संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के बहिर्गमन के पश्चात हुई बहस के बाद (अच्छे कारणों से), भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को बदलने (और फिर से लागू करने) के लिए तीन विधेयक पारित किए गए। नए विधेयकों के नाम हिंदी (या संस्कृत) में थे, यहां तक कि उनके अंग्रेजी संस्करणों में भी। राष्ट्रपति ने विधेयकों को अपनी मंजूरी दे दी और सरकार ने अधिसूचित कर दिया कि नए कानून एक जुलाई, 2024 से लागू होंगे।

नए कानूनों का कई ओर से कड़ा विरोध हो रहा है। सरकार ने विरोध के आधारों को अप्रासंगिक और प्रायोजित बताकर खारिज कर दिया है। सरकार अपने अड़ियल रवैए के चलते कानूनों के विरोध को रोकने का प्रयास नहीं कर रही है। इसके उलट, दो राज्य सरकारों ने घोषणा कर दी है कि वे अपनी विधानसभाओं में कुछ संशोधन लाएंगी। तमिलनाडु ने एक महीने के भीतर इनमें परिवर्तन संबंधी सुझाव देने के लिए एकल सदस्यीय समिति नियुक्त कर दी है। कर्नाटक और अन्य राज्य सरकारें भी यही रास्ता अपना सकती हैं। इसलिए तथ्यों और मुद्दों को जनता के सामने रखना और नागरिकों से अपने निष्कर्षों से अवगत कराने को कहना जरूरी है।

‘आपराधिक कानून’ संविधान की समवर्ती सूची का विषय है

‘आपराधिक कानून’ संविधान की समवर्ती सूची का विषय हैं। संसद और राज्य विधानमंडल दोनों ही इस विषय पर कानून बनाने के लिए सक्षम हैं। निस्संदेह, अगर संसद द्वारा बनाए गए कानून और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानून एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं, तो संविधान का अनुच्छेद 254 लागू होगा। हालांकि, यह एक ऐसा मुद्दा है, जो राज्य विधानमंडल द्वारा कानून बनाए जाने, उसके प्रतिकूल होने और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानमंडल की तरफ से पारित कानून को अपनी मंजूरी न दिए जाने के बाद उठेगा।

इस बीच, नए कानूनों का विरोध करने वालों द्वारा उठाए गए सवालों को सुना और उनका जवाब दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से, केंद्र सरकार ने संसद में या बाहर, जवाब देने से इनकार कर दिया है। सवाल ये हैं :

  1. क्या यह सही है कि तीन नए कानूनों के अधिकांश प्रावधान हटाए गए तीनों कानूनों से ही ‘नकल किए और चिपकाए’ गए हैं? क्या यह सही है कि नए कानूनों में आइपीसी और सीआरपीसी की 90-95 फीसद धाराएं और साक्ष्य अधिनियम की 95-99 फीसद धाराएं बरकरार रखी गई हैं और हर धारा को नए ढंग से क्रमांकित किया गया है? अगर मौजूदा कानूनों में कुछ जोड़ने, हटाने और बदलाव करने की आवश्यकता थी, तो क्या संशोधनों के माध्यम से वही नतीजे हासिल नहीं किए जा सकते थे? क्या यह दावा खोखला नहीं है कि सरकार ने ‘औपनिवेशिक विरासत’ को खत्म कर दिया है?

अगर इरादा आपराधिक कानूनों में व्यापक संशोधन और बदलाव का था, तो विधि आयोग को इनका संदर्भ देने की पुरानी प्रथा का पालन क्यों नहीं किया गया? क्या विधि आयोग सभी हितधारकों से परामर्श करने और विधेयकों के प्रारूप के साथ अपनी सिफारिशें सरकार और संसद के विचार के लिए प्रस्तुत करने की खातिर सबसे उपयुक्त निकाय नहीं था? विधि आयोग को क्यों दरकिनार किया गया और यह काम एक ऐसी समिति को क्यों सौंपा गया, जिसमें अंशकालिक सदस्य शामिल थे, जो एक को छोड़कर सभी विभिन्न विश्वविद्यालयों में पूर्णकालिक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे?

क्या नए कानून आपराधिक न्यायशास्त्र के आधुनिक सिद्धांतों के अनुरूप हैं? क्या नए कानूनों में पिछले दस वर्षों में दिए गए ऐतिहासिक निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित प्रगतिशील सिद्धांतों को मान्यता दी गई और उन्हें शामिल किया है? क्या नए कानूनों के कई प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्यायित भारतीय संविधान के विपरीत हैं?

नए कानूनों में ‘मृत्युदंड’ को क्यों बरकरार रखा गया है, जिसे कई लोकतांत्रिक देशों में समाप्त किया जा चुका है? ‘एकांत कारावास’ की क्रूर और अमानवीय सजा क्यों शुरू की गई है? ‘व्यभिचार’ के अपराध को आपराधिक कानून में वापस क्यों लाया गया है? क्या ‘मानहानि’ को आपराधिक कृत्य के रूप में बनाए रखना आवश्यक था? क्या ‘मानहानि’ की आपराधिक शिकायत दर्ज करने के लिए समय सीमा निर्धारित करना आवश्यक नहीं था? दूसरे व्यक्ति की सहमति के बिना समलैंगिक संबंध अब अपराध क्यों नहीं है? क्या ‘सामुदायिक सेवा’ की सजा को परिभाषित करना या कम से कम सामुदायिक सेवा के उदाहरण देना आवश्यक नहीं था?

‘राजद्रोह’ के अपराध को क्यों बढ़ाया और बरकरार रखा गया है? ‘आतंकवाद’ के अपराध को सामान्य आपराधिक कानून में क्यों लाया गया है, जबकि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम नामक एक विशेष अधिनियम है? ‘चुनावी अपराध’ को नए कानून में क्यों शामिल किया गया है, जबकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 नामक विशेष कानून पहले से हैं?

क्या नए कानूनों में पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और उस व्यक्ति की पुलिस हिरासत की मांग करने के लिए अधिक छूट दी गई है? क्या नए कानूनों में सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन की अनदेखी की गई है कि गिरफ्तार करने की शक्ति का मतलब गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं होता है? क्या कानून में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान करना आवश्यक नहीं था कि ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद है’? क्या गिरफ्तारी की वैधता और गिरफ्तारी की आवश्यकता की जांच करने के लिए मजिस्ट्रेट को बाध्य करना आवश्यक नहीं था? क्या जमानत के प्रावधानों में मजिस्ट्रेट को गिरफ्तारी के बाद 40/60 दिनों के लिए जमानत देने से इनकार करने की आवश्यकता है?

क्या वह प्रावधान संवैधानिक है, जिसके तहत अपराध की जगह की परवाह किए बिना देश के किसी भी पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है? क्या वह प्रावधान, जो उस राज्य की पुलिस को आरोपी को गिरफ्तार करने और अपराध की जांच करने का अधिकार देता है, ‘पुलिस’ की राज्य सूची का विषय होने के मद्देनजर असंवैधानिक है? क्या उक्त प्रावधान ‘संघवाद’ के सिद्धांत के विपरीत हैं, जो संविधान की एक बुनियादी विशेषता है? और भी कई सवाल हैं। सवाल पूछने और जवाब पाने का मंच कौन-सा है? सरकार में अभी तक किसी ने भी सवालों के जवाब नहीं दिए हैं, लेकिन सवाल खत्म नहीं होंगे। फिर भी देश में आपराधिक न्याय के प्रशासन के लिए सबसे बुनियादी कानून ‘लागू हो गए हैं’- कुछ लोगों द्वारा और कुछ लोगों के लिए सरकार, के एक उदाहरण के रूप में।