पशु-पक्षियों से हमारा प्रेम सर्वविदित है। घर में कुत्ता पाल रखा है, क्योंकि कुत्ते हमें अच्छे लगते हैं। गली में भी बहुत सारे घूमते रहते हैं, पर वे हमारी तबीयत माफिक नहीं हैं। बहुत भौंकते हैं और कभी-कभी काट लेते हैं। हमारी लंबी सफेद गाड़ी से चिढ़ते भी हैं। जब हम गली से गुजरते हैं, तो वे गाड़ी के पीछे दौड़ने लग जाते हैं- ठीक वैसे जैसे घर का कुत्ता चोर के पैजामे का पायचा पकड़ने की कोशिश करता है। पर पायचा पकड़ना एक बात है और गाड़ी के पीछे दौड़ना दूसरी बात है। दौड़ कर क्या हासिल कर लेंगे?

बेअक्लों को नहीं मालूम है कि गाड़ी उनसे तेज दौड़ती है और अगर वे उसके लोहे पर मुंह मारेंगे तो उनके दांत टूट जाएंगे। पर अगर ये फर्क समझते तो क्या गली के होते? वे गली में इसलिए हैं, क्योंकि लंबी सफेद गाड़ी के सत्य को ग्रहण करने के बजाय उस पर भौंकते रहते हैं। अक्लमंद भौंकते नहीं, खामोशी से गोद में पलते हैं। हमने बहुत छोटी उम्र से ही कुत्ता पालना शुरू कर दिया था। पहले का नाम रोजर था, दूसरे का नाम टॉमी था।

एक जर्मन था, दूसरा ब्रिटेन की कुकुर जाति का नुमाइंदा था। दोनों बड़े कुत्ते थे। पिछली टांगों पर अगर खड़े हो जाते थे, तो छह फुट लांघ जाते थे। उनको रोज वर्जिश की जरूरत होती थी और इसलिए सुबह-शाम खुले मैदान में ले जाना पड़ता था। खूब दौड़ते थे, बॉल के साथ खेलते थे और अक्सर इतने जोश में आ जाते थे कि हम पर ही कूद पड़ते थे। उनकी मोहब्बत का इजहार बहुत बार दुखदायी साबित हुआ था। घुटने छिल गए थे।

एक बार तो हमें गिरा कर ऐसे छाती पर बैठे थे कि सड़क चलतों को हमें उनके नीचे से निकालने के लिए आना पड़ा था। हमें उनका यह हुड़दंग एकदम नागवार गुजरा था। रोजर सड़क दुर्घटना में मारा गया था और टॉमी कुछ ऐसा बीमार पड़ा था कि हमने मन कड़ा करके डॉक्टर से धीरे से कहा था कि इसको चिरनिद्रा का लाभ दे दो।

रोजर और टॉमी के बावजूद हमारा पशुप्रेम कम नहीं हुआ था। देसी नस्ल पालने का तो सवाल ही नहीं था- आप कुछ भी कर लें, उनकी गली वाली प्रवृत्ति जाती नहीं है। अच्छे मकान में रहने और लंबी गाड़ी में घूमने की उनकी पात्रता नहीं है। वैसे भी देसी नस्ल के साथ शाम को वॉक पर जाना कुछ अटपटा-सा लगता है। मोहल्ले में बरसों की बनाई हुई छवि पर मिट्टी पुत जाती है। सो, चाहिए तो विदेशी नस्ल ही था और ऐसा जो कि गोद में पल सके। सुविधापरस्ती संस्कार वाला हो- न भौंके और न काटे, बस गोदी में पड़ा हुआ क्यूट-सा लगे।

दूसरे शब्दों में, बिना खरोंच लगे, शौक पूरा हो जाए, यानी हमारा अखंड जीव प्रेम मौके-मौके पर फेसबुक पर अवतरित होता रहे। हमारे एक मित्र का कहना है, प्रोफाइल में ‘डॉग लवर’ लिखने से व्यक्तित्व का आकर्षण बढ़ता है। वैसे भी हमारे प्राचीन ग्रंथों में जीव प्रेम का महत्त्व बताया गया है। उनके अनुसार प्रकृति पुरुष को पूर्णता प्रदान करती है।

पर क्योंकि हमारे पुरखों ने अंग्रेजों की गुलामी की थी और हम खुद कॉन्वेंट स्कूल के पढ़े हुए हैं, इसलिए बर्तानिया में पाई जाने वाली नस्लों के हम मुरीद हैं। टॉमी के बाद हमने गोरों की मनपसंद कॉकरस्पैनियल प्रजाति को घर ले आए थे। इस बार पूरी एहतियात बरतते हुए हमने कुत्ते के बजाय एक निहायत खूबसूरत लेडी डॉग को चुन लिया। लोगों में हमारी पसंद की बड़ी वाहवाही की थी और बताया था कि वह एकदम सटीक गोदी डॉग है- कोई गुर्राना नहीं, भौंकना नहीं, गोदी से उतरना नहीं, पर हमेशा पोज मारने के मूड में बने रहने की उसकी विशेष खूबी थी।

पर उधर जाहिर माहौल अंग्रेजों से आगे बढ़ गया था। गुलामी की शर्मिंदगी से पलट कर हम गर्व से भर गए थे। सड़कों से लेकर शहरों के नाम बदलने का दौर अपने चरम पर था। विलायती कुत्ता रखना एक उम्दा बात अब भी थी, पर उसका नाम संस्कारी होना जरूरी हो गया था। जेहन में डेजी नाम आया था, पर हमने इस खयाल पर फौरन सांकल मार दी थी। नौकर ने लाडो सुझाया। हमने मान लिया। गोदी में बैठा कर लाडो कहना वाजिब लगा था। उसके साथ हमारी कई फोटो अलग-अलग मीडिया पर है, जिसमें लाडो हमारे पोज से ताल मिला रही है।

हाल में पक्षी हमें बहुत प्यारे हो गए हैं। हुआ यह कि किसी किताब में हमने एक भव्य राजपूत राणा का चित्र देखा था, जिसमें वह अपनी टेढ़ी उंगली पर एक तोते को बैठाए हुए थे। तोते के साथ महाराज का चित्र हमें बेहद पसंद आया था। उससे जुझारू, कर्मठ राजा की संवेदनशीलता पूरी तरह से व्यक्त हो रही थी।

हमने फौरन से पेशतर एक तोते के पंख काट डाले थे और अपनी टेढ़ी उंगली का नग बना लिया था। उसके साथ हमारे इतने फोटो चले कि दोस्त-यार हमें वास्तव में शाही वल्दियत और तबियत का मानने लगे थे। एकाध तो इतने प्रभावित हुए कि कहने लगे, आप बतखों, कबूतरों, हिरनों आदि के साथ भी फोटो खिंचवा लें, तो इतिहास में आपकी शख्सियत की अलग ही पहचान बन जाएगी।

एक साहब तो कुछ ज्यादा ही उत्साहित होकर बोले थे कि कोई हर्ज नहीं, अगर लगे हाथों शेर के दांत गिनते हुए भी हमारी तस्वीरें चाहने वालों के लिए उतार ली जाएं। कबूतरों को आसमान में हांकते हुए और धरातल पर बकरी को दाना डालते के साथ अगर शेर वाला अध्याय भी जुड़ जाए, तो आपके यश में चार चांद और जुड़ सकते हैं। मगरमच्छों से अठखेली करने का जमाना तो चला गया था, पर सर्कस के पुराने शेर अब भी उपलब्ध थे। दांत कम हों तो भी काम चल जाएगा। फोटोशॉप इन कामों के लिए बेहद उपयुक्त है।

आज की तारीख में गोदी लेडी डॉग से लेकर गौरेया तक हमने घर में रख रखी है। सबके बढ़िया देसी नाम भी रखे हुए हैं। जब मन उचाट होता है तो उनके साथ फोटो उतरवा लेते हैं और हम तुरंत मीडिया में चकरघिन्नी की तरह सर्कुलेट होने लगते हैं। लाडो ने तो फोटो के चक्कर में इतना मुंह चाट डाला है कि दाढ़ी के बाल मुरझा कर गिर गए हंै। चेहरा सफाचट हो गया है। पर फिर भी दिल मांगे मोर।

वैसे, जंगल में मोर नाचा किसने देखा? मजा तो तब है जब घर में मोर को नचवाया जाए। हम आजकल यही कर रहे हैं। लाडो बेहद खुश है।