बीते कुछ समय से कोरोना के चलते करोड़ों लोग घरों में बंद हैं। महामारी का डर, वित्तीय संकट के चलते लोग तनाव में हैं। किंग्स कॉलेज लंदन ने हाल ही में क्वारेंटाइन के असर से जुड़े विश्लेषण में भावात्मक अस्थिरता, उदासी, चिंता और अवसाद की चर्चा की है। ये तमाम चिंताएं पुरुषों से जोड़ कर देखी जा रही हैं। समाज की इसी कठोरता को देखते हुए 3 अपै्रल को संयुक्त राष्ट्र ने ट्विटर पर लिखा- ‘विश्वव्यापी महामारी, कोविड-19 उन महिलाओं पर अधिक भार डाल रही है, जो घर में देखभाल और रखरखाव के काम की अधिकांश जिम्मेदारी संभालती हैं।

यह हम सब का दायित्व है कि घर की जिम्मेदारियां सभी के बीच बांटी जाएं।’ पर क्या वाकई ऐसा होगा? वहीं नॉर्थ वेस्टर्न विश्वविद्यालय, कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय और मैनहेम विश्वविद्यालय ने मिल कर एक शोधपत्र में बंदी के बाद लैंगिक समानता के परिणामों की भविष्यवाणी करते हुए कहा है कि बंदी के समय और बाद में कामकाजी महिलाओं के पति घर के दायित्व संभालने को लेकर जिम्मेदार बनेंगे। पर क्या वाकई ऐसा होगा?

विकसित से लेकर विकासशील देशों में बिना किसी विवाद के यह स्वीकार किया जाता रहा है कि पुरुषों का काम घर से बाहर का है और महिलाओं का घर के भीतर का। इसी साल फरवरी में एक सर्वे से पता चला कि पुरुष लैंगिक समानता को खराब नहीं मानते। वे इसे लेकर खुले विचारों वाले हो गए हैं। मगर घर के कामकाज के संबंध में उनका स्पष्ट रूप से मानना है कि बच्चे संभालना और रसोई महिलाओं की ही जिम्मेदारी है। गैलप के एक सर्वे के मुताबिक पुरुष को ही कमाने वाला समझने वाली पारंपरिक धारणा पुरुषत्व के साथ करीब से जुड़ी हुई है। अगर हम यह सोच कर स्वयं को दिलासा दे रहे हैं कि यह सोच मध्यम आयु के पुरुषों की है और नई पीढ़ी ऐसा नहीं सोचती, तो यह गलत है।

‘जेंडर फ्लेक्सिविलिटी बट नॉट इक्वालिटी : यंग एडल्ट्स डिविजन आॅफ लेबर प्रेफरेंस’ शीर्षक से यूनिवर्सिटी आॅफ मेरीलैंड तथा टेक्सास विश्वविद्यालय के अध्ययन से यह बात सामने आई कि स्कूलों में पढ़ रहे किशोर छात्रों में से चौथाई छात्रों का यह मानना है कि छोटे बच्चों की देखभाल और घर की जिम्मेदारी महिलाओं की है। आदर्श परिवार की कार्य-व्यवस्था के स्वरूप को लेकर लगभग सभी छात्रों का मानना था कि महिलाओं को घर में रहना चाहिए।

क्या स्त्रियां सदा से घरेलू कार्य करती आई हैं? क्या उनकी शारीरिक बनावट और मानसिक संरचना ऐसी है कि वे घरेलू काम में स्वयं को सहज पाती हैं, तो इस तरह के तमाम प्रश्नों का एक ही उत्तर है। ऐसा कोई भी वैज्ञानिक शोध सिद्ध नहीं कर पाया है कि स्त्री और पुरुष जैविक विभेद के कारण घर और बाहर के काम के बंटवारे करते हैं। बेंरोनिका वेंहोल्ट थॉमसन ने 1982 में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि घरेलू स्त्री दुनिया के सभी देशों में घर बाहर तरह-तरह के काम करती है, पर उनके कामों का मूल्यांकन आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से करने के बजाय इस सोच के इर्द-गिर्द घूमता है कि स्त्रियां जो करती हैं, वे घरेलू काम हैं और वे प्राकृतिक या स्वाभाविक रूप से इसी काम के लिए बनी हैं।

‘इसी काम के लिए बनी हैं’ यह एक सोच भर नहीं है, बल्कि सदियों से किए गए वे अथक प्रयास हैं, जिनके भीतर ही लड़कियों को गढ़ा जाता है। वास्तविकता यह है कि लड़के-लड़कियों को यह अंतर समाज और परिवार सिखाता है और समाजीकरण की प्रक्रिया लड़कियों को धीरे-धीरे यह सोचने पर विवश कर देती है कि वे तभी सामाजिक ढांचे में स्वयं को ढाल पाएंगी, जब वे घर के भीतर के सभी कार्यों को निपुणता से कर सकेंगी। समस्या की जड़ इसी सोच से जुड़ी है, जहां लड़कों को बचपन से यह सिखाया जाता है कि वे परिवार के भावी मुखिया हैं और लड़कियों को यह बताया जाता है कि वे तभी अच्छी मानी जाएंगी, जब वे हर स्थिति में पहली प्राथमिकता परिवार को देंगी।

‘प्रभुत्व’ का भाव पुरुषों के हिस्से और देखभाल का स्त्री के हिस्से- दोनों के व्यक्तित्व को इस तरह गढ़ देता है कि वे इस खोल से बाहर निकलने की कोशिश ही नहीं करते। पुरुष का काम घर के भीतर का नहीं होता, यह सोच उनमें भरी जाती है। लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता टोनी पॉर्टर ने 2010 में अपने एक भाषण में कहा था- ‘मर्दानगी की मानसिकता को ठोक-ठोक कर इतने सारे बालकों और पुरुषों के मन में घुसाया जाता है और अगर हम इस मर्दाने डिब्बे (मेल बॉक्स) से नहीं बचेंगे, तो समाज में लैंगिक समानता स्वप्न भर रह जाएगी।’ मर्दानगी की मानसिकता से मुक्ति और लैंगिक समानता, दो छोरों पर खड़ी हुई हैं। इसके लिए समाज को तैयार करना सहज नहीं है।

लैटिन अमेरिका में ‘मेन केयर’ नामक वैश्विक पितृत्व अभियान के अंतर्गत लैंगिक समानता स्थापित करने के लिए रवांडा में ‘ग्रासरूट्स इंटरवेंशन’ नामक कार्यक्रम शुरू किया गया। इसमें यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि जब महिलाएं परिवार और घर चलाने के लिए, घर से बाहर जाकर काम कर सकती हैं तो क्यों पुरुष घर के कामों में हाथ नहीं बंटा सकते। ‘बांदरबेरहो’ नामक इस कार्यक्रम से पुरुषों के व्यवहार में बदलाव आ रहा है। पर यह सब इतना आसान नहीं है। वास्तविकता यह है कि हमारी सामाजिक परंपराएं आज भी नकारात्मक हैं। विकसित देश हों या विकासशील, स्वयं को आधुनिक और शिक्षित कहने वाला तबका समानता के विचार को मानने का दावा करता है, पर यह केवल विचार-प्रक्रिया तक सीमित है।

वे कार्य जो धनार्जन से जुड़े हैं, उन्हें श्रेष्ठ समझने की अवधारणा ने समाज को उस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है कि महिलाएं स्वयं को गृहणी नहीं कहलाना चाहतीं। पीटर लेटमार्क ने ‘द स्टिग्मा आॅफ बीइंग ए हाऊसवाईफ’ (गृहणी होने का दाग) में उन चिंताजनक परिस्थितियों की चर्चा की है, जो यह बताती है कि घरेलू कामकाज की जटिल होती स्थितियों और उनको कमतर मापने की सामाजिक सोच के चलते स्वीडन और नार्वे में गृहणी कहलाना महिलाएं सम्मानजनक नहीं मानतीं।

यही स्थिति दक्षिण कोरिया में भी है। वहां महिलाओं को घरेलू काम, अपने पति और ससुराल वालों की देखभाल करने के दवाब के कारण नौकरी छोड़नी पड़ती है और यही कारण है कि दक्षिण कोरिया में विवाह की दर तेजी से कम हो रही है। विश्व का कोई देश ऐसा नहीं है जहां महिलाओं का प्रथम दायित्व घरेलू जिम्मेदारियों को नहीं माना जाता, बावजूद इसके कि वे घर से बाहर निकल कर, यहां तक कि घर में कुटीर उद्योग चला कर अर्थ अर्जन कर रही हैं।

तमाम शोधों के ताने-बाने एक ही गांठ पर जाकर अटक जाते हैं कि महिलाओं की घरेलू जिम्मेदारियों को साझा करने की मानसिकता सहजता से नहीं बदलने वाली। जब तक हमारी सामाजिक शब्दावली में से ‘महिला की घरेलू जिम्मेदारी’ हट नहीं जाता, तब तक महिलाएं यों ही निरंतर मशीन की तरह काम करती रहेंगी। जब घर जितना महिला का है, उतना ही पुरुष का, तो इस शब्द का विकल्प भी ढ़ूढ़ना ही होगा और तब शायद ‘मेल बॉक्स’ से मुक्ति का रास्ता मिल जाए।