करगिल युद्ध को बीस साल हो गए हैं। शहीदों को नमन। साथ में उन सारे शहीदों को भी नमन, जिन्होंने इससे पहले हुए तमाम युद्धों में देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। हर वह वीर, जिसने अपनी जान की परवाह किए बगैर दुश्मन के दांत खट्टे किए थे, हमारी कृतज्ञता का हकदार है और वे भी, जो देश के लिए लड़ते हुए घायल हुए थे। इन वीर जवानों की वजह से ही यह देश महफूज है और हम-आप जैसे नागरिक अमन-चैन के माहौल में सांस ले रहे हैं।

अंग्रेजी के एक उपन्यास ‘हाउ ग्रीन वाज माई वैली’ में एक पात्र अपने पिता से पूछता है कि कोई लड़का मर्द कब बन जाता है? वे जवाब देते हैं- जब मर्द होने की जरूरत होती है। कहने का मतलब है कि हम सब जब भी विषम परिस्तिथियों से घिर जाते हैं, तो अचानक हमारी चेतना में व्यापक तब्दीली आ जाती है। हम एक पल में अपने मन में सालों से पल रही दुर्बलता को लांघ कर वीर हो जाते हैं। लड़के को मर्द बनने में वास्तव में एक पल ही लगता है। मर्दानगी की कोई प्रक्रिया नहीं होती है। इसमें क्रमागत उन्नति (एवोलुशन) की कोई गुंजाइश नहीं है। करगिल युद्ध से दस साल पहले सीमा सुरक्षा बल को श्रीनगर में एक जले हुए घर की राख के ढेर में एक डायरी मिली थी। यह डायरी एक अनाम कश्मीरी पंडित की थी, जो 1990 में चल रहे जिहादी कहर में फंस गया था। इस गुमनाम पंडित ने श्रीनगर में व्याप्त घोर हिंसा की वजह से अपने परिवार को जम्मू भेज दिया था, पर खुद नहीं जा पाया था। वैसे भी शुरुआती दौर में उसे विश्वास था कि पंडितों के खिलाफ हिंसा क्षणिक उन्माद है और जल्द ही घाटी की नसों में बसी कश्मीरियत इस उन्माद को शांत कर देगी। पंडित को अपने संमिश्रित समाज से बड़ी उमीदें थी।

उन दिनों श्रीनगर में लगे कर्फ्यू से त्रस्त होकर, जिसमें आवाजाही पर कड़ा पहरा था, इस गुमनाम पंडित ने डायरी लिखनी शुरू की थी। किसी और से बातचीत करने का जरिया तो था नहीं, इसीलिए उसने डायरी के जरिए खुद से ही बात करना शुरू कर दिया था। डायरी उसकी रोजमर्रा के अकेलेपन और कटते सामाजिक संबंधों का दर्दनाक दस्तावेज है। यह शायद उसी तरह का दस्तावेज है जैसे कि सुप्रसिद्ध ‘डायरी आॅफ ऐनी फ्रैंक’ है, जिसमें नाजी जर्मनी में घट रही यहूदियों के खिलाफ हिंसा और नफरत का मार्मिक वर्णन है। श्रीनगर का यह अनाम पंडित अपने चारों तरफ फैले माहौल से पहले तो निराश और व्याकुल होता है, फिर एकदम सुप्त होकर अपनी मौत का इंतजार करने लगता है। पर किसी एक क्षण में उसकी अंदर की मर्दानगी जाग जाती है। वह वीर हो जाता है। डायरी में वह लिखता है कि मैं आतंकवाद का जवाब बंदूक से तो दे नहीं सकता, क्योंकि मेरे पास बंदूक नहीं है। पर मेरे पास कलम तो है। मैं अपनी डायरी में इनके हर एक जुर्म को दर्ज करूंगा, क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ हर आम शहरी को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। अपने-अपने मोर्चे पर डटे रहना चाहिए। मेरा मोर्चा मेरी जमीन है और कलम मेरा हथियार है।

वह पूछता है कि जब एक सैनिक युद्ध में दुश्मनों से घिर जाता है, तो क्या वह भाग जाता है? अनाम पंडित कहता है कि जैसे बुरी तरह से घिरा हुआ सैनिक, जिसे बचाव की कोई उम्मीद नहीं है, आखिरी सांस तक लड़ कर अपनी वीरता का प्रणाम देता है, उसी तरह हम शहरी भी घिर जाते हैं। युद्ध में जैसे हमले होते हैं वैसे आम जिंदगी में भी होते हैं और उनका मुकाबला हमको एक घिरे हुए सैनिक की तरह करना चाहिए। हमें अपना मोर्चा संभाले रहना चाहिए, चाहे दुश्मन की फौज कितनी बड़ी क्यों न हो और बमबारी कितनी भी भीषण क्यों न हो। वह कहता है कि मैं जिस माहौल में पला-बढ़ा हूं और जिसकी जमीन मेरे बाप- दादाओं ने तराशी थी, उसको मैं कैसे दबाव में त्याग दूं? डर के मैं क्यों भाग जाऊं या आतंक के सामने क्यों समर्पण कर दूं? मैं अकेला हूं। मेरे पास भीड़ नहीं है और न ही बंदूक है। पर मेरे पास हौसला है। मेरे पास मेरी कलम है। मैं हौसला नहीं खोऊंगा। वह कहता है कि मेरी बिरादरी ने गलत किया। वे डर गए। भाग गए। दुबक कर बैठ गए। उनको एहसास नहीं था कि वीरता बंदूक की मोहताज नहीं होती है, बल्कि हौसले से पैदा होती है। वास्तव में हर शहरी उतना ही शूर वीर है, जितना कि सरहद पर दुश्मन से जंग करता हुआ सिपाही। सिपाही अपना हौसला बनाए रखता है और इसलिए जीत कर आता है। हम अपना हौसला खो देते हैं और हमारा दुश्मन हमें हरा देता है।

डायरी से जाहिर है कि एक सहमा हुआ नागरिक अचानक हीरो (नायक) में तब्दील हो जाता है। वह अपनी जंग खुद लड़ने का जिम्मा ले लेता है। सिर्फ कलम से लैस वह हिंसक भीड़ के खिलाफ मुस्तैदी से खड़ा हो जाता है। वह डर को परे कर देता है। वह वीर हो जाता है। हालात पर गवाही देकर वह अपना मोर्चा जीत लेता है। एक पल में लड़का मर्द बन जाता है। कई साल पहले एक बुजुर्ग ने हमसे कहा था- गुंडा गुंडे से नहीं डरता, उसको बस इसका खौफ रहता है कि अगर कहीं किसी शरीफ आदमी से उसका सामना हो गया, तो वह क्या करेगा? महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की नीव शायद इसी अनुभव पर रखी गई थी- बुराई और झूठ से असहयोग, दबंगई से असहयोग, दमन से असहयोग हमारा-आपका मोर्चा है। इस मोर्चे पर हमें डटे रहना है, क्योंकि लोकतंत्र के नागरिक की वीरता का परिचायक उसकी सतत सत्य के प्रति प्रतिबद्धता और अमिट रोशन खयाली है।