वह जारी रख सकती है, संशोधित कर सकती है या छोड़ सकती है। इसके अलावा ढांचागत मुद््दे भी होते हैं जिनका सामना बाद में आने वाली सरकारों को करना ही पड़ता है। मेरे खयाल से, यही मानना चाहिए कि हर सरकार अपने तर्इं पूरी कोशिश करती है। कोई सरकार सफल हुई या नहीं, यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब जनता पर छोड़ देना चाहिए। अब जबकि राजग सरकार तीन साल पूरे करने वाली है, हमारे पास महत्त्वपूर्ण रिपोर्टें/आधिकारिक आंकड़े हैं। वे हैं: रिजर्व बैंक के आंकड़े; औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) के आंकड़े; राष्ट्रीय आय और व्यय की बाबत दूसरा पूर्वानुमान; तीन तिमाही रोजगार-रिपोर्टें। मैं आपके साथ मुख्य निष्कर्ष साझा करूंगा।
कड़वी सच्चाई
* रिजर्व बैंक के आंकड़े जनवरी 2015 से जनवरी 2017 के बारे में हैं, जो कि चौबीस महीनों की अवधि है। इस अवधि के दौरान, सारे उद्योगों के लिए बैंक-ऋण में महज 7413 करोड़ रुपए या 0.29 फीसद की वृद्धि हुई। इनमें सूक्ष्म, लघु, मझोले और बड़े, सभी तरह के उद्योग शामिल हैं। यही कारण है कि मैन्युफैक्चरिंग (क्षमता के उपयोग या क्षमता बढ़ाने के अर्थ में) और रोजगार-वृद्धि में ठहराव दिख रहा है।
* इसकी पुष्टि आइआइपी के आंकड़ों से भी होती है। जनवरी 2015 और जनवरी 2017 के बीच औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) में महज 1.1 फीसद की बढ़ोतरी हुई (189.2 से 191.3)।
* राष्ट्रीय आय और व्यय के पूर्वानुमान के आंकड़े इसे और भी पुष्ट करते हैं। 2015-16 में कुल निश्चित पूूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) था 6.11 फीसद। 2016-17 में जीएफसीएफ की वृद्धि दर तेजी से लुढ़कते हुए 0.57 फीसद पर जा पहुंची।
* और रोजगार के आंकड़े भी निराशाजनक खबर देते हैं। श्रम ब्यूरो ने अब तक तीन रिपोर्टें जारी की हैं। इन रिपोर्टों में आठ गैर-कृषि क्षेत्रों के आंकड़े दिए गए हैं: मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण, व्यापार, परिवहन, आवास, आइटी/बीपीओ, शिक्षा और स्वास्थ्य। पहली रिपोर्ट 1 अप्रैल, 2016 को किए गए आधारभूत सर्वे पर आधारित है। इन आठ क्षेत्रों में कोई दो करोड़ कामगार लगे हैं। दूसरी और तीसरी रिपोर्ट 2016-17 की पहली दो तिमाहियों (अप्रैल से सितंबर, 2016) के बारे में बताती है। इन आठ क्षेत्रों ने पहली तिमाही में 77,000 और दूसरी तिमाही में 32,000 रोजगार जोड़े, यानी दोनों को मिलाकर सिर्फ 1,09,000 नए रोजगार; मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया के बावजूद।
अप्रासंगिक मुद््दे
अर्थव्यवस्था की दशा बाहरी कारकों, पिछली सरकारों से मिली विरासत, ढांचागत समस्याओं, नीतिगत निर्णयों, नियामक क्षमता, संस्थागत शक्तियों और कमजोरियों तथा प्रशासनिक क्षमता आदि कई बातों पर निर्भर करती है। हालांकि मौजूदा सरकार ही मुख्यत: जवाबदेह होती है, पर इस स्तंभ का मकसद दोष मढ़ना नहीं, बल्कि यह सवाल उठाना है कि मौजूदा सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं?
जवाब हमें घूर रहा है। कोई भी अखबार खोलिए या कोई भी समाचार चैनल देखिए। जो सुर्खियां हमारे सामने चिल्लाती हुई होंगी वे हैं- अवैध बूचड़खाने, कथित गऊरक्षकों के उत्पात, शराब की दुकानों की बंदी, एंटी रोमियो दस्ते, अफ्रीकी अश्वेतों पर नस्ली हमले, विश्वविद्यालयी परिसरों में टकराव, आधार कार्ड की अनिवार्यता, तीन तलाक, अयोध्या में राम मंदिर बनाने की बातें, दो हजार के जाली नोट, आदि। शायद ही किसी को निवेश, ऋण-वृद्धि या रोजगार का जिक्र सुनने को मिले।
तीन प्राथमिकताएं
मौजूदा स्थिति में किसी भी सरकार की प्राथमिकताएं होनी चाहिए:
(1) अधिक निवेश, खासकर निजी निवेश;
(2) बैंक-ऋण में खासी बढ़ोतरी, विशेषकर ऋण से वंचित सूक्ष्म, लघु तथा मझोले उद्यमों में; और
(3) रोजगार का निर्माण, खासकर प्रचुर रोजगार देने वाले उद्योगों तथा सेवाओं में।
तीनों प्राथमिकताएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। निवेश और ऋण- या तो दोनों पनपते हैं, या दोनों सूख जाते हैं। दोनों मुख्यत: उद्यमियों के उत्साह पर निर्भर करते हैं, जो कि निजी क्षेत्र से वास्ता रखते हैं। जहां तमाम विदेशी निवेशकों के सामने ढेरों गंतव्य रहते हैं (भारत उनमें से सिर्फ एक है), वहीं बड़े भारतीय निवेशकों के सामने भी कम से कम दर्जन भर विकल्प रहते हैं। मगर सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों के पास बाहर पूंजी लगाने का विकल्प नहीं हो सकता, उनके पास फिर यही विकल्प हो सकता है कि वे नए निवेश से तौबा कर लें!
बड़े कारोबार बैंक या बाजार से भी कर्ज ले सकते हैं, लेकिन सूक्ष्म, लघु तथा मझोले उद्यम तो पूरी तरह बैंक-ऋण पर ही निर्भर होते हैं।
बैंक-ऋण की बढ़ोतरी अमूमन निवेश में वृद्धि का एक अच्छा पैमाना मानी जाती है। कड़वा सच यह है कि दो साल के दरम्यान (2015 और 2016), निवेश और बैंक-ऋण, दोनों में ही सूखा रहा।
इसका अनिवार्य परिणाम है बेरोजगारी में बढ़ोतरी। यह श्रम ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों से जाहिर है। छह महीनों में आठ गैर-कृषि सेक्टरों में (जो कि गैर-कृषि क्षेत्रों के अधिकांश रोजगार मुहैया कराते हैं) सिर्फ 1,09,000 नए रोजगार का सृजन, अर्थव्यवस्था की शोचनीय दशा का ही सूचक है। जबकि हर साल दो करोड़ नए रोजगार का वादा किया गया था।
हमें अपनी प्राथमिकताएं दुरुस्त करने की जरूरत है। हमें बातें कम करने तथा निवेश, ऋण और रोजगार पर ज्यादा काम करने की जरूरत है। यह भी जरूरी है कि हम उन मुद््दों पर शोर मचाना कम करें जिनका अर्थव्यवस्था की सेहत से कोई वास्ता नहीं है।