मिथक धर्म प्रणीत श्रद्धा और भक्ति के अतिरिक्त भी अर्थपूर्ण होते हैं। हम चाहें तो उन्हें सभ्यता और जीवन के विकासक्रम की प्रतीक कथाओं की तरह भी पढ़ सकते हैं। तब वे अंधेरे में पड़े मानवजाति के अब तक के पूरे जैव-सामाजिक इतिहास में प्रवेश करने का द्वार हो सकते हैं। हम उनकी व्याख्या मानवजाति के सामूहिक अचेतन से प्रकट हुए स्वप्नों की तरह कर सकते हैं। उन्हें इस तरह देखने पर हमें वहां जीवन और समाज के अव्याख्यायित विकासक्रम के सूत्र तक मिल सकते हैं।

इस तरह के मिथकों को कार्ल गुस्ताव जुंग ने ‘आद्य-बिंब’ (आर्केटाइप) कहा है। कृष्ण की मिथक कथा में ‘ऋतु-चक्र’ इसी तरह का एक आद्य-बिंब है। सहस्राब्दियों से ऋतुएं जीवन के शिल्पकार की तरह अपना काम करती आई हैं। उनके साथ पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन, प्राणियों में ‘जैव-लय’ (बायो रिदम) की तरह, उनका हिस्सा हो जाते हैं। तब ऋतु-चक्र एक पर्यावरणीय घटना मात्र नहीं रह जाते। वे जीवन के विकास की अंतस्संरचनाओं में बदल जाते हैं। पिछले कुछ दशकों में मानव मस्तिष्क पर हुए शोध ने जीवन के अनेक रहस्यों के ऊपर से पर्दा उठाया है। कुछ लोग ‘साइबरनेटिक्स’ के शोध के उस पहलू पर केंद्रित हुए हैं, जिसका ताल्लुक चेतना के बुनियादी प्रकार्य को समझना है।

वे ‘चेतना के स्रोतों’ को खोजते हुए मस्तिष्क-मूल (ब्रेन स्टेम) की कार्य प्रणाली को समझने का प्रयास कर रहे हैं। वहां उन्हें जिजीविषा और मृत्यु-मूलक उदासीनता या वैराग्य जैसे भाव पड़े मिले हैं। दूसरी चीज ‘विरोधी भावों में संतुलन’ (थर्मोस्टेटिस) है। इससे हमारी जैव-लय का निर्माण होता है।

इससे हम जीवन और मृत्यु, कर्म और वैराग्य के बीच डोलते हुए समत्व को साधने वाले प्राणी बन जाते हैं। कृष्ण जिस ‘कर्मसु कौशलम्’ को अपने कर्म-योग के सिद्धांत की तरह उद्घाटित करते हैं, वह क्या यही ‘समत्व साधना’ नहीं है? वह जीवन की उस लय को पाने से जुड़ी बात है, जो हर्ष-शोक, सुख-दुख, जीवन-मृत्यु आदि ध्रुवों के दरम्यान ‘समत्व-बुद्धि’ जैसी हो।

सवाल है कि जीवन की अंतर्लय के ये दो ध्रुव हमारी बुनियादी जैव संरचना की शक्ल कैसे लेते हैं? इसका जवाब इस ऋतु-चक्र के सहस्राब्दियों के अंतराल में व्याप्त इतिहास से मिलेगा। प्रकृति ने ऋतुओं के परिवर्तन का जो चक्र बनाया है, वह पृथ्वी पर जीवन और मृत्यु का नियामक है। यह आकस्मिक नहीं है कि बसंत के आते ही वनस्पतियों की कोपलें फूट पड़ती हैं, बीज अंकुरित होने लगते और सब हरा-भरा हो जाता है। सर्दी के बाद आए पतझड़ में पहाड़ों पर जमी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है। बसंत के आते-आते नदियां जल से परिपूर्ण हो जाती हैं। जल और हरी घास की प्रचुरता से गाय-भैंसों का दूध बढ़ जाता है।

जीवन के उद्गम का यह उत्सव हमारे कृष्ण के मिथक में बसंत-केंद्रित हो गया है। भगवद्गीता में जब कृष्ण कहते हैं कि मैं ‘समस्त ऋतुओं में मैं वसंत ऋतु हूं।’ तो लगता है कि प्रकृति, जीवन और मिथक, ये तीनों यहां तदाकार हो गए हैं। बसंत का संबंध जीवन के स्रोत से है। वैज्ञानिकों के मुताबिक जीवन की सभी संभावनाएं, एक कुदरती कूट-लिपि की शक्ल में, प्राणियों के गुण-सूत्रों में दर्ज होती हैं। फिर भी वह जीवन के जैव पक्ष की कथा है। जबकि जीवन अपनी इन जैव संभावनाओं को तभी चरितार्थ कर पाता है, जब वह चेतना से युक्त होता है।

चेतना प्राणियों में जन्म से ही मौजूद दिखाई देती है। उसे वेदों में जैव-शरीर के भोक्ता और साक्षी के रूप में व्याख्यायित किया गया है। यानी वह जीवन का हिस्सा भी है, उससे अलग भी। जीवन का जैव पक्ष इंद्रियों से ताल्लुक रखता है। इंद्रियों का सार मन के रूप में सामने आता है। पर जीवन के इस जैव-पक्ष में वह जो स्वयं जीवन का पर्याय है, जिसके बिना जीवन जीवन नहीं होता, उसे यहां चेतना कहा गया है। इससे हम इस विचार तक पहुंच सकते हैं कि अगर प्रकृति का प्रयोजन जीवन को संभव बनाना है, तो उसका असल माध्यम है बसंत। और बसंत का प्रयोजन है, जीवन को मन और चेतना से संपन्न करके अपनी परिणति तक ले जाना। तथापि यह जो स्वयं जीवन का लक्ष्य है, वह ऋतु-चक्र की नए-नए रूपों में आवृत्तियों से ही संभव है।

अनेक मिथक कथाएं, एक दूसरी से जुड़ कर, इस चक्रीय आवृत्ति के रहस्य से भी पर्दा उठाती हैं। कृष्ण कहते हैं कि वे समस्त ऋतुओं में बसंत हैं और फिर उनके यहां जो पुत्र पैदा होता है, उसे कामदेव का पुनरावतार कहा जाता है। यहां शिव के मिथक वाले जीवन-चक्र का क्रम उलट गया है। शिव के मिथक में बसंत काम का पुत्र है। जबकि कृष्ण का मिथक बसंत से काम की उत्पत्ति की बात करता है। शिव के मिथक में देवता अपने इसी कुदरती अर्थ में नजर आते हैं। वहां हम पृथ्वी और उसके पर्यावरण के भीतर से प्रकट होते जीवन को देखते हैं।

जीवन का वह रूप ऐंद्रीय या दैहिक है। शिव इंद्रियों पर मन के नियमन के दौर का सूत्रपात करते हैं। कृष्ण का मिथक जीवन के अगले विकास-चरण से ताल्लुक रखता है। वहां तक पहुंचते-पहुंचते मानवजाति के सामने पर्यावरण को अपने मूल रूप में बचाए रखने का संकट उपस्थित हो जाता है। अब बसंत को उसके मूल रूप में बचाना जरूरी हो गया है। ये मिथक हमें बताते हैं कि जीवन को उसके मूलभूत नैसर्गिक रूप में बचाना हो, तो पृथ्वी और उसके पर्यावरण को, बसंत के रूप में प्रकट होते रहने लायक बनाना होगा।