यह एक अलिखित नियम है कि इस दुनिया में कम से कम एक क्षेत्र ऐसा है जहां दखलंदाजी हरगिज नहीं होनी चाहिए। यह क्षेत्र विश्वविद्यालय का है। विश्वविद्यालय सिर्फ भवनों का समुच्चय नहीं होता। न तो यह कॉलेजों या शोध केंद्रों का जोड़-भर है। इसका मकसद केवल उन युवा स्त्री-पुरुषों को डिग्री बांटना नहीं होता, जो यहां दाखिला लेते हैं, विभिन्न विषयों की पढ़ाई करते हैं और इम्तहान पास करते हैं। यह एक जगह है जो ज्ञान तथा स्वतंत्रता को पल्लवित-पुष्पित करती है और सारी दुनिया के बच्चों को बताती है कि ज्ञान व स्वतंत्रता के भंडार से किस प्रकार ग्रहण करें और किस प्रकार उसमें अपना अंशदान करें।
सर्वोत्तम की सूची से नदारद
कोई विश्वविद्यालय केवल इसलिए महान नहीं हो जाता कि उसके पास बुद्धिशाली तथा काबिल शिक्षक हैं, बल्कि उसकी महानता का कारण यह भी होता है कि वह मेधावी व रचनात्मक रुझान के विद्यार्थियों को आकर्षित करता है। एक बार हावर्ड विश्वविद्यालय के अध्यक्ष से यह पूछा गया कि हावर्ड के ज्ञान-केंद्र बने रहने की वजह क्या है। उसका जवाब था: ‘क्योंकि नए विद्यार्थी बहुत सारा ज्ञान लेकर आते हैं और स्नातक श्रेणी बहुत कम लेती है!’ कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय हावर्ड या स्टैनफोर्ड या कैंब्रिज, मैकगिल या सोरबॉन या चीन के नए- पुनर्नवा- विश्वविद्यालयों (जो काफी आगे बढ़े हुए हैं और जिन्होंने दुनिया के सर्वोत्तम दस या सर्वोत्तम पचास या सवोत्तम सौ विश्वविद्यालयों की सूची में जगह बनाई है) की बराबरी नहीं कर सकता। भारत के एक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय को उपलब्धि हासिल भी हुई तो विश्व के सर्वोत्तम दो सौ से दो सौ पचास की सूची में।
यह एकमात्र उपलब्धि दरअसल चिंता का विषय होनी चाहिए। इसके पीछे पैसे की तंगी को मुख्य बाधा के तौर पर चिह्नित किया गया है। इस सिलसिले में मैंने एक साहसिक कदम उठाया था, जिसे तब व्यापक रूप से सराहा भी गया: मैंने भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु को केंद्रीय बजट से 100 करोड़ रुपए देने की घोषणा की थी, ‘बिना किसी शर्त के’। आप चाहें तो इसे झक में की गई घोषणा कह सकते हैं। यह अप्रत्याशित कदम था। किसी ने भी इसकी मांग नहीं की थी- न तो संस्थान के निदेशक ने और न ही संबंधित मंत्रालय ने। वे नहीं जानते थे कि इस धनराशि का क्या करें! बाद के वर्षों में इसी तरह का अनुदान कुछ अन्य अग्रणी संस्थानों के लिए भी मंजूर किया गया। कोलकाता, मुंबई और मद्रास विश्वविद्यालयों को भी, उनके अर्धशती वर्ष में, सौ-सौ करोड़ के अनुदान दिए गए। मुझे नहीं मालूम, कि इन अनुदानों के सहारे कुछ ऐसा हुआ हो जिसे दिखने लायक फर्क कहा जा सके।
खंडित मॉडल
कम आबंटन समेत सारी बाधाएं न सिर्फ बनी रही हैं बल्कि और विकट हुई हैं। विश्वविद्यालयों से संबंधित नियम-कायदे पुराने पड़ चुके हैं। कुलपतियों की नियुक्ति या तो राज्य सरकारें करती हैं या केंद्र सरकार, और कई नियुक्तियां बेहद मनमाने तरीके से हुई हैं। अधिकतर विश्वविद्यालयों में शिक्षण का स्तर बहुत खराब है और शोध-कार्य बहुत कम होते हैं या न के बराबर। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एक और नियंत्रणकर्ता बन बैठा है, या असल में, रेवड़ियां बांटने का माध्यम। अनुदान की मंजूरी, मान्यता और संबद्धता के सिलसिले में पेशेवर संगठनों (मेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया, बार काउंसिल आॅफ इंडिया, आदि) की राय निर्णायक मानी जाती है। लेकिन राज्य सरकारों या अदालतों द्वारा नियुक्त की गई समितियों ने विद्यार्थियों के दाखिले और फीस के निर्धारण जैसे नियमन के मामलों को अपने हाथ में कर लिया है। विदेशों के महान विश्वविद्यालयों के विपरीत, भारत में विश्वविद्यालय प्रशासन को विश्वविद्यालय से संबंधित सारे मामलों के नियमन का अधिकार हासिल नहीं है। अधिकार बहुत सारे प्राधिकरणों में विभाजित है और नतीजतन स्वायत्त विश्वविद्यालय की परिकल्पना धूमिल हो गई है। एक और संस्था का सत्यानाश कर दिया गया है।हाल के वर्षों में, हमने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं कि जाने-माने विद्वानों ने सरकार की बेजा दखलंदाजी के विरोध में इस्तीफा दे दिया। हमने कई संदिग्ध नियुक्तियों के मामलों में पद से हटाए जाने के उदाहरण भी देखे हैं।
केंद्रीय विश्वविद्यालय, आइआइटी और आइआइएम एक समय प्रतिस्पर्धी श्रेष्ठता के द्वीप की तरह देखे जाते थे, लेकिन दूसरे सरकारी विश्वविद्यालयों की तरह अब ये भी टकराहट के क्षेत्र बन गए हैं। हैदराबाद विश्वविद्यालय राजनीतिक जुड़ाव वाले दो विद्यार्थी-ग्रुपों के बीच के रोजाना के एक झगडेÞ को नहीं सुलटा सका। जेएनयू वजूद के संकट को झेल रहा है, क्योंकि इसकी स्थापना में निहित विचार, आरएसएस-भाजपा के विचारों से एकदम विपरीत हैं। छात्रसंघ के एक नेता (कन्हैया कुमार) को सरेआम अदालत-परिसर में मारा-पीटा गया तथा राजद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया गया, हालांकि औपनिवेशिक जमाने के इस कानून को लागू करने लायक तनिक भी साक्ष्य नहीं था। एक अन्य कॉलेज (रामजस कॉलेज) में एक विद्यार्थी नेता (उमर खालिद) को बुलाया जाना, राष्ट्र-हित के स्वयंभू प्रतिनिधियों (एबीवीपी) के लिए हमला बोलने का बहाना बन गया। पुलिस चुपचाप देखती रही।
सुधार की जरूरत
अगर हम चाहते हैं कि उच्चशिक्षा पुसाने लायक हो, और उस तक समाज के विभिन्न तबकों की पहुंच हो, तो सरकारी पैसे से चलने वाले विश्वविद्यालयों का कोई विकल्प नहीं है। पर इसी के साथ-साथ, प्राइवेट विश्वविद्यालयों के लिए भी भरपूर गुंजाइश होनी चाहिए, जो सरकारी नियंत्रण और दखलंदाजी से बचे रहते हैं। दोनों मॉडल साथ-साथ चल सकते हैं। दोनों पर लागू होने वाले सामान्य नियम ये हैं-
1. एक स्वतंत्र संचालक मंडल (बोर्ड आॅफ गवर्नर्स) होना चाहिए, जिसके सदस्यों के चयन और नियुक्ति के लिए स्पष्ट और पारदर्शी नियम-कायदे हों;
2. विश्वविद्यालय मुनाफा बटोरने वाला संस्थान नहीं हो सकता, उसे अपना अधिशेष विश्वविद्यालय में ही लगाना चाहिए; और
3. विश्वविद्यालय को शैक्षिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों की बाबत दाखिले तथा नियुक्तियों में आरक्षण संबंधी नियमों को लागू करना ही चाहिए।
आज कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय गुणवत्ता के पैमाने पर खरा न उतरने के आरोप से बच नहीं सकता। यह एक चमत्कार ही है कि सैकड़ों विद्यार्थी जो प्रारंभिक ज्ञान हासिल करते हैं वह उनकी देशज प्रतिभा और कठिन श्रम करने की तैयारी से जुड़ कर उन्हें विदेश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पहुंचा देता है, जो उन्हें एक संभावनाप्रद कैरियर की तरफ ले जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण मगर सच है कि भारतीय विद्यार्थी अपना श्रेष्ठतम तलाश पाते हैं, तो मौजूदा विश्वविद्यालयी व्यवस्था के सहारे नहीं, बल्कि खंडित व्यवस्था के बावजूद।
यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां सुधार की सख्त जरूरत है।